श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
तीसरा अध्याय
तद् एव मुमुक्षुभिः परमप्राप्यतया वेदान्तोदितनिरस्तनिखिलाविद्यादि दोषगन्धानवधिकातिशयासङ्ख्येय कल्याणगुणगणपरब्रह्मपुरुषोत्तम प्राप्त्युपायभूतवेदनोपासनध्यानादिशब्दवाच्यतदैकान्तिकात्यन्तिकभक्तियोगंवक्तु तदंगभूतम् ‘य आत्मापहत पाप्मा’ (छा0 उ0 8/7/1) इत्यादिप्रजापतिवाक्योदितं प्राप्तुः आत्मनो याथात्म्दर्शनं तन्नित्यताज्ञानपूर्वकासंगकर्मनिष्पाद्यानयोगसाध्यम् उक्तम्।
जो मुमुक्षु पुरुषों के द्वारा प्राप्त करने योग्य वेदान्तवर्णित पर-तत्त्व है, अविद्या आदि सम्पूर्ण दोषों की गन्ध से भी रहित है और असीम अतिशय असंख्य कल्याणमय गुणों का समूह है, उस परब्रह्म पुरुषोत्तम की प्राप्ति के उपायरूप-वेदना, उपासना और ध्यान आदि नामों से कथित ऐकान्तिक[1]और आत्यन्तिक[2] भक्तियोग का वर्णन करने के लिये (यहाँ तक) उसके अंगभूत मुमुक्षु जीवात्मा के यथार्थ स्वरूपज्ञान को, जिसका वर्णन ‘य आत्मापहतपाप्मा’ इत्यादि प्रजापति के वाक्यों (उपनिषद्)-में किया गया है तथा जो आत्मा की नित्यता के ज्ञानपूर्वक किये जाने वाले आसक्तिरहित कर्मों के फलस्वरूप ज्ञानयोग से प्राप्त होता है, कहा गया।
प्रजापतिवाक्ये हि दहरवाक्योदित परविद्याशेषतया प्राप्तुः आत्मनः स्वरूपदर्शनं ‘यस्तमात्मानमनुविद्य विजानाति’ [3]
प्रजापति के वचनों में दहरविद्या विषयक प्रसंग में वर्णित पराविद्या के अंगरूप से जीवात्मा के स्वरूप ज्ञान का उपसंहार दहर विद्या फल के साथ किया गया है। वहाँ जो उस आत्मा को (आचार्य से) समझकर जानता है
इति उक्त्वा जागरितस्वप्नसुषुप्त्यतीतं प्रत्यगात्मस्वरूपम् अशरीरं प्रतिपाद्य ‘एवमेवैष सम्प्रसादोऽस्माच्छरीरात्समुत्थाय परं ज्योतिरुपसम्पद्य स्वेन रूपेणाभि निष्पद्यते’ (छा0 उ0 8/12/3) इति दहरविद्याफलेन उपसंहृतम्।
यह कह कर प्रत्यगात्मा का स्वरूप जाग्रत्’ स्पप्न-सुषुप्ति-इन तीनों अवस्थाओं से अतीत और शरीर से रहित बतलाया है। पश्चात्, ‘इसी प्रकार यह सम्प्रसाद इस शरीर से निकलकर परम ज्योति की समीपता प्राप्त करके अपने रूप से ही सिद्ध होता है’ यह कहा गया है।
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