रुक्मिणीहरण

'श्रीमद्भागवत महापुराण'[1] के अनुसार- श्रीशुकदेवजी कहते हैं- "परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण ने विदर्भ राजकुमारी रुक्मिणीजी का यह सन्देश सुनकर अपने हाथ से ब्राह्मण देवता का हाथ पकड़ लिया और हँसते हुए यों बोले।" भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- "ब्राह्मण देवता! जैसे विदर्भ राजकुमारी मुझे चाहती हैं, वैसे ही मैं भी उन्हें चाहता हूँ। मेरा चित्त उन्हीं में लगा रहता है। कहाँ तक कहूँ, मुझे रात के समय नींद तक नहीं आती। मैं जानता हूँ कि रुक्मी ने द्वेषवश मेरा विवाह रोक दिया है। परन्तु ब्राह्मण देवता! आप देखियेगा, जैसे लकड़ियों को मथकर-एक दूसरे से रगड़कर मनुष्य उनमें से आग निकाल लेता है, वैसे ही युद्ध में उन नामधारी क्षत्रियकुल-कलंकों को तहस-नहस करके अपने से प्रेम करने वाली परमसुन्दरी राजकुमारी को मैं निकाल लाउँगा।"

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- "परीक्षित! मधुसूदन श्रीकृष्ण ने यह जानकर कि रुक्मिणी के विवाह की लग्न परसों रात्रि ही है, सारथि को आज्ञा दी कि "दारुक! तनिक भी विलम्ब न करके रथ जोत लाओ।" दारुक भगवान के रथ में शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलवाहक नाम के चार घोड़े जोतकर उसे ले आया और हाथ जोड़कर भगवान के सामने खड़ा हो गया। शूरनन्दन श्रीकृष्ण ब्राह्मण देवता को पहले रथ पर चढ़ाकर फिर आप भी सवार हुए और उन शीघ्रगामी घोड़ों के द्वारा एक ही रात में आनर्त-देह से विदर्भ देश में जा पहुँचे।

कुण्डिननरेश नरेश महाराज भीष्मक अपने बड़े लड़के रुक्मी के स्नेहवश अपनी कन्या शिशुपाल को देने के लिये विवाहोत्सव की तैयारी करा रहे थे। नगर के राजपथ, चौराहे तथा गली-कूचे झाड़-बुहार दिये गये थे, उन पर छिड़काव किया जा चुका था। चित्र-विचित्र, रंग-बिरंगी, छोटी-बड़ी झंडियाँ और पताकाएँ लगा दी गयी थीं। तोरण बाँध दिये गये थे। वहाँ के स्त्री-पुरुष पुष्प-माला, हार, इत्र-फुलेल, चन्दन, गहने और निर्मल वस्त्रों से सजे हुए थे। वहाँ के सुन्दर-सुन्दर घरों में से अगर के घूप की सुगन्ध फ़ैल रही थी। परीक्षित! राजा भीष्मक ने पितर और देवताओं का विधिपूर्वक पूजन करके ब्राह्मणों को भोजन कराया और नियमानुसार स्वस्तिवाचन भी। सुशोभित दाँतों वाली परमसुन्दरी राजकुमारी रुक्मिणी को स्नान कराया गया, उनके हाथों में मंगलसूत्र कंकण पहनाये गये, कोहबर बनाया गया, दो नये-नये वस्त्र उन्हें पहनाये गये और वे उत्तम-उत्तम आभूषणों से विभूषित की गयीं। श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने साम, ऋक् और यजुर्वेद के मन्त्रों से उनकी रक्षा की और अथर्ववेद के विद्वान पुरोहित ने गृह-शान्ति के लिये हवन किया। राजा भीष्मक कुलपरम्परा और शास्त्रीय विधियों के बड़े जानकार थे। उन्होंने सोना, चाँदी, वस्त्र, गुड़ मिले हुए तिल और गौएँ ब्राह्मणों को दीं।

इसी प्रकार चेदिनरेश राजा दमघोष ने भी अपने पुत्र शिशुपाल के लिये मन्त्रज्ञ ब्राह्मणों से अपने पुत्र के विवाह-सम्बन्धी मंगलकृत्य कराये। इसके बाद वे मद चुआते हुए हाथियों, सोने की मालाओं से सजाये हुए रथों, पैदलों तथा घुड़सवारों की चतुरंगिणी सेना साथ लेकर कुण्डिनपुर जा पहुँचे। विदर्भराज भीष्मक ने आगे आकर उनका स्वागत-सत्कार और प्रथा के अनुसार अर्चन-पूजन किया। इसके बाद उन लोगों को पहले से ही निश्चित किये हुए जनवासों में आनन्दपूर्वक ठहरा दिया। उस बारात में शाल्व, जरासंध, दन्तवक्त्र, विदूरथ और पौण्ड्रक आदि शिशुपाल के सहस्रों मित्र नरपति आये थे। वे सब श्रीकृष्ण और बलरामजी के विरोधी थे और राजकुमारी रुक्मिणी शिशुपाल को ही मिले, इस विचार से आये थे। उन्होंने अपने-अपने मन में यह पहले से ही निश्चय कर रखा था कि यदि श्रीकृष्ण, बलराम आदि यदुवंशियों के साथ आकर कन्या को हरने की चेष्टा करेगा तो हम सब मिलकर उससे लड़ेंगे। यही कारण था कि उन राजाओं ने अपनी-अपनी पूरी सेना और रथ, घोड़े, हाथी आदि भी अपने साथ ले लिये थे।

विपक्षी राजाओं की इस तैयारी का पता भगवान बलरामजी को लग गया और जब उन्होंने यह सुना कि भैया श्रीकृष्ण अकेले ही राजकुमारी का हरण करने के लिये चले गये हैं, तब उन्हें वहाँ लड़ाई-झगड़े की बड़ी आशंका हुई। यद्यपि वे श्रीकृष्ण का बल-विक्रम जानते थे, फिर भी भातृस्नेह से उनका हृदय भर आया; वे तुरंत ही हाथी, घोड़े, रथ और पैदलों की बड़ी भारी चतुरंगिणी सेना साथ लेकर कुण्डिनपुर के लिये चल पड़े।

इधर परमसुन्दरी रुक्मिणीजी भगवान श्रीकृष्ण के शुभागमन की प्रतीक्षा कर रही थीं। उन्होंने देखा श्रीकृष्ण की तो कौन कहे, अभी ब्राह्मण देवता भी नहीं लौटे, तो वे बड़ी चिन्ता में पड़ गयीं; सोचने लगीं। ‘अहो! अब मुझ अभागिनी के विवाह में केवल एक रात की देरी है, परन्तु मेरे जीवनसर्वस्व कमलनयन भगवान अब भी नहीं पधारे। इसका क्या कारण हो सकता है, कुछ निश्चय नहीं मालूम पड़ता। यही नहीं, मेरे सन्देश ले जाने वाले ब्राह्मण देवता भी तो अभी तक नहीं लौटे। इसमें सन्देह नहीं कि भगवान श्रीकृष्ण का स्वरूप परम शुद्ध है और विशुद्ध पुरुष ही उनसे प्रेम कर सकते हैं। उन्होंने मुझमें कुछ-न-कुछ बुराई देखी होगी, तभी तो मेरे हाथ पकड़ने के लिये-मुझे स्वीकार करने के लिये उद्दत होकर वे यहाँ नहीं पधार रहे हैं? ठीक है, मेरे भाग्य ही मन्द हैं। विधाता और भगवान शंकर भी मेरे अनुकूल नहीं जान पड़ते। यह भी सम्भव है कि रुद्रपत्नी गिरिराजकुमारी सती पार्वतीजी मुझसे अप्रसन्न हों।'

परीक्षित! रुक्मिणीजी इसी उधेड़-बुन में पड़ी हुई थीं। उनका सम्पूर्ण मन और उनके सारे मनोभाव भक्तमनचोर भगवान ने चुरा लिये थे। उन्होंने उन्हीं को सोंचते-सोंचते ‘अभी समय है’ ऐसा समझकर अपने आँसू भरे नेत्र बन्द कर लिये। परीक्षित! इस प्रकार रुक्मिणीजी भगवान श्रीकृष्ण के शुभागमन की प्रतीक्षा कर रही थीं। उसी समय उनकी बायीं जाँघ, भुजा और नेत्र फड़कने लगे, जो प्रियतम के आगमन का प्रिय संवाद सूचित कर रहे थे। इतने में ही भगवान श्रीकृष्ण के भेजे हुए वे ब्राह्मण-देवता आ गये और उन्होंने अन्तःपुर में राजकुमारी रुक्मिणी को इस प्रकार देखा, मानो कोई ध्यानमग्न देवी हो। सती रुक्मिणीजी ने देखा ब्राह्मण-देवता का मुख प्रफुल्लित है। उनके मन और चेहरे पर किसी प्रकार की घबड़ाहट नहीं है। वे उन्हें देखकर लक्षणों से ही समझ गयीं कि भगवान श्रीकृष्ण आ गये। फिर प्रसन्नता से खिलकर उन्होंने ब्राह्मण देवता से पूछा। तब ब्राह्मण देवता ने निवेदन किया कि "भगवान श्रीकृष्ण यहाँ पधार गये हैं।" और उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। यह भी बतलाया कि "राजकुमारीजी! आपको ले जाने की उन्होंने सत्य प्रतिज्ञा की है।" भगवान के शुभागमन का समाचार सुनकर रुक्मिणीजी का हृदय आनन्दातिरेक से भर गया। उन्होंने इसके बदले में ब्राह्मण के लिए भगवान के अतिरिक्त और कुछ प्रिय न देखकर उन्होंने केवल नमस्कार कर लिया। अर्थात् जगत कि समग्र लक्ष्मी ब्राह्मण देवता को सौंप दी।

राजा भीष्मक ने सुना कि भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी मेरी कन्या का विवाह देखने के लिये उत्सुकतावश यहाँ पधारे हैं। तब तुरही, भेरी आदि बाजे बजवाते हुए पूजा की सामग्री लेकर उन्होंने उनकी अगवानी की, और मधुपर्क, निर्मल वस्त्र तथा उत्तम-उत्तम भेंट देकर विधिपूर्वक उनकी पूजा की। भीष्मकजी बड़े बुद्धिमान थे। भगवान के प्रति उनकी बड़ी भक्ति थी। उन्होंने भगवान को सेना और साथियों के सहित समस्त सामग्रियों से युक्त निवासस्थान में ठहराया और उनका यथावत आतिथ्य-सत्कार किया। विदर्भराज भीष्मकजी के यहाँ निमन्त्रण में जितने राजा आये थे, उन्होंने उनके पराक्रम, अवस्था, बल और धन के अनुसार सारी इच्छित वस्तुएँ देकर सबका खूब सत्कार किया। विदर्भ देश के नागरिकों ने जब सुना कि भगवान श्रीकृष्ण यहाँ पधारे हैं, तब वे लोग भगवान के निवासस्थान पर आये और अपने नयनों की अंजलि से भर-भरकर उनके वदनारविन्द का मधुर मकरन्द-रस पान करने लगे। वे आपस में इस प्रकार बातचीत करते थे- "रुक्मिणी इन्हीं की अर्द्धांगिनी होने के योग्य हैं, और ये परम पवित्रमूर्ति श्यामसुन्दर रुक्मिणी के ही योग्य पति हैं। दूसरी कोई इनकी पत्नी होने के योग्य नहीं है। यदि हमने अपने पूर्वजन्म या इस जन्म में कुछ भी सत्कर्म किया हो तो त्रिलोक-विधाता भगवान हम पर प्रसन्न हों और ऐसी कृपा करें कि श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण ही विदर्भ राजकुमारी रुक्मिणी का पाणिग्रहण करें।"

परीक्षित! जिस समय प्रेम-परवश होकर पुरवासी-लोग परस्पर इस प्रकार बातचीत कर रहे थे, उसी समय रुक्मिणीजी अन्तःपुर से निकलकर देवीजी के मन्दिर के लिये चलीं। बहुत-से सैनिक उनकी रक्षा में नियुक्त थे। वे प्रेममूर्ति श्रीकृष्णचन्द्र के चरणकमलों का चिन्तन करती हुई भगवती भवानी के पाद-पल्लवों का दर्शन करने के लिये पैदल ही चलीं। वे स्वयं मौन थीं और माताएँ तथा सखी-सहेलियाँ सब ओर से उन्हें घेरे हुए थीं। शूरवीर राजसैनिक हाथों में अस्त्र-शस्त्र उठाये, कवच पहने उनकी रक्षः कर रहे थे। उस समय मृदंग, शंख, ढोल, तुरही और भेरी आदि बाजे बज रहे थे। बहुत-सी ब्राह्मणपत्नियाँ पुष्पमाला, चन्दन आदि सुगन्ध-द्रव्य और गहने-कपड़ों से सज-धजकर साथ-साथ चल रही थीं और अनेकों प्रकार के उपहार तथा पूजन आदि की सामग्री लेकर सहस्रों श्रेष्ठ वारांगनाएँ भी साथ थीं। गवैये गाते जाते थे, बाजे वाले बाजे बजाते चलते थे और सूत, मागध तथा वंदीजन दुलहिन के चारों ओर जय-जयकार करते-विरद बखानते जा रहे थे। देवीजी के मन्दिर में पहुँचकर रुक्मिणीजी ने अपने कमल के सदृश सुकोमल हाथ-पैर धोये, आचमन किया; इसके बाद बाहर-भीतर से पवित्र एवं शान्तभाव से युक्त होकर अम्बिकादेवी के मन्दिर में प्रवेश किया। बहुत-सी विधि-विधान जानने वाली बड़ी-बूढ़ी ब्रह्माणियाँ उनके साथ थीं। उन्होंने भगवान शंकर की अर्द्धांगिनी भवानी को और भगवान शंकरजी को भी रुक्मिणीजी से प्रणाम करवाया। रुक्मिणीजी ने भगवती से प्रार्थना की- "अम्बिकामाता! आपकी गोद में बैठे हुए आपके प्रिय पुत्र गणेशजी को तथा आपको मैं बार-बार नमस्कार करती हूँ। आप ऐसा आशीर्वाद दीजिये कि मेरी अभिलाषा पूर्ण हो। भगवान श्रीकृष्ण ही मेरे पति हों।" इसके बाद रुक्मिणीजी ने जल, गन्ध, अक्षत, धूप, वस्त्र, पुष्पमाला, हार, आभूषण, अनेकों प्रकार के नैवेद्य, भेंट और आरती आदि सामग्रियों से अम्बिकादेवी की पूजा की। तदनन्तर उक्त सामग्रियों से तथा नमक, पुआ, पान, कण्ठसूत्र, फल और ईख से सुहागिनी ब्रह्माणियों की भी पूजा की। तब ब्राह्मणियों ने उन्हें प्रसाद देकर आशीर्वाद दिये और दुलहिन ने ब्राह्मणियों और माता अम्बिका को नमस्कार करके प्रसाद ग्रहण किया। पूजा-अर्चना की विधि समाप्त हो जाने पर उन्होंने मौनव्रत तोड़ दिया और रत्नजटित अँगूठी से जगमगाते हुए कर कमल के द्वारा एक सहेली का हाथ पकड़ कर वे गिरिजामन्दिर से बाहर निकलीं।

परीक्षित! रुक्मिणीजी भगवान की माया के समान ही बड़े-बड़े धीर-वीरों को भी मोहित कर लेने वाली थीं। उनका कटिभाग बहुत सुन्दर और पतला था। मुखमण्डल पर कुण्डलों की शोभा जगमगा रही थी। वे किशोर और तरुण-अवस्था की सन्धि में स्थित थीं। नितम्ब पर जड़ाऊ करधनी शोभायमान हो रही थी, वक्षःस्थल कुछ उभरे हुए थे और उनकी दृष्टि लटकती हुई अलकों के कारण कुछ चंचल हो रही थी। उनके होंठों पर मनोहर मुस्कान थी। उनके दाँतों की पाँत थी तो कुन्दकली के समान परम उज्ज्वल, परंतु पके हुए कुँदरू के समान लाल-लाल होठों की चमक से उस पर भी लालिमा आ गयी थी। उनके पाँवों के पायजेब चमक रहे थे और उनमें लगे हुए छोटे-छोटे घुँघरु रुनझुन-रुनझुन कर रहे थे। वे अपने सुकुमार चरण-कमलों से पैदल ही राजहंस की गति से चल रही थीं। उनकी वह अपूर्व छवि देखकर वहाँ आये हुए बड़े-बड़े यशस्वी वीर सब मोहित हो गये। कामदेव ने ही भगवान का कार्य सिद्ध करने के लिये अपने बाणों से उनका हृदय जर्जर कर दिया। रुक्मिणी जी इस प्रकार इस उत्सवयात्रा के बहाने मन्द-मन्द गति से चलकर भगवान श्रीकृष्ण पर अपना राशि-राशि सौन्दर्य निछावर कर रही थीं। उन्हें देखकर और उनकी खुली मुस्कान तथा लजीली चितवन पर अपना चित्त लुटाकर वे बड़े-बड़े नरपति एवं वीर इतने मोहित और बेहोश हो गये कि उनके हाथों से अस्त्र-शस्त्र छूटकर गिर पड़े और वे स्वयं भी रथ, हाथी तथा घोड़ों से धरती पर आ गिरे। इस प्रकार रुक्मिणीजी भगवान श्रीकृष्ण के शुभागमन की प्रतीक्षा करती हुई अपने कमल की कली के समान सुकुमार चरणों को बहुत ही धीरे-धीरे आगे बढ़ा रहीं थीं। उन्होंने अपने बायें हाथ की अँगुलियों से मुख की ओर लटकती हुई अलकें हटायीं और वहाँ आये हुए नरपतियों की ओर लजीली चितवन से देखा। उसी समय उन्हें श्यामसुन्दर भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन हुए। राजकुमारी रुक्मिणीजी रथ पर चढ़ना ही चाहती थीं कि भगवान श्रीकृष्ण ने समस्त शत्रुओं के देखते-देखते उनकी भीड़ में से रुक्मिणी को उठा लिया और उन सैकड़ों राजाओं के सिर पर पाँव रखकर उन्हें अपने रथ पर बैठा लिया, जिसकी ध्वजा पर गरुड़ का चिह्न लगा हुआ था। इसके बाद जैसे सिंह सियारों के बीच में से अपना भाग ले जाय, वैसे ही रुक्मिणीजी को लेकर भगवान श्रीकृष्ण, बलरामजी आदि यदुवंशियों के साथ वहाँ से चल पड़े। उस समय जरासंध के वशवर्ती अभिमानी राजाओं को अपना यह बड़ा भारी तिरस्कार और यश-कीर्ति नाश सहन न हुआ। वे सब-के-सब चिढ़कर कहने लगे- "अहो, हमें धिक्कार है। आज हम लोग धनुष धारण करके खड़े ही रहे और ये ग्वाले, जैसे सिंह के भाग को हरिन ले जाय उसी प्रकार हमारा सारा यश छीन ले गये।"


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दशम स्कन्ध, अध्याय 53, श्लोक 1-57

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः