शल्य का कर्ण को हंस और कौए का उपाख्यान सुनाना

महाभारत कर्ण पर्व के अंतर्गत 41वें अध्याय में संजय ने शल्य द्वारा कर्ण को कौए और हंस का उपाख्यान सुनाने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

शल्य द्वारा कर्ण को हंस और कौए का उपाख्यान सुनाना

संजय कहते हैं- माननीय नरेश! युद्ध का अभिनन्दन करने वाले अधिरथपुत्र कर्ण की पूर्वोक्त बात सुनकर फिर शल्य ने उससे यह दृष्टान्तयुक्त बात कही- सुतपुत्र! मैं युद्ध में पीठ न दिखाने वाले यज्ञपरायण, मूर्धाभिषिक्त नरेशों के कुल में उत्पन्न हुआ हूँ और स्वयं भी धर्म में तत्‍पर रहता हूँ। किंतु वृषभ स्वरूप कर्ण! जैसे कोई मदिरा से मतवाला हो गया हो, उसी प्रकार तुम भी उन्मत्त दिखाई दे रहे हो; अतः मैं हितैषी सुहृद होने के नाते तुम-जैसे प्रमत्त की आज चिकित्सा करूँगा। ओ नीच कुलांकार कर्ण! मेरे द्वारा बताये जाने वाले कौए के इस दृष्टान्त को सुनो और सुनकर जैसी इच्छा हो वैसा करो। महाबाहु कर्ण! मुझे अपना कोई ऐसा अपराध नहीं याद आता है, जिसके कारण तुम मुझ निरपराध को भी मार डालने की इच्छा रखते हो। मैं राजा दुर्योधन का हितैषी हूँ और विशेषतः रथ पर सारथि बनकर बैठा हूँ; इसलिये तुम्हारे हिताहित को जानते हुए मेरा आवश्यक कर्तव्य है कि तुम्हें वह सब बता दूँ। सम और विषम अवस्था, रथी की प्रबलता और निर्बलता, रथी के साथ ही घोड़ों के सतत परिश्रत और कष्ट, अस्त्र हैं या नहीं, इसकी जानकारी, जय और पराजय की सूचना देने वाली पशु-पक्षियों की बोली, मार, अतिमार, शल्य-चिकित्सा, अस्त्रप्रयोग, युद्ध और शुभाशुभ निमित्त-इन सारी बातों का ज्ञान रखना मेरे लिये आवश्यक है; क्योंकि मैं इस रथ का एक कुटुम्बी हूँ। कर्ण इसीलिये मैं पुनः तुमसे इस दृष्टांत का वर्णन करता हूँ।

कहते हैं समुद्र के तट पर किसी धर्मप्रधान राजा के राज्य में एक प्रचुर धन-धान्य से सम्पन्न वैश्य रहता था। वह यज्ञ-यागादि करने वाला, दानपति, क्षमाशील, अपने वर्णनुकूल कर्म में तत्पर, पवित्र, बहुत-से पुत्र वाला, संतान प्रेमी और समस्त प्राणियों पर दया करने वाला था। उसके जो बहुत-से अल्पवयस्क यशस्वी पुत्र थे, उन सबकी जूठन खाने वाला एक कौआ भी वहाँ रहा करता था। वैश्य के बालक उस कौए को सदा मांस, भात, दही, दूध, खीर, मधु और घी आदि दिया करते थे। वैश्य के बालकों द्वारा जूठन खिला-खिलाकर पाला हुआ वह कौआ बड़े घमंड में भरकर अपने समान तथा अपने से श्रेष्ठ पक्षियों का भी अपमान करने लगा। एक दिन की बात है, उस समुद्र के तट पर गरुड़ के समान लंबी उड़ानें भरने वाले मानसरोवर निवासी राजहंस आये। उनके अंगों में चक्र के चिह्न थे और वे मन-ही-मन बहुत प्रसन्न थे। उस समय उन हंसों को देखकर कुमारों ने कौए से इस प्रकार कहा- 'विहंगम! तुम्हीं समस्त पक्षियों में श्रेष्ठ हो। देखो, ये आकाशचारी हंस आकाश में जाकर बड़ी दूर की उड़ानें भरते हैं। तुम भी इन्हीं के समान दूर तक उड़ने में समर्थ हो। तुमने अपनी इच्छा से ही अब तक वैसी उड़ान नहीं भरी'। उन सारे अल्पबुद्धि बालकों द्वारा ठगा गया वह पक्षी मूर्खता और अभिमान से उनकी बात को सत्य मानने लगा। फिर वह जूठन पर घमंड करने वाला कौआ इन हंसों में सबसे श्रेष्ठ कौन है? यह जानने की इच्छा से उड़कर उनके पास गया और दूर तक उड़ने वाले उन बहुसंख्यक हंसों में से जिस पक्षी को उसने श्रेष्ठ समझा, उसी को उस दुर्बुद्धि ने ललकारते हुए कहा- चलो, हम दोनों उड़ें।[1]

बहुत काँव-काँव करने वाले उस कौए की वह बात सुनकर वहाँ आते हुए व पक्षियों में श्रेष्ठ आकाशचारी बलवान चक्रांग हँस पड़े और कौए से इस प्रकार बोले- हंसों ने कहा- 'काक! हम मानसरोवर निवासी हंस हैं, जो सदा इस पृथ्वी पर विचरते रहते हैं। दूर तक उड़ने के कारण हम लोग सदा सभी पक्षियों में सम्मानित होते आये हैं। ओ खोटी बुद्धि वाले कागा! तू कौआ होकर लंबी उड़ान भरने वाले और अपने अंगों में चक्र का चिह्न धारण करने वाले एक बलवान हंस को अपने साथ उड़ने के लिये कैसे ललकार रहा है? काग! बता तो सही, तू हमारे साथ किस प्रकार उड़ेगा? हंस की बात सुनकर बढ़-बढ़कर बातें बनाने वाले मूर्ख कौए ने अपनी जातिगत क्षुद्रता के कारण बारंबार उनकी निंदा करके उसे इस प्रकार उत्तर दिया। कौआ बोला- हंस! मैं एक सौ एक प्रकार की उड़ानें उड़ सकता हूँ? उसमें संशय नहीं है। उसमें से प्रत्येक उड़ान सौ-सौ योजन की होती है और वे सभी विभिन्न प्रकार की एवं विचित्र हैं। उनमें से कुछ उड़ानों के नाम इस प्रकार हैं- उड्डीन (ऊँचा उड़ना), अवडीन (नीचा उड़ना), प्रडीन ( चारों ओर उड़ना), डीन (साधारण उड़ना), निडीन (धीरे-धीरे उड़ना), संडीन (ललित गति से उड़ना), तिर्यग्डीन (तिरछा उड़ना), विडीन (दूसरों की चाल की नकल करते हुए उड़ना), परिडीन (सब ओर उड़ना), पराडीन (पीछे की ओर उड़ना), सुडीन (स्वर्ग की ओर उड़ना), अभिडीन (सामने की ओर उड़ना), महाडीन (बहुत वेग से उड़ना), निर्डीन (परों को हिलाये बिना ही उड़ना), अतिडीन (प्रचण्डता से उड़ना), संडीन डनी-डीन (सुन्दर गति से आरम्भ करके फिर चक्कर काटकर नीचे की ओर उड़ना), संडीनोड्डीनडीन (सुन्दर गति से आरम्भ करके फिर चक्कर काटकर ऊँचा उड़ना), डीनविडीन (एक प्रकार की उड़ान में दूसरी उड़ान दिखाना), सम्पात (क्षणभर सुन्दरता से उड़कर फिर पंख फड़फड़ाना), समुदीष (कभी ऊपर की ओर और कभी नीच की ओर उड़ना), और व्यक्तिरिक्तक (किसी लक्ष्य का संकल्प करके उड़ना), ये छब्बीस उड़ानें हैं। इनमें से महाडीन के सिवा अन्य सब उड़ानों के गत (किसी लक्ष्य की ओर जाना), आगत (लक्ष्य तक पहुँच कर लौट आना), और प्रतिगत (पलटा खाना)- ये तीन भेद हैं (इस प्रकार कुल छिहत्तर भेद हुए)। इसके सिवा बहुत-से (अर्थात पच्चीस) निपात भी हैं।[2] (ये सब मिलकर एक सौ एक उड़ानें होती हैं)।

आज मैं तुम लोगों के देखते-देखते जब इतनी उड़ानें भरूँगा, उस समय मेरा बल तुम देखोगे। मैं इनमें से किसी भी उड़ान से आकाश में उड़ सकूँगा। हंसों! तुम लोग यथोचित रूप से विचार करके बताओं कि मैं किस उड़ान से उड़ूँ। अतः पक्षियों! तम सब लोग दृढ़ निश्चय करके आश्रय रहित आकाश में इन विभिन्न उड़ानों द्वारा उड़ने के लिए मेरे साथ चलो न। हंस बोला- काग! तू अवश्य एक सौ एक उड़ानों द्वारा उड़ सकता है। परंतु मैं तो जिस एक उड़ान को सारे पक्षी जानते हैं उसी से उड़ सकता हूँ, दूसरी किसी उड़ान का मुझे पता नहीं है। लाल नेत्र वाले कौए! तू भी जिस उड़ान से उचित समझे, उसी से उड़। तब वहाँ आये हुए सारे कौए जोर-जोर से हँसने लगे और आपस में बोले- भला यह हंस एक ही उड़ान से सौ प्रकार की उड़ानों को कैसे जीत सकता है? यह कौआ बलवान और शीघ्रता पूर्वक उड़ने वाला है; अतः सौ में से एक ही तदनन्तर हंस और कौआ दोनों होड़ लगाकर उड़े। चक्रांग हंस एक ही गति से उड़ने वाला था और कौआ सौ उड़ानों से। इधर से चक्रांग उड़ा और उधर से कौआ।[3] कौआ विभिन्न उड़ानों द्वारा दर्शकों को आश्चर्यचकित करने की इच्छा से अपने कार्यों का बखान करता जा रहा था। उस समय कौए बड़े प्रसन्न हुए और जोर-जोर से कांव-कांव करने लगे। वे दो-दो घड़ी पर बारंबार उड़-उड़कर कहते- देखो, कौए की यह उड़ान, वह उड़ान। ऐसा कहकर वे हंसों का उपहास करते और उन्हें कटु वचन सुनाते थे। साथ ही कौए की विजय के लिये शुभाशंसा करते और भाँति-भाँति की बोली बोलते हुए वे कभी वृक्षों की शाखाओं से भूतल पर और कभी भूतल से वृक्षों की शाखाओं पर नीचे-ऊपर उड़ते रहते थे। आर्य! हंस ने एक ही मृदुल गति से उड़ना आरम्भ किया था; अतः दो घड़ी तक वह कौए से हारता-प्रतीत हुआ। तब कौओं ने हंसों का अपमान करके इस प्रकार कहा- 'वह जो हंस उड़ रहा था, वह तो इस प्रकार कौए से पिछड़ता जा रहा है!' उड़ने वाले हंस ने कौओं की बात सुनकर बड़े वेग वाले मकरालय समुद्र के ऊपर-ऊपर पश्चिम दिशा की ओर उड़ना आरम्भ किया। इधर कौआ थक गया था।

उसे कहीं आश्रय लेने के लिये द्वीप या वृक्ष नहीं दिखाई दे रहे थे; अतः उसके मन में भय समा गया और वह घबराकर अचेत सा हो उठा। कौआ सोचने लगा, मैं थक जाने पर इस जलराशि में कहाँ उतरूँगा? बहुत से जल-जन्तुओं का निवास स्थान समुद्र मेरे लिये असह्य है। असंख्य महाप्राणियों से उद्भासित होने वाला यह महासागर तो आकाश से भी बढ़कर है। सूतपुत्र कर्ण! समुद्र में विचरने वाले मनुष्य भी उसकी गम्भीरता के कारण दिशाओं द्वारा आवृत उसकी जलराशि की थाह नहीं जान पाते, फिर वह कौआ कुछ दूर तक उड़ने मात्र से उस समुद्र के जल समूहों का पार कैसे पा सकता था? उधर हंस दो घड़ी तक उड़कर इधर-उधर देखता हुआ कौए की प्रतीक्षा करने लगा कि यह कौआ भी उड़कर मेरे पास आ जाये। तदनन्तर उस समय अत्यन्त थका-मांदा कौआ हंस के समीप आया। हंस ने देखा, कौए की दशा बड़ी शोचनीय हो गयी है। अब वह पानी में डूबने ही वाला है। तब उसने सत्पुरुषों के व्रत का स्मरण करके उसके उद्धार की इच्छा मनद में लेकर इस प्रकार कहा। हंस बोला- 'काग! तू तो बार बार अपनी बहुत सी उड़ानों का बखान कर रहा था; परंतु उन उड़ानों का वर्णन करते समय उनमें से इस गोपनीय रहस्ययुक्त उड़ान की बात तो तूने नहीं बतायी थी। कौए! बता तो सही, तू इस समय जिस उड़ान से उड़ रहा है, उसका क्या नाम है? इस उड़ान में तो तू अपने दोनों पंखो और चोंच के द्वारा जल का बार-बार स्पर्श करने लगा है। वापस! बता, बता। इस समय तू कौन सी उड़ान में स्थित है। कौए! आ, शीघ्र आ। मैं अभी तेरी रक्षा करता हूँ।' शल्य कहते हैं- दुष्टात्मा कर्ण! वह कौआ अत्यन्त पीड़ित हो जब अपनी दोनों पाँखों और चोंच से जल का स्पर्श करने लगा, उस अवस्था में हंस न उसे देखा। वह उड़ान के वेग से शिथिलांग हो गया था और जल का कहीं आर-पार न देखकर नीचे गिरता जा रहा था। उस समय उसने हंस से इस प्रकार कहा- 'भाई हंस! हम तो कौए हैं। व्यर्थ में काँव-काँव किया करते हैं। हम उड़ना क्या जानें? मैं अपने इन प्राणों के साथ तुम्हारी शरण में आया हूँ। तुम जल के किनारे तब पहुँचा दो'।[4]

ऐसा कहकर अत्यन्त थका-मांदा कौआ दोनों पँखों और चोंच से जल का स्पर्श करता हुआ सहसा उस महासागर में गिर पड़ा। उस समय उसे बड़ी पीड़ा हो रही थी। समुद्र के जल में गिरकर अत्यन्त दीनचित्त हो मृत्यु के निकट पहुँचे हुए उस कौए से हंस ने इस प्रकार कहा-। काग! तूने अपनी प्रशंसा करते हुए कहा था कि मैं एक सौ एक उड़ानों द्वारा उड़ सकता हूँ। अब उन्हें याद कर। सौ उड़ानों से उड़ने वाला तू तो मुझसे बहुत बढ़ा-चढ़ा है। फिर इस प्रकार थककर महासागर में कैसे गिर पड़ा? तब जल में अत्यन्त कष्ट पाते हुए कौए ने जल के ऊपर ठहरे हुए हंस की ओर देखकर उसे प्रसन्न करने के लिये कहा। कौआ बोला- 'भाई हंस! मैं जूठन खा-खाकर घमंड में भर गया था और बहुत से कौओं तथा दूसरे पक्षियों का तिरस्कार करके अपने आप को गरुड़ के समान शक्तिशाली समझने लगा। हंस! अब मैं अपने प्राणों के साथ तुम्हारी शरण में आया हूँ। मुझे द्वीप के पास पहुँचा दो। शक्तिशाली हंस! यदि मैं कुशलपूर्वक अपने देश में पहुँच जाऊँ तो अब कभी किसी का अपमान नहीं करूँगा। तुम इस विपत्ति से मेरा उद्धार करो'। कर्ण! इस प्रकार कहकर कौआ अचेत सा होकर दीन-भाव से विलाप करने और काँव-काँव करते हुए महासागर के जल में डूबने लगा। उस समय उसकी ओर देखना कठिन हो रहा था। वह पसीने से भीग गया था। हंस ने कृपापूर्वक उसे पंजों से उठाकर बड़े वेग से ऊपर उछाला और धीरे से अपनी पीठ पर चढ़ा लिया। अचेत हुए कौए को पीठ पर बिठाकर हंस तुरंत ही फिर उसी द्वीप में आ पहुँचा, जहाँ से होड़ लगाकर दोनों उड़े थे। उस कौए को उसके स्थान पर रखकर उसे आश्वासन दे मन के समान शीघ्रगामी हंस पुनः अपने अभीष्ट देश को चला गया। कर्ण! इस प्रकार जूठन खाकर पुष्ट हुआ कौआ उस हंस से पराजित हो अपने महान बल-पराक्रम का घमंड छोड़कर शांत हो गया। पूर्व काल में वह कौआ जैसे वैश्यकुल में सबकी जूठन खाकर पला था, उसी प्रकार धृतराष्ट्र के पुत्रों ने तुम्हें जूठन खिला-खिलाकर पाला है, इसमें संशय नहीं है। कर्ण! इसी से तुम अपने समान तथा अपने से श्रेष्ठ पुरुषों का भी अपमान करते हो।[5]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 41 श्लोक 1-19
  2. महाडीन के सिवा, जो अन्य पच्चीस उड़ानें कही गयी हैं, उन सबका पृथक्-पृथक् एक-एक संपात (पंख फड़फड़ाने की क्रिया) भी है। ये पच्चीस संपात जोड़ने से एक सौ एक संख्या की पूर्ति होती है।
  3. महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 41 श्लोक 20-38
  4. महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 41 श्लोक 39-58
  5. महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 41 श्लोक 59-77

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