श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य पृ. 246

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
नवाँ अध्याय

विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन ।
भूय: कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ॥18॥

जनार्दन! अपने योग और विभूति को विस्तार पूर्वक आप फिर कहिये, क्योंकि (आपके माहात्मयरूप) अमृत को सनुते-सुनते मेरी तृप्ति नहीं हो रही है।। 18।।

‘अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्व प्रवर्तते’ [1] इति संक्षेपेण उक्तं तव स्नष्ट्रत्वादियोगं विभूतिं नियमनं च भूयः विस्तरेण कथय। त्वया उच्यमानं त्वन्माहात्म्यामृतं श्रृण्वतो मे तृप्तिः न अस्ति हि-मम अतृप्तिः त्वया एव विदिता इति अभिप्रायः।। 18।।

‘अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्व प्रवर्तते’ इस प्रकार संक्षेप में कहे हुए आपके सृष्टि कर्ता आदि गुणरूप योग को और विभूति को-नियमन करने योग्य भावों को फिर विस्तारपूर्वक कहिये। आपके द्वारा कहे हुए आपके माहात्म्य रूप अमृत को सुनते-सुनते (कानों से पीते-पीते) मैं तृप्त नहीं होता हूँ। यहाँ ‘हि’ का यह अभिप्राय है कि मेरी अतृप्ति को आप ही जानते हैं।। 18।।

श्रीभगवानुवाच

हन्त ते कथयिष्यामि विभूतीरात्मन: शुभा: ।
प्राधान्यत: कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ॥19॥

श्री भगवान बोले- अर्जुन! अब मैं तुझे अपनी कल्याणमयी विभूतियों को प्रधानता से कहूँगा। क्योंकि मेरे (विभूतियों के) विस्तार का अन्त नहीं है।। 19।।

हे कुरुश्रेष्ठ मदीयाः कल्याणीः विभूतीः प्राधान्यतः ते कथयिष्यामि। प्राधान्यशब्देन उत्कर्षो विवक्षितः, ‘पुरोधसां च मुख्यं माम्’ [2] इति हि वक्ष्यते। जगति उत्कृष्टाः काश्चन विभूतीः वक्ष्यामि, विस्तरेण वक्तुं श्रोतुं च न शक्यते, तासाम् आनन्त्यात्। विभूतित्वं नाम नियाम्यत्वम्, सर्वेषां भूतानां बुद्धयादयः पृथग्विधा भावा मत्त एव भवन्ति इति उक्त्वा ‘एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः।’[3] इस प्रतिपादनात्। तथा तत्र योग शब्दनिर्दिष्टं स्त्रष्टृत्वादिकं विभूति शब्दानिर्दिष्टं तत्प्रवर्त्यत्वम् इति युक्तम्। पुनश्च ‘अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्व प्रवर्तते। इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः।।’ [4] इति उक्तम् ।। 19।।

कुरुश्रेष्ठ अर्जुन! मेरी कल्याणमयी विभूतियों को मैं तुझे प्रधानता से सुनाऊँगा। यहाँ ‘प्राधान्य’ शब्द से उत्कृष्टता का प्रति पादन करना अभीष्ट है; क्योंकि ‘पुरोधसां च मुख्यं माम्’ इस प्रकार आगे कहेंगे। अभिप्राय यह है कि संसार में अपनी कुछ श्रेष्ठ विभूतियों को बतलाऊँगा; क्योंकि मेरी विभूतियाँ अनन्त हैं, इसलिये उनका न तो विस्तार से कहना शक्य है और न सुनना ही। यहाँ भगवान् के नियमन में रहने वाली (समस्त जड-चेतन) वस्तुओं का नाम विभूति है। क्योंकि समस्त भूतों के नाना प्रकार के बुद्धि आदि भाव मुझसे ही होते हैं, ऐसा कहकर ‘एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः।’ इस तरह प्रतिपादन किया गया है। इसलिये यही समीचीन है कि वहाँ ‘योग’ शब्द से निर्दिष्ट भगवान् के स्रष्टापन आदि गुण हैं और ‘विभूति’ शब्द के द्वारा निर्दिष्ट वे पदार्थ हैं, जो भगवान् द्वारा प्रेरित किये जाने योग्य हैं। यही बात पुनः इस प्रकार कही गयी है कि ‘अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्व प्रवर्तते। इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः।।’ ।। 19।।

तत्र सर्वभूतानां प्रवर्तनरूपं नियमनम् आत्मतया अवस्थाय इति इमम् अर्थ योगशब्दनिर्दिष्टं सर्वस्य स्त्रष्टृत्वं पालयितृत्वं संहर्तृत्वं च इति सुस्पष्टम् आह-

वहाँ आत्मरूप में सब में स्थित होकर सब भूतों का यथायोग्य संचालनरूप जो नियमन है; यह तथा सबके सृजन, पालन और संहार का कर्तापन भी ‘योग’ शब्द से निर्दिष्ट है; यह बात स्पष्ट रूप से कहते हैं-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 10/8
  2. 10/24
  3. 10/7
  4. 10/8

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 1
अध्याय 2 17
अध्याय 3 68
अध्याय 4 101
अध्याय 5 127
अध्याय 6 143
अध्याय 7 170
अध्याय 8 189
अध्याय 9 208
अध्याय 10 234
अध्याय 11 259
अध्याय 12 286
अध्याय 13 299
अध्याय 14 348
अध्याय 15 374
अध्याय 16 396
अध्याय 17 421
अध्याय 18 448

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