शकुनि की घुड़सवार सेना की पराजय

महाभारत भीष्म पर्व में भीष्मवध पर्व के अंतर्गत 105वें अध्याय में 'संजय ने भीष्म की रक्षा करने के लिए उपस्थित हुई शकुनि की सेना का युधिष्ठिर और नकुल-सहदेव के द्वारा पराजित होने' का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

शकुनि की घुड़सवार सेना का आगमन

संजय कहते हैं- राजन! दुर्योधन के कहने पर शकुनि भीष्म की रक्षा के लिए उपस्थित होकर नकुल, सहदेव तथा धर्मराज युधिष्ठिर- इन तीनों श्रेष्ठ पुरुषों को सब ओर से घेरकर इन्हें आगे बढ़ने से रोकने लगा। तदन्तर राजा दुर्योधन ने पाण्ड़वों की प्रगति को रोकने के लिए दस हजार घुड़सवार सैनिक और भेजे। गरुड़ के समान अत्यन्त वेगशाली वे अश्व रणभूमि में यथास्थान पहुँच गऐ। जैसे मरुद्रणों से महातेजस्वी इन्द्र की शोभा होती है, उसी प्रकार उन अत्यन्त वेगशाली अश्वों के द्वारा अत्यन्त तेजस्वी सुबलपुत्र शकुनि सुशोभित होने लगा। राजन! उन घोडो़‌ं की टाप से आहत होकर यह पृथ्वी काँपने और भयंकर शब्द करने लगी। उस समय घोड़ों की टापों का महान शब्द सब ओर उसी प्रकार सुनायी देने लगा, मानो पर्वत पर जलते हुए बडे़-बड़े बाँसों के जंगल मे उनके पोरों के फटने का शब्द हो रहा हो। वहाँ घोड़ों के उछलने-कुदने से जो बड़े जोर की धुलि उपर को उठी, उसने मानो सूर्य के रथ के समीप पहुँचकर उन्हें आच्छादित कर दिया। उन वेगशाली अश्वों ने पांडव सेना को उसी प्रकार श्रुब्ध कर दिया, जैसे महान वेग से उड़ने वाले हंस किसी विशाल जलाशय में पड़कर उसे मथ डालते हैं। वायु के समान वेग वाले उन अश्वों ने पांडव सेना को व्याकुल कर दिया। उनके हिनहिनाने की आवाज से दबकर दूसरा कोई शब्द नहीं सुनायी पड़ता था।[1]

युधिष्ठिर, नकुल व सहदेव द्वारा शकुनि की सेना की पराजय

महाराज! तब राजा युधिष्ठिर तथा पाण्डुपुत्र माद्रीनन्दन नकुल-सहदेव ने समरभूमि में उन घुड़सवारों का वेग नष्ट कर दिया। ठीक उसी तरह, जैसे वर्षा ऋतु में अधिक जल से परिपूर्ण होकर मर्यादा तोड़ने वाले समुद्र के पूर्णिमा तिथि में बढ़े हुए वेग को तट की भूमि रोक देती है। राजन! तत्पश्चात वे रथी झुकी हुई गाँठ वाले बाणों द्वारा घुड़सवारों के मस्तक काटने लगे। महाराज! उन सुदृढ़ धनुर्धरों द्वारा मारे गये वे घुड़सवार रणभूमि में उसी प्रकार गिरते थे, जैसे पर्वतों की कन्दरा में बड़े बड़े हाथी हाथियों से ही मारे जाकर गिरते है। वे घुड़सवार भी दसों दिशाओं में विचरते हुए झुकी हुई गाँठ वाले तीखे बाणों तथा प्रासों द्वारा शत्रुपक्ष के सैनिकों के मस्तक काट गिराते थे। भरतश्रेष्ठ! ऋष्टियों द्वारा मारे गये घुड़सवार अपने मस्तकों को उसी प्रकार गिराते थे, जैसे बड़े बड़े वृक्ष अपने पके हुए फलों को गिराते है।

राजन! सवारों सहित वहाँ मारे गये बहुत से घोड़े सब ओर गिरे और गिराये जाते हुए दिखायी देते थे। जैसे सिंह का सामना पड़ जाने पर मृग भयभीत हो अपने प्राण बचाने के लिये भागते हैं, उसी प्रकार मारे जाते हुए घोड़े भय से व्याकुल हो इधर-उधर भाग रहे थे। महाराज! पाण्डव उस महासमर में शत्रुओं को जीतकर शंख फूँकने और नगाड़े पीटने लगे।[2]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 105 श्लोक 1-15
  2. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 105 श्लोक 16-35

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