राजा आसकरण

राजा आसकरण गोसाईं विट्ठलनाथ के दीक्षित शिष्‍य एवं परम भगवदीय थे। वे ऐसे सौभाग्‍यशाली जीव थे, जिन्‍हें भगवान श्रीकृष्ण ने स्‍वयं अपनी अनेक लीलाओं का साक्षात्‍कार कराया था। राजा आसकरण नरवरगढ़ के राजा थे।

ब्रज आगमन

राजा आसकरण मुग़ल बादशाह अकबर के समकालीन थे। बाल्‍यावस्‍था से ही भगवद् भक्ति की माधुरी और संगीत की सरसता के आस्‍वादन में उनकी विशेष अभिरुचि थी। उनकी राजसभा में सुदूर प्रान्‍तों से कवि, कलाकार और गायक आया करते थे। एक बार संगीत सम्राट तानसेन उनकी राजसभा में पहुँच गये। उनकी संगीत-माधुरी में राजा आसकरण भाव-निमग्‍न हो गये और मंत्रमुग्‍ध की तरह उनका विष्‍णुपद सुनने लगे। तानसेन गोविन्दस्वामी का पद गा रहे थे। भाव यह था कि शरद-रात्रि की दिव्‍य ज्‍योत्‍सना में भगवान श्रीकृष्ण राधा जी के साथ बैठकर रसभरी बातें कर रहे हैं। शीतल, मन्‍द-सुगन्‍ध समीर बह रहा है। कोयल मीठी बोली बोल रही हैं तथा भौंरे नव निकुंज की कलिकाओं का रसास्‍वादन कर रहे हैं...। राजा आसकरण ध्‍यानस्‍थ हो गये। वे तानसेन के साथ गोविन्दस्वामी का दर्शन करने के लिये ब्रज आये।

दीक्षा

अपार समृद्धि, विशाल राजप्रासाद, असीम अधिकार पर लात मारकर आसकरण ने भगवान श्रीकृष्‍ण की सभा के गायक से मिलने में गौरवानुभूति की। गोकुल पहुँचकर तानसेन की प्रेरणा से उन्‍होंने विट्ठलनाथ जी से दीक्षा प्राप्त की। उनके साथ ही वे नवनीत प्रिय के दर्शन के लिये गये। उस समय गोविन्‍दस्‍वामी नवनीत प्रिय के सामने कीर्तन कर रहे थे। सावन का महीना था। मलार की सरसता मन्दिर में पूर्णरूप से प्रवाहित हो रही थी। राजा आसकरण ने समझ लिया कि गोविन्‍दस्‍वामी ही गा रहे हैं। वे पद का भाव-चिन्‍तन करने लगे। नयन बंद थे। राजा ने ध्‍यान में मग्‍न होकर देखा कि "परम पवित्र कालिन्‍दी के तट पर श्रीराधा-कृष्‍ण कुसुम-चयन कर रहे हैं। आकाश में काली-काली घटाएं उमड- रही हैं। कुछ बूँद भी पड़ने लगीं। नन्‍दनन्‍दन राधारानी के साथ वंशीवट की ओर जा रहे हैं। उनका पीत पट लहरा रहा है। रासेश्‍वर की नीली चुनरी चारों ओर झिलमिल-झिलमिल करती हुई अत्‍यन्‍त मोहिनी छटा बिखेर रही है। कितना मादक दृश्‍य था। राधारानी की कृपामृत लहरी से राजा आसकरण की समाधि लग गयी। कुछ देर के बाद चेत होने पर वे गोविन्‍दस्‍वामी से मिले। वे जब तक ब्रजक्षेत्र में रहे, नित्‍य गोविन्दस्वामी के साथ रमणरेती में विचरण किया करते थे। कुछ दिनों के बाद विट्ठलनाथ जी की आज्ञा से वे नरवर लौट आये। गुरु ने उनको मदनमोहन जी की सेवा सौंपी थी। नरवर आने पर उन्‍होंने राजकार्य दीवान को सौंप दिया, भगवान की सेवा में उनके दिन बीतने लगे। उनकी मानसी सेवा सिद्ध थी। उनका मन राजपद से ऊब गया था।

पद रचना

राजा आसकरण को राज्‍य-सुख अधिक दिनों तक मोह में न रख सका। वे तो भगवान के सच्‍चे भक्त थे। राजकार्य भतीजे को सौंपकर भगवान श्रीकृष्ण की राजधानी वृन्दावन की ओर चल पड़े। कुछ दिनों तक गोकुल में भी रहे। उन्‍हें समय-समय पर भगवान की लीला के प्रत्‍यक्ष दर्शन होने लगे। वे लीला-दर्शन के अनुरूप पद-रचना करके अपनी वाणी को भगवद् रस से सींचने लगे। एक बार राजा आसकरण स्‍नान करने जा रहे थे। भगवान ने रमणरेती में बाँसुरी बजायी। सलोने श्‍यामसुन्‍दर उस समय रंगोत्‍सव में मस्‍त थे। होली खेल रहे थे। राजा ने उनकी रंगभरी छवि-माधुरी के स्‍तवन में गाया। धमार की स्‍वरभरी मीठी ध्‍वनि से लीला स्‍थल का एक-एक कण रसमय हो उठा। उनकी भारती का कण्‍ठ खुल गया।

"या गोकुल के चौहटे रँग राची ग्‍वाल।
मोहन खेले फाग..........................।।"

लीला तो समाप्‍त हो गयी, पर संगीत का क्रम चलता ही रहा। वे तीन दिन तक अचेत पड़े रहे। उन्‍हें भगवल्‍लीला का साक्षात्‍कार हो गया था। गोसाईं विट्ठलनाथ ने उन्‍हें स्वतंत्रतापूर्वक ब्रज भ्रमण की आज्ञा दे दी। वे उन्‍मत्‍त होकर भगवान के यश-कीर्तन और लीला-गान में दिन बिताने लगे। नयन में भगवान की छवि-वारुणी का ऐसा प्रभाव था कि कोटि प्रयत्‍न करने पर भी वह न उतरता। खाने-पीने की कुछ भी चिन्‍ता नहीं रहती थी।

भगवान के दर्शन

  • आसकरण उच्‍च कोटि के रसिक भक्त थे। लीला रसामृत का पान ही उन्हें निश्चिन्त कर देता था। एक बार यशोदा रानी अपने बाल-गोपाल को दूध पिला रही थीं। सोने के कटोरे में औटा दूध लेकर ग्‍वालबालों की मण्‍डली में खेलते हुए घनश्‍याम को नन्‍दरानी दूध पीने के लिये बार-बार बुला रही थीं। आसकरण के नयन इस पवित्र लीला का दर्शन करके धन्‍य हो गये।
  • एक समय आसकरण को भगवान की शयन-लीला का विचित्र दर्शन हुआ। उन्‍होंने देखा कि भगवान निकुंज में कोमल शय्या पर अपने नयनों में मीठी नींद भकर ऊँघ से रहे हैं। भगवान सो नहीं रहे हैं। भक्त का हृदय विकल हो उठा। उन्‍होंने मीठी वाणी से उनकी मनुहार करनी आरम्‍भ की-

"तुम पौढ़ौ, हौं सेज बनाऊँ।
चापँ चरन, रहँ पायन तर, मधुरे स्‍वर केदारौ गाऊँ।।
"आसकरन" प्रभु मोहन नागर यह सुख स्‍याम सदा हौं पाऊँ।।"

भगवान भक्त की प्रसन्‍नता के लिये सो गये। आसकरण उनके मुख की माधुरी में लीन हो गये। इसी तरह उन्‍हें सदा भगवान की लीला के दर्शन होते रहते थे। राजा आसकरण वास्‍तव में राजर्षि थे। वे भगवान के लीला गायक, रसिक कवि और अनन्‍य भक्त थे।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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