ययाति का वसुमान और शिबि के प्रतिग्रह को अस्वीकार करना

महाभारत आदि पर्व के ‘सम्भव पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 93 के अनुसार ययाति का वसुमान और शिबि के प्रतिग्रह को अस्वीकार करने का वर्णन इस प्रकार है[1]-

वसुमान ने कहा - नरेन्‍द्र मैं उषदश्व का पुत्र वसुमान हूँ और आप से पूछ रहा हूँ। यदि स्‍वर्ग या अन्‍तरिक्ष में मेरे लिये भी कोई विख्‍यात लोक हों तो बताइये। महात्‍मन मैं आपको पारलौकिक धर्म का ज्ञाता मानता हूँ। ययाति ने कहा - पृथ्‍वी आकाश और दिशाओं में जितने प्रदेश को सूर्यदेव अपनी किरणों से तपाते और प्रकाशित करते हैं; उतने लोक तुम्‍हारे लिये स्‍वर्ग में स्थित हैं। वे अन्‍तवान न होकर चिरस्‍थायी हैं और आपकी प्रतीक्षा करते हैं।

वसुमान बोले - वे सभी लोक मैं आपके लिये देता हूं, आप नीचे न गिरें। मेरे लिये जितने पुण्‍य लोक हैं, वे सब आपके हो जायं। धीमन यदि आपको प्रतिग्रह लेने में दोष दिखाई देता हो तो एक मुट्ठी तिनका मुझे मूल्‍य के रुप में देकर मेरे इन सभी लोकों को खरीद लें।

ययाति ने कहा - मैंने इस प्रकार कभी झूट-मूठ की खरीद-बिक्री की हो अथवा छल पूर्वक व्‍यर्थ कोई वस्‍तु ली हो, इसका मुझे स्‍मरण नहीं है। मैं कालचक्र से शंकित रहता हूँ। जिसे पूर्ववर्ती अन्‍य महापुरुषों ने नहीं किया वह कार्य मैं भी नहीं कर सकता हूं; क्‍योंकि मैं सत्‍कर्म करना चाहता हूँ। वसुमान बोले - राजन यदि आप खरीदना नहीं चाहते तो मेरे द्वारा स्‍वत: अर्पण किये हुए पुण्‍य लोकों को ग्रहण कीजिये। नरेन्‍द्र निश्चय जानिये, मैं उन लोकों में नही जाऊंगा। वे सब आपके ही अधिकार में रहें।

शिबि ने कहा - मैं उशीनर पुत्र शिबि आपसे पूछता हूँ। यदि अन्‍तरिक्ष या स्‍वर्ग में मेरे भी पुण्‍यलोक हों, तो बताइये; क्‍योंकि मैं आपको उक्त धर्म का ज्ञाता मानता हूँ। ययाति बोले- नरेन्‍द्र जो-जो साधु पुरुष तुमसे कुछ मांगने के लिये आये, उनका तुमने वाणी से कौन कहे, मन से भी अपमान नहीं किया। इस कारण स्‍वर्ग में तुम्‍हारे लिये अनन्‍त लोक विद्यमान हैं, जो विद्युत के समान तेजामय, भाँति-भाँति के सुमधुर शब्‍दों से युक्त तथा महान हैं।

शिबि ने कहा - महाराज यदि आप खरीदना नहीं चाहते तो मेरे द्वारा स्‍वयं अर्पण किये हुए पुण्‍य लोकों को ग्रहण कीजिये। उन सबको देकर निश्चय ही मैं उन लोकों में नहीं जाऊंगा। वे लोक ऐसे हैं,जहाँ जाकर धीर पुरुष कभी शोक नहीं करते। ययाति बोले- नरदेव शिबि जिस प्रकार तुम इन्‍द्र के समान प्रभावशाली हो, उसी प्रकार तुम्‍हारे वे लोक भी अनन्‍त हैं; तथापि दूसरे के दिये हएु लोक में विहार नहीं कर सकता, इसीलिये तुम्‍हारे दिये हुए का अभिनन्‍दन नहीं करता।

अष्टक ने कहा - राजन यदि आप हममें से एक-एक के दिये हुए लोकों को प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण नहीं करते तो हम सब लोक अपने पुण्‍य लोक आपकी सेवा में समर्पित करके नरक (भूलोक) में जाने को तैयार हैं। ययाति बोले- मैं जिसके योग्‍य हूं, उसी के लिये यत्न करो; क्‍योंकि साधु पुरुष सत्‍य का ही अभिनन्‍दन करते हैं। मैंने पूर्वकाल में जो कर्म नहीं किया, उसे अब भी करने योग्‍य नहीं समझता। अष्टक ने कहा- आकाश में ये किसके पांच सुवर्णमय रथ दिखायी देते हैं, जिन पर आरूढ़ होकर मनुष्‍य सनातन लोकों में जाने की इच्‍छा करता है।[1]

ययाति बोले - ऊपर आकाश में स्थित प्रज्‍वलित अग्नि की लपटों के समान जो पांच सुवर्णमय रथ प्रकाशित हो रहे हैं, ये आप लोगों को ही स्‍वर्ग ले जायंगे। वैशम्‍पायनजी कहते हैं - राजन इसी सयम तपस्विनी माधवी उधर आ निकली। उसने मृगचर्म से अपने सब अंगों को ढक रखा था। वृद्धावस्‍था प्राप्त होने पर वह मृगों के साथ विचरती हुई मृगव्रत का पालन कर रही थी। उसकी भोजन-सामग्री और चेष्टा मृगों के ही तुल्‍य थी। वह मृगों के झुंड के साथ यज्ञ मण्‍डप में प्रवेश करके अत्‍यन्‍त विस्मित हुई और यज्ञीय धूम की सुगन्‍ध लेती हुई मृगों के साथ वहाँ विचरने लगी। यज्ञशाला में घूम-घूम कर अपने अपराजित पुत्रों को देखती और यज्ञ की महिमा अनुभव करती हुई माधवी बहुत प्रसन्न हुई। उसने देखा, स्‍वर्गवासी नहुषनन्‍दन महाराज ययाति आये हैं, परंतु पृथ्‍वी का स्‍पर्श नहीं कर रहे हैं (आकाश में ही स्थित हैं)। अपने पिता को पहचानकर माधवी ने उन्‍हें प्रणाम किया। तब यमुना ने अपनी तपस्विनी माता से प्रश्न करते हुए कहा।

वसुमना बोले - माँ तुम श्रेष्ठ वर्ण की देवी हो। तुमने इन महापुरुष को प्रणाम किया है। ये कौन हैं? कोई देवता हैं या राजा? यदि जानती हो, तो मुझे बताओ। माधवी ने कहा- पुत्रो तुम सब लोग एक साथ सुन लो- ‘ये मेरे पिता नहुषनन्‍दन महाराज ययाति हैं। मेरे पुत्रों के सुविख्‍यात मातामह (नाना) ये ही हैं। इन्‍होंने मेरे भाई पुरु को राज्‍य पर अभिषिक्त करके स्‍वर्गलोक की यात्रा की थी; परंतु न जाने किस कारण से ये महायशस्‍वी महाराज पुन: यहाँ आये हैं’।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं - राजन माता की य‍ह बात सुनकर वसुमना ने कहा - माँ ये अपने स्‍थान से भ्रष्ट हो गये हैं। पुत्र का यह वचन सुनकर माधवी भ्रान्‍तचित्त हो उठी और दौहित्रों से घिरे हुए अपने पिता से इस प्रकार बोली। माधवी ने कहा - पिता जी मैंने तपस्‍या द्वारा जिन लोकों पर अधिकार प्राप्त किया है, उन्‍हें आप ग्रहण करें। पुत्रों और पौत्रों की भाँति और दौहित्रों का धर्माचरण से प्राप्त किया हुआ धन भी अपने ही लिये है, यह वेदवेत्ता ऋषि कहते हैं; अत: आप हम लोगों के दान एवं तपस्‍या ज्ञनित पुण्‍य से स्‍वर्गलोक में जाइये। ययाति बोले- यदि यह धर्मजनित फल है, तब तो इसका शुभ परिणाम अवश्‍यम्‍भावी है। आज मुझे मेरी पुत्री तथा महात्‍मा दौहित्रों ने तारा है। इसलिये आज से पितृ-कर्म (श्राद्ध) में दौहित्र परम पवित्र समझा जायगा। इसमें संशय नहीं कि वह पितरों का हर्ष बढ़ाने वाला होगा। श्राद्ध में तीन वस्‍तुऐं पवित्र मानी जायंगी-दौहित्र, कुतप और तिल। साथ ही इसमें तीन गुणा भी प्रशंसित होंगे- पवित्रता, अक्रोध और अत्‍वरा (उतावलेपन का अभाव)। तथा श्राद्ध में भोजन करने वाले, परोसने वाले और (वैदिक या पौराणिक मन्‍त्रों का पाठ) सुनाने वाले- ये तीन प्रकार के मनुष्‍य भी पवित्र माने जायेंगे। दिन के आठवें भाग में जब सूर्य का ताप घटने लगता है, उस समय का नाम कुतप है। उसमें पितरों को दिया हुआ दान अक्षय होता है। तिल पिशाचों से श्राद्ध की रक्षा करते हैं, कुश राक्षसों से बचाते हैं, श्रोत्रिय ब्राह्मण पंङ्क्ति की रक्षा करते हैं और यदि यतिगण श्राद्ध में भोजन कर लें, तो वह अक्षय हो जाता है। उत्तम व्रत का आचरण करने वाला पवित्र श्रोत्रिय ब्राह्मण श्राद्ध का उत्तम पात्र है। वह जब प्राप्त हो जाय, वही श्राद्ध का उत्तम काल समझना चाहिये। उसको दिया हुआ दान उत्तम काल का दान है। इसके सिवा और कोई उपयुक्त काल नहीं है।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 92 श्लोक 1-12
  2. महाभारत आदि पर्व अध्याय 93 श्लोक 13-14

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जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना | भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध | हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना | भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध | युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना | हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना | भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन | घटोत्कच की उत्पत्ति | पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत | ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार | ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना | ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन | कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना | कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना | कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत | भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव | भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना | भीम और वकासुर का युद्ध | वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना | द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत | द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म | कुन्ती का पांचाल देश में जाना | व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना | पाण्डवों की पांचाल यात्रा | अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता | राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना | तपती और संवरण की बातचीत | वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति | गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना | वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव | शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना | कल्माषपाद का शाप से उद्धार | वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति | शक्ति पुत्र पराशर का जन्म | पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण | और्व और पितरों की बातचीत | पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति | कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप | पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत | ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना | स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा | धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना | राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना | अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना | भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा | कृष्ण-बलराम का वार्तालाप | अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय | द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना | कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत | पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह | श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट | धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना | द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
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