व्यासदास ओरछा नरेश मधुकरशाह के राजपुरोहित थे। इनका प्रारम्भिक नाम हरिराम था, किंतु महाप्रभु हितहरिवंश जी से दीक्षा ग्रहण करने के बाद इनका नाम व्यासदास हो गया।
परिचय
ओरछा (बुन्देलखण्ड) के राज्य पुरोहित पण्डित सुमोखन शर्मा शुक्ल की धर्मपत्नी ने मार्गशीर्ष कृष्ण पंचमी विक्रम संवत 1567 (1510 ई.) को एक पुत्ररत्न पाया। बालक का नाम हरिराम रखा गया। पिता ने यथासमय सब संस्कार कराये और अध्ययन कराया। यथासमय पुत्र का विवाह भी उत्तम कुल की सुशीला कन्या से कर दिया। पण्डित हरिराम बहुत ही प्रतिभाशाली विद्वान थे। बड़े-बड़े विद्वान इस युवक से शास्त्रों का मर्म समझने आते थे। पिता के परलोकवासी होने पर ओरछा नरेश राजा मधुकरशाह के ये राजपुरोहित हो गये।
वाद-विवाद
हरिराम को वाद-विवाद करके पण्डितों को पराजित करने का व्यसन था। कहीं किसी विद्वान का नाम सुनते तो वहीं शास्त्रार्थ करने पहुँच जाते। इनके साथ राज्य के अंगरक्षक रहते थे। एक बार ये काशी पधारे। वहाँ के गणमान्य विद्वानों से भी शास्त्र चर्चा हुई और उसमें इनकी उत्कृेष्टता रही। श्रावण मास में बड़े विधि-विधान से इन्होंने विश्वनाथ जी का अभिषेक कराया। भगवान आशुतोष प्रसन्न हुए। उसी रात स्वप्न में एक साधु ने इनसे शंका की- "विद्या की पूर्णता कब है?" इन्होंने उत्तर दिया- "सत्यासत्या को जानकर प्राप्त करने योग्य पदार्थ को प्राप्त करने में है।" साधु ने कहा- "पण्डित जी! आप दूसरों को जितना समझाते हैं, उतना स्वयं क्यों नहीं समझते? विद्या की पूर्णता जब प्राप्त करने योग्य पदार्थ को प्राप्त करने में है, तब वह वाद-विवाद के द्वारा दूसरों को लज्जित करने से क्याे प्राप्त हो जायगा? वह पदार्थ तो भक्ति से ही प्राप्य है। भगवद्भक्ति में ही विद्या की पूर्णता है। अपनी विद्या को पूर्ण करने के लिये आपको भक्ति करनी चाहिये। अपूर्ण और अधूरी विद्या क्या आपको शोभा देती है?"
वृन्दावन आगमन
पण्डित हरिराम जागे तो उनका विद्या का नशा उतर गया। काशी में जीतकर भी वे अपने को हारा हुआ मान रहे थे और यही उनकी सच्ची विजय थी। उनके जीवन का मन्त्र हो गया- "वही पढ़ बिद्या, जामें भक्ति कौ प्रबोध होय"। काशी से वे सीधे ओरछा चले आये। अब उन्हें धन-दौलत, मान-प्रतिष्ठा आदि सब व्यर्थ मालूम होने लगा। किसी महापुरुष की शरण ग्रहण करने के लिये उनका हृदय ललक उठा। उसी समय महाप्रभु श्रीहितहरिवंश जी के शिष्य संत श्रीनवलदास जी ओरछा पधारे। पण्डित हरिराम को इनके सत्संग से बड़ी तृप्ति हुई। उनके उपदेश से वे घर-द्वार छोड़कर संवत 1591 विक्रमी (1534 ई.) के कार्तिक मास में वृन्दावन पहुँचे।
दीक्षा
जब पण्डित हरिराम यमुना स्नान करके श्रीहितहरिवंश जी महाप्रभु के पास पहुँचे, तब वे श्रीराधावल्लभ जी को भोग प्रस्तुत करने के लिये रसोई बना रहे थे। उसी समय इन्होंने बातें करनी चाहीं। महाप्रभु ने चूल्हे पर से पात्र उतार दिया और जल से अग्नि को शान्त कर दिया। इन्होंने कहा- "रसोई और चर्चा दोनों काम साथ हो सकते थे"। महाप्रभु ने समझाया- "दो स्थानों पर मन लगाये रखना व्यभिचारात्मक चित्तोवृत्ति है। यह कालसर्प से ग्रसित है, अत: उस कालव्याल से बचने के लिये चित्त को सब ओर से खींचकर श्री श्यामाश्याम के चरणों में ही लगाने वाला धन्य है।" हरिराम जी ने महाप्रभु से दीक्षा ग्रहण कर ली। अब वे ओरछा के राजपुरोहित नहीं रहे। उनका नाम हो गया व्यासदास। सेवाकुंज के पास एक मन्दिर बनवाकर उसमें श्रीराध-कृष्ण के युगल-स्वरूप को पधराकर ये सेवा में लग गये।
ओरछा नरेश का बुलावा
कुछ दिनों बाद ओरछा नरेश ने इनको लिवा लाने के लिये अपने मंत्री को वृन्दावन भेजा। मंत्री ने बहुत आग्रह-अनुरोध किया, पर श्रीधाम वृन्दावन छोड़ना इन्होंने स्वीकार नहीं किया। मंत्री ने देखा कि ये ऐसे नहीं चलेंगे तो श्रीहितमहाप्रभु जी से प्रार्थना की। महाप्रभु ने स्वीकार कर लिया और कहा- "स्नान करके आने पर हम व्यासदास से तुम्हारी बात कहेंगे।" इनको जब इस बात का पता लगा कि गुरुदेव ओरछा जाने की आज्ञा देने वाले हैं, तब ये यमुना किनारे झाउओं में छिप गये। तीन दिन तक इनका कुछ पता ही न लगा। महाप्रभु ने पता लगाने के लिये शिष्यों को भेजा। गुरुदेव का बुलावा सुनकर ये झाउओं में से निकले और देर तक यमुना स्नान करते रहे। फिर बहुत-सा कोयला घिसकर मुख पर पोत लिया और एक गधा साथ कर लिया। पूछने पर बोले- "जिनकी शरण में आकर मैंने श्रीधाम वृन्दावन का निवास पाया, वे ही मुझे यहाँ से बाहर जाने की आज्ञा देने वाले हैं। उनकी आज्ञा से इस दिव्यधाम से मुख काला करके गधे पर बैठकर मुझे नरक-रूप संसार में विवशत: जाना पड़ेगा। उस समय कोयला और गधा कदाचित न मिले, इसलिये मैंने अभी से इन्हें ले लिया है।" यह समाचार महाप्रभु तक शिष्यों ने पहुँचाया तो महाप्रभु बोले- "मैं उस बड़भागी से वृन्दावन छोड़ने के विषय में एक शब्द भी नहीं कहूँगा। व्यर्थ ही मैंने उसके भक्तिहृदय को क्लेश दिया।" गुरुदेव की इस बात का समाचार पाकर मुख धोकर व्यासदास जी ने आकर उनके चरणों में प्रणाम किया। महाप्रभु ने इनको उठाकर हृदय से लगा लिया। मंत्री का आग्रह बना ही था। उसने इनके साथ अपने आदमी कर दिये, जिससे ये कहीं छिप न जायें। दूसरे दिन भगवान का भोग लग जाने के पश्चात भक्तों की पंगत बैठी। जब भक्त प्रसाद पाकर उठ गये, तब अपने नित्य के नियमानुसार व्यासदास जी ने सभी भक्तों की पत्तलों में से उठाकर जूंठन- ‘सीथ’ ग्रहण किया। यह सब देखकर मंत्री ने समझ लिया कि अब ये आचार से गिर गये हैं। राजपुरोहित होने योग्य नहीं रहे हैं। मंत्री की अश्रद्धा हो गयी। मंत्री ने इनसे महाराज के नाम पत्र ले लिया और लौट गये।
राजा मधुकरशाह का निवेदन
मंत्री ने ओरछा जाकर राजा मधुकरशाह को पत्र दिया और बताया- "राजपुरोहित अब सबका झूठा खाने लगे हैं। वे यहाँ ले आने योग्य नहीं हैं।" राजा भगवद्भक्त थे। उनके ऊपर दूसरा प्रभाव पड़ा। वे सोचने लगे- "मेरे राजपुरोहित अब सच्चे महापुरुष हो गये हैं। यदि वे एक दिन को भी यहाँ आ जायें तो राज्य और राजमहल धन्य हो जाय।" अत: अब स्वयं राजा उन्हें मनाने वृन्दावन पहुँचे। राजा मधुकरशाह ने वृन्दावन आकर व्यासदास जी से आग्रह प्रारम्भ किया- "अधिक नहीं तो एक दिने के लिये ही सही, आप ओरछे एक बार अवश्य पधारें।" व्यासदास उन्हें टालने लगे। कभी कोई फूल-बँगला दर्शन करने को कहते, कभी कोई उत्सव। महाराज के आग्रह से संत भी इनसे कहने लगे कि "एक दिन के लिये जाने में क्या हानि है। परंतु इन्होंने तो वृन्दावन से बाहर न जाने का नियम कर लिया था। अन्त में राजा ने अपने कर्मचारियों को बलपूर्वक इनको पालकी में बैठाकर ले चलने को कहा। इन्होंने कहा- "जब चलना ही है, तब मुझे अपने भाई-बन्धुओं से मिल तो लेने दो।" एक-एक कदम्ब या तमाल से भुजा फैलाकर व्यासदास मिलने लगे। देर तक उससे चिपटे रहते। फूट-फूटकर रो रहे थे। एक से हटने पर दूसरे से जा चिपटते थे। कहते थे- "तुम्हीं मेरे सर्वस्व हो। तुम्हीं मेरे पुरुषार्थ हो। तुम मुझ पर दया क्यों नहीं करते? तुम मुझ दीन को क्यों छोड़ रहे हो, मुझसे ऐसा कौन-सा अपराध हो गया, तुमको छोड़कर मैं जी नहीं सकता।"
राजा मधुकरशाह का हृदय व्यासदास जी के लिये टूटा पड़ता था। वे किसी प्रकार एक बार इन्हें ओरछा ले जाना चाहते थे। अन्त में निराश होकर वे रो पड़े। हाथ जोड़कर चरणों पर सिर रखकर क्षमा मांगते हुए बोले- "आपने मेरे दुराग्रह से बहुत कष्ट उठाया। आपके हृदय को स्वार्थवश मैंने बहुत व्यथा दी। इतने पर भी आपने मुझे कोई कठोर वचन नहीं कहे। मेरे स्नेह को तोड़ा नहीं। मेरे अपराध को क्षमा कर दें। मैं अब और हठ नहीं करूँगा। आपकी जिसमें प्रसन्नता हो, वही करें। मुझे अपना अनुचर जानकर उपदेश करें।" व्यासदास जी ने राजा को भगवद्भक्ति और संतसेवा का उपदेश किया। गुरु की आज्ञा से ओरछा नरेश लौट आये।
पत्नी को दीक्षा
राजपुरोहितानी ने जब देखा कि मेरे पतिदेव राजा के जाने पर भी नहीं लौटे, तब वे स्वयं वृन्दावन पुत्रों के साथ पहुँचीं। व्यासदास जी ने पूरी उदासीनता दिखायी। उन्हें भला, अब स्त्री-पुत्र से क्या मोह? क्या प्रयोजन? लोगों ने सिफारिश की तो उन्होंने कहा- "जो नारी परमार्थ में न लगी हो, उसे पास रखना तो यम के पाश में अपने गले को फंसा लेना है।" पतिव्रता स्त्री पति के चरणों में गिर पड़ी और उसने जैसे पतिदेव आज्ञा करें, वैसे ही रहना स्वीकार किया। व्यासदास जी ने दीक्षा देकर उनका नाम ‘वैष्णवदासी’ रख दिया और संतों की सेवा में लगे रहने का उपदेश दिया। माता ने अपने पुत्रों को भी पास रखने की अनुमति चाही। बहुत आग्रह करने पर यह प्रार्थना भी स्वीकार हो गयी। पर पुत्रों को दीक्षा व्यासदास जी ने नहीं दी। उनमें से एक पुत्र ने एक दिन संतस्वामी हरिदास जी की प्रशंसा की, तब आप उस पर प्रसन्न हो गये। उसे आपने स्वामी जी से दीक्षा लेने की आज्ञा दे दी। वे ‘चतुर युगलकिशोरदास’ नाम से प्रसिद्ध हुए। संतों में इनका बहुत अनुराग था। वृन्दावन छोड़कर ये कहीं नहीं गये। इनके भावपूर्ण पद मिलते हैं।
भगवान के सच्चे भक्त
- व्यासदास भगवान के, भगवद्भक्तों के तथा भगवदप्रसाद के सच्चे भक्त थे। एक बार रास के समय श्रीराधारानी के चरणों का नूपुर टूट गया, तब आपने यज्ञोपवीत तोड़कर उसे गूँथ दिया। लोगों ने पूछा- "आपने यह क्या किया?" तो बोले- "अब तक तो इसका भार ही ढोता आया था। आज यह सफल हो गया।"
- व्यासदास बड़े ही सहनशील थे। एक बार एक संत इनकी परीक्षा करने आये और कहने लगे- ‘मुझे बहुत भूख लगी है। शीघ्र भोजन कराओ’। इन्होंने कहा- ‘आप विराजें। थोड़ी देर में ही प्रभु का राजभोग लगेगा, तब भगवदप्रसाद आप पा लेना। भोग लगे बिना कैसे आप भोजन कर सकते हैं’। संत ने इतना सुनते ही गालियां देना प्रारम्भ किया। ये चुपचाप सुनते रहे। दर्शकों में से कुछ को बुरा लगा। वे संत को मना करने लगे तो इन्होंने उनको रोक दिया। जब भगवान का भोग लग गया, तब प्रसाद का थाल लाकर संत के सामने रखकर नम्रता से बोले- ‘प्रभु! आप पहले प्रसाद पा लें। जो गालियां शेष रह गयी हों, उन्हेंं फिर दे लेना’। संत प्रसाद पाने बैठे और ये उनको हवा करने लगे। प्रसाद पाकर जूठी थाली संत ने इनके सिर पर दे मारी। ये वह सब जूठन बटोरकर पाने लगे। अब तो वे संत इनके चरणों पर गिर पड़े और बोले- ‘आपके धैर्य और साधु सेवा को धन्य है।"
- श्रीठाकुरजी को एक बार ओरछे से आयी रत्नजटित वंशी धारण कराने लगे तो वंशी मोटी होने से प्रभु की अंगुली किंचित छिल गयी। इन्हें बड़ा दु:ख हुआ। वंशी मन्दिर में रखकर जब ये बाहर आये, तब श्यामसुन्दर ने स्वयं वंशी धारण कर ली। इसी प्रकार किसी की भेजी जरकसी पाग ये ठाकुरजी को एक बार बांध रहे थे, पर बहुत प्रयत्न करने पर भी मनोनुकूल पाग बंधती नहीं थी। इन्होंने कहा- "मेरी बांधी पसंद नहीं आती तो आप ही बांधो।" पगड़ी रखकर ये मन्दिर से बाहर आ गये। ठाकुरजी ने स्वयं पगड़ी बांध ली।
पद
भगवान के महाभाग भक्त उनसे नित्य अभिन्न होते हैं। ऐसे भक्तों के सामने प्रभु की लीला सदा ही प्रकाशित रहती है। व्यासदास जी ऐसे ही श्रीराधा-कृष्ण के नित्य सेवक थे। इनके ब्रजभाषा में बड़े ही मधुर पद मिलते हैं। उनमें से कुछ नीचे उद्धृत किये गये हैं-
"हम कब होंहिगे ब्रजवासी।
ठाकुर नंदकिसोर हमारे, ठकुराइन राधा-सी।।
कब मिलिहैं वे सखी सहेली हरिबंसी हरिदासी।
बंसीबट की सीतल छैंयां सुभग नदी जमुना-सी।।
जाकौ बैभव करत लालसा कर मीडत कमला-सी।
इतनी आस ब्यास की पुजवहु बृंदा बिपिन बिलासी ।।
...
जो सुख होत भक्त घर आये।
सो सुख होत नहीं बहु सम्पति, बांझहि बेटा जाये।।
जो सुख भक्तनि कौ चरनोदक पीवत गात लगाये।
सो सुख सपने हू नहिं पैयत कोटिक तीरथ न्हाये।।
जो सुख भक्तनि कौ मुख देखत उपजत दुख बिसराये।
सो सुख होत न कामिहि कबहुँ कामिनि उर लपटाये।।
जो सुख होत भक्त बचननि सुनि नैनन नीर बहाये।
सो सुख कबहुँ न पैयत पितु घर पूत कौ पूत खिलाये।।
जो सुख होत मिलत साधुनि सौं, छिन छिन रंग बढ़ाये।
सो सुख न रंक ‘ब्यास’ को लंक सुमेरहि पाये।।
सांचे मंदिर हरि के संत।
जिनि में मोहन सदा बिराजत, तिनहिं न छोड़त अंत।।
जिनि महं रुचि कर भोग भोगवत पांचौ स्वाद अदंत।
जिनि महं बालत हंसत कृपा करि चितवत नैन सुपंत।।
अपने मत भागवत सुनावत रति दै रस बरषंत।
जिनि में बसि संदेह दूरि करि देह धर्म परजंत।।
जहाँ न संत तहां न भागवत भक्त सुसील अनंत।
जहाँ न ‘ब्यास’ तहां न रास रस बृंदाबन कौ मंत।।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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