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परमाभिवन्दनीय-श्रीगौरांग-भगवत प्रिय-पार्षद
परिव्राजकाचार्य
श्रीप्रबोधानन्द सरस्वतीपाद का जीवन-चरित्र
श्री प्रबोधानन्द सरस्वती पाद का जन्म एक श्रेष्ठ विशिष्ट ब्राह्मण-कुल में हुआ। इनके पिता-पितामह आन्ध प्रदेश के रहने वाले थे, जो श्री सम्प्रदायी वैष्णव थे। उस समय केवल श्रीरंगक्षेत्र ही श्रीवैष्णव-सेवित तीर्थ था। अपने गांव में भजनोचित सुविधा न देखकर वे रंग-क्षैत्र (मैसूर प्रदेश) में कावेरी नदी के किनारे बेलुंगुरी गांव में सपरिवार निवास करने लगे थे। श्री सरस्वती पाद के दो भ्राता और भी थे। ज्येष्ठ भ्राता का नो श्री वैंकट भट्ट तथा मध्यम भ्रता का नाम श्री त्रिमल्ल भट्ट था। ये भट्ट-परिवार श्री लक्ष्मी नारायण का अनन्य उपासक था। श्री वैंकट भट्ट, यतीन्द्र श्री नृसिंह देव के कृपा पात्र थे और सुविख्यात् विद्वान् एवं सर्वशास्त्र-तत्त्वज्ञ थे।
जब श्री मन्नहा प्रभु तीर्थ-यात्रा के छल से प्रेम भक्ति का वितरण करते हुए दक्षिण देश में पधारे, तब श्री वैंकट भट्टजी ने उन्हें अपने घर पर चातुर्मास्य बिताने की आग्रह-पूर्वक प्रार्थना की।
श्रीमन्महाप्रभु के अलौकिक ऐश्वर्य-माधुर्य को देखकर श्री भट्ट जान गए कि ये तो स्वयं श्री कृष्ण है। प्रसंग वश श्रीमन्महाप्रभु के श्री मुख से भगवान् श्री ब्रजेन्द्र नन्दन और श्री व्रज गोपियों का वैकुण्ठाधिपति श्री नारायण तथा श्री लक्ष्मी से अत्यधिक उत्कर्ष जान कर श्री भट्ट जी श्री कृष्ण-प्रेम रंग मं ही रंग गए। यहाँ तक कि समस्त भट्ट परिवार श्रीमन्महाप्रभु के पदाश्रित हो गया। श्री गोपाल भट्ट, श्री वैंकट भट्ट जी के सुपत्र हैं, जो श्रीमन्महाप्रभु-चरणानुयायी षड्गोस्वामिपाद में एक सुविख्यात गोस्वामी हैं।
श्री प्रबोधानन्द सरस्वतीपाद बाल्य काल में सुतीक्ष्य प्रतिभाशाली थे। अल्पवयस में ही ये अनेक शास्त्रों का अध्ययन कर सुप्रसिद्ध विद्वान हो गए। संसार की असारता का कटु अनभव कर गृहस्थाश्रम में प्रवेश किये बिना इन्होंने तीव्र वैराग्यपूर्वक संन्यास ग्रहण कर लिया। इनके संन्यासाश्रम का नाम था-श्री प्रकाशानन्द। ये गृह-सम्पत्ति को त्याग कर तीर्थ यात्रा के लिए चल दिए। भारत वर्ष के समस्त तीर्थों में पर्यटन करते हुए काशी आए। ये केवल कौपीन धारण करते, पृथ्वी पर शयन एवं जीवन-रक्षा के निमित्त नाम मात्र आहार करते थे। ये निशि दिन वेद चर्चा एवं शास्त्र-चर्चा में ही संलग्न रहते। इनकी असाधारण विद्वत्ता, शास्त्र-तत्त्वज्ञता तथा वैराग्य की पराकाष्ठा देख-सुनकर देश-देशान्तर में असंख्य विद्यार्थी इनके निकट आकर पदाश्रित हो विद्या-लाभ करने लगे। वेदान्त, तर्क, सांख्य, वैशेषिक, न्याय, मीमांसा, पुराण-इतिहास तथा अलंकार, काव्य नाटकादि सिद्धान्त-विषय में इनकी विद्वत्तापूर्ण व्याख्या सुन कर काशी-वासी समस्त संन्यासी-समाज इनके गुणों पर मुग्ध हो गया। थोंड़े ही समय में “सरस्वती” पर प्राप्त कर ये जगत्-विख्यात् हो गए। काशी में श्री बिन्दु माधव हरि-मन्दिर के निकट इनका मठ था।
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