लालस्वामी

कोई चार सौ वर्ष पूर्व की बात है। गोस्‍वामी श्रीहरिवंशचन्‍द्रजी के तृतीय पुत्र श्रीगोपीनाथ जी महाराज देववन (सहारनपुर) में विराजमान थे। इन्‍हीं आचार्य-कुल-कमल-दिवाकर के संग से अनेकों जीवों ने अपने जीवन-जन्‍म को सफल बनाया था। उनमें से एक लालस्‍वामी भी थे।

परिचय

लालस्‍वामी का जन्‍म हरषापुर ग्राम में, एक ब्राह्मण वंश में हुआ था, किंतु देखने से ये क्षत्रिय जान पड़ते थे। ये अपने पास एक बाज रखते और शिकार किया करते थे। लालदास जी व्‍यवहार में तो बड़े कुशल थे, पर परमार्थ के नाम कोरे थे।

देववन आगमन

एक दिन ये किसी कार्यवश देववन आये और कारणवश वहाँ तीन घंटे के लिये ठहरे भी। इसी बीच ‘श्रीराधारंगीलालजी’ (श्रीगोपीनाथ गोस्‍वामी के इष्‍टदेव) की श्रृंगार-आरती का समय आ गया। मन्दिर का टकोरा (घण्‍टे की ध्‍वनि) सुनकर नर-नारी प्रभु के दर्शनों को चल पड़े। लालदास जी भी कौतुहलवश सबके साथ हो लिये। वहाँ जाकर उन्‍होंने देखा-

"गोपीनाथजी आरति करैं। जो देखैं तिन कौ मन हरैं।।"

गोस्‍वामी जी के पुनीत दर्शनों ने लालदास जी का मन चुरा लिया-

"लालदास कौ मन हर लयौ। देखि स्‍वरूप चित्र सौ भयौ।।"

मंत्रदीक्षा

जब सब लोग आरती करके लौटे, तब इनके साथियों ने इन्‍हें भी चलने को कहा- "लालदास जी! चलिये, क्‍या सोच रहे हैं?" परंतु लालदास जी पर तो अकारण करुणामय की निर्हैतुकी कृपा की वर्षा हो चुकी थी। उनके पूर्व के संस्‍कारों के सुकृत-सुयोग से उन्‍हें श्रीठाकुरजी अपनी ओर आकृष्‍ट कर रहे थे। अत: वे बोले-

"अति सुगंध हरिबंस तन मलयागिरि कौ बूट।
लालदास दृढ़ गहि रह्यौ या मंदिर कौ खूंट।।"

यह उत्‍तर देकर लालदास-

"पगन गुसाईं के लपटाने। काहू की सिख नेकु न माने।।
देखि सरूप भक्ति उर आई। पिछली अपनी कुमति सुनाई।।"

इनकी सरलता और अनुनय-विनय से प्रसन्‍न होकर श्रीगापीनाथ जी महाराज ने इन्‍हें मंत्रदीक्षा दे दी। ये कृतकृत्‍य हो गये।

भजन-भावना

अब लालदास जी देववन में श्रीगुरुदेव के पास ही रहने लगे तथा उनके बताये हुए उपक्रम से भजन-भावना करने लगे। इन्‍होंने ममता, मोह सब छोड़ दिया और तन-मन-धन सब प्रभु को समर्पण कर दिया, जैसा कि श्रीभगवत-मुदित जी ने इनके विषय में लिखा है-

"ममता मोह सब तज दीनौ। तन-मन-धन सब अर्पन कीनौ।।
संतन को निज बेष बनायौ। पहिलो सब आचरन बहायौ।।
हरि गुरु सेवा सौं चित लायौ। तब तौ स्‍वामी आप कहायौ।।
लाल करत प्रभु भोग भावना। कहन सुननको तहां दाव ना।।"

अष्‍टयाम मानसी सेवा

ये प्रभु की अष्‍टयाम मानसी सेवा में तन्‍मय रहते थे। एक दिन अपनी भावना में श्रीठाकुरजी को भोग रख रहे थे। इतने में इनके गुरुजी ने एक रुपया देते हुए इनसे कहा- "स्‍वामीजी! श्रीजी को मुंह पोंछने को वस्‍त्र नहीं है, अत: एक मिहीं वस्‍त्र ले आओ।" लालस्‍वामी अपनी भावना में पग रहे थे। उन्‍हें वस्‍त्र का ध्‍यान तो रहा नहीं। वे एक रुपये के लड्डू उठा लाये। वस्‍त्र की जगह लड्डू देखकर महाराज जी को बड़ा आश्‍चर्य हुआ। वे समझ गये, जरूर कोई कारण है। उन्‍होंने पूछा- "भैया! हमने तो वस्‍त्र मंगवाया था, तुम लड्डू कैसे ले आये?" उन्‍होंने अपनी भूल बताकर क्षमा-प्रार्थना की। गुरुजी बोले- "मैं तुम्‍हें अपराधी थोड़े ही मानता हूँ, जो क्षमा-याचना करते हो। भूल का सच-सच कारण कह दो।" अन्‍त में महाराज जी के शपथ दिलाने पर इन्‍होंने सत्‍य घटना कह सुनायी, जिससे गोसाईं जी बड़े प्रसन्‍न हुए। तदनन्‍तर गुरुदेव की आज्ञा से ये घर आ गये। घर में इनकी पत्‍नी तथा एक पुत्र थे। तीनों प्राणी मिलकर श्रीहरि और उनके भक्तों की सेवा करने लगे।

वृन्‍दावनदास जी की रचना

इन श्रीलालस्‍वामी जी के विषय में चाचा श्रीवृन्‍दावनदास जी लिखते हैं-

"बांके अनन्‍य हित धर्म पथ स्‍वामी लाल गंभीर मति।।
बांकौ बिपिन बिलास बंक जस बरन्‍यो जाकौ।
जिहि मग औघट घाट बंक ही चलन तहां कौ।।
कहनी रहनी बंक, बंक बोलन रस माती।
निरखत बंक बिहार छके छबि में दिन राती।।
सुदृढ़ प्रीति हित नाम सौं हरि गुरु संतन चरन रति।
बांके अनन्‍य हित धर्म पथ स्‍वामी लाल गंभीर मति।।"

ये सदा-सर्वदा अपना समय भजन में ही बिताते थे। यथा-

"अधिक प्‍यार है भजन सौं, और न कछु सुहात ।
कहत सुनत भगवत जसहि, निसि दिन जाहिं बिहात।।"


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  • [बाबा श्री हितशरणजी महाराज]

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