विट्ठलविपुलदेव

विट्ठलविपुलदेव
विट्ठलविपुलदेव
पूरा नाम विट्ठलविपुलदेव
कर्म भूमि ब्रजभूमि
भाषा ब्रजभाषा
प्रसिद्धि रसिक भक्त कवि
नागरिकता भारतीय
संबंधित लेख स्वामी हरिदास, वृन्दावन, श्रीकृष्ण, राधा
अन्य जानकारी विट्ठलविपुलदेव हरिदास जी के ममेरे भाई थे। उनसे अवस्‍था में चार-पाँच वर्ष बड़े थे। ये कभी-कभी हरिदास जी के साथ उनकी बाल्‍यावस्‍था के समय भगवल्‍लीलानुकरण में सम्मिलित हो जाया करते थे।

विट्ठलविपुलदेव बड़े भगवद्भक्‍त और रसिक थे। उनके नेत्र, कान और अधर आदि भगवान की रूप-रस-माधुरी से सदा संप्‍लावित रहते थे। वे रसिकराज स्वामी हरिदास के शिष्‍य थे, उनके समकालीन थे। उनकी अनन्‍य गुरुनिष्‍ठा थी। स्‍वामी जी के वे विशेष कृपापात्र थे।

वृन्दावन आगमन

विट्ठलविपुलदेव हरिदास जी के ममेरे भाई थे। उनसे अवस्‍था में चार-पाँच वर्ष बड़े थे। ये कभी-कभी हरिदास जी के साथ उनकी बाल्‍यावस्‍था के समय भगवल्‍लीलानुकरण में सम्मिलित हो जाया करते थे। उनके संस्‍कार पहले से ही पवित्र और शुद्ध थे। तीस वर्ष की अवस्‍था में विट्ठलविपुदेव वृन्दावन गये। उन्‍हें कुंज-कुंज में भगवान श्रीकृष्ण की लीलामाधुरी की सरस अनुभूति होने लगी। साथ-ही-साथ स्‍वामी हरिदास के सम्‍पर्क और सत्‍संग का भी उन पर विशेष प्रभाव पड़ा।

दीक्षा

अपने गुरु आशुधीर जी महाराज की आज्ञा से हरिदास जी ने उन्‍हें दीक्षित कर लिया। वे उनकी कृपा से वृन्‍दावन के मुख्‍य रसिकों में गिने जाने लगे। वे परमोत्‍कृष्‍ट त्‍यागी और सुदृढ़ रसोपासक थे।

गुरु गद्दी के उत्तराधिकारी

दीक्षित होने के बाद विट्ठलविपुलदेव ने वृन्‍दावन को ही अपना स्‍थायी निवास स्‍थान चुना। संवत 1630 में स्वामी हरिदास के नित्‍यधाम पधारने पर संतों और महन्‍तों ने उन्‍हें उनकी गद्दी सौंपी। बड़े आग्रह और अनुनय-विनय के बाद उन्‍होंने उत्‍तराधिकारी होना स्‍वीकार किया। गुरुविरह के दु:ख से कातर होकर उन्‍होंने आंखों में पट्टी बांध ली थी। जिन नेत्रों ने रसिकराजेश्‍वर हरिदास के दिव्‍य अंगों का माधुर्य-पान किया था, उनसे संसार का दर्शन करना उनके लिये सर्वथा असह्य था।

भावुक और सहृदय

विट्ठलविपुलदेव बड़े भावुक और सहृदय थे। एक बार वृन्दावन की संत-मण्‍डली ने रासलीला का आयोजन किया। सर्वसम्‍मति से महात्‍मा विट्ठलविपुदेव को बुलाने का निश्‍चय किया गया। रसिकप्रवर व्‍यास जी के विशेष आग्रह पर वे रास-दर्शन के लिये उपस्थित हुए। उनके नेत्रों से अश्रुओं की धारा बह रही थी। शरीर वश में नहीं था। रास आरम्‍भ हुआ। प्रिया-प्रियतम की अद्भुत पदनूपुरध्‍वनि पर उनका मन नाच उठा। दिव्‍य-दर्शन के लिये उनके हृदय में तीव्र लालसा जाग उठी। विलम्‍ब असह्य हो गया। भगवान से भक्त की विरह-पीड़ा न सही गयी। उनकी आह्लादिनी शक्ति रसमयी रासस्थित श्रीरासेश्‍वरी ने कहा- "मेरे दर्शन करो! मैं राधा हूँ।" नित्‍यकेलि के साहचर्य-रस के स्‍मरण मात्र ने भावावेश में उन्‍हें दर्शन के लिये विवश किया।

विट्ठलविपुलदेव ने नेत्रों से पट्टी हटा दी। नेत्रों ने रासरसिक-शेखर नन्‍दनन्‍दन और राधारानी का रूप देखा। वे खुले तो खुले ही रह गये। पट्टी अपने स्‍थान पर पड़ी रह गयी। विट्ठलविपुलदेव ने रासस्‍थ भगवान और उनकी भगवत्‍ता-स्‍वरूप, साक्षात राधारानी के दर्शन किये। उनके अधरों पर स्‍फुरण था- "हे रासेश्‍वरी! तुम करुणा करके मुझे अपनी नित्‍य लीला में स्‍थान दो। अब मेरे प्राण संसार में नहीं रहना चाहते हैं।" बस वे नित्यलीला में सदा के लिए सम्मिलित हो गए। उनकी रसोपासना ने पूर्ण सिद्धि अपनायी। वे भगवान के रासरस के सच्‍चे अधिकारी थे। रसिक संत और विरक्‍त महात्‍मा थे। भगवान ने उन्‍हें अपना लिया, कितना बड़ा सौभाग्‍य था उनका।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः