यमलार्जुन मोक्ष

श्रीकृष्ण द्वारा यमलार्जुन का उद्धार

'श्रीमद्भागवत महापुराण'[1] के अनुसार- राजा परीक्षित ने पूछा- "भगवन! आप कृपया यह बतलाइये कि नलकूबर और मणिग्रीव को शाप क्यों मिला। उन्होंने ऐसा कौन-सा निन्दित कर्म किया था, जिसके कारण परम शान्त देवर्षि नारद जी को भी क्रोध आ गया?

श्री शुकदेव जी ने कहा- "परीक्षित! नलकूबर और मणिग्रीव, ये दोनों एक तो धनाध्यक्ष कुबेर के लाड़ले लड़के थे और दूसरे इनकी गिनती हो गयी रुद्र भगवान के अनुचरों में। इससे उनका घमण्ड बढ़ गया। एक दिन वे दोनों मन्दाकिनी के तट पर कैलाश के रमणीय उपवन में वारुणी मदिरा पीकर मदोन्मत्त हो गये थे। नशे के कारण उनकी आँखें घूम रही थीं। बहुत-सी स्त्रियाँ उनके साथ गा-बजा रहीं थीं और वे पुष्पों से लदे हुए वन में उनके साथ विहार कर रहे थे। उस समय गंगा जी में पाँत-के-पाँत कमल खिले हुए थे। वे स्त्रियों के साथ जल के भीतर घुस गये और जैसे हाथियों का जोड़ा हथिनियों के साथ जलक्रीडा कर रहा हो, वैसे ही वे उन युवतियों के साथ तरह-तरह की क्रीड़ा करने लगे। परीक्षित! संयोगवश उधर से परम समर्थ देवर्षि नारद जी आ निकले। उन्होंने उन यक्ष-युवकों को देखा और समझ लिया कि ये इस समय मतवाले हो रहे हैं। देवर्षि नारद को देखकर वस्त्रहीन अप्सराएँ लजा गयीं। शाप के डर से उन्होंने तो अपने-अपने कपड़े झटपट पहन लिये, परन्तु इन यक्षों ने कपड़े नहीं पहने। जब देवर्षि नारद ने देखा कि ये देवताओं के पुत्र होकर भी श्रीमद से अन्धे और मदिरापान करके उन्मत्त हो रहे हैं, तब उन्होंने उन पर अनुग्रह करने के लिए शाप देते हुए यह कहा-[2] जो लोग अपने प्रिय विषयों का सेवन करते हैं, उनकी बुद्धि को सबसे बढ़कर नष्ट करने वाला है श्रीमद-धन सम्पत्ति का नशा। हिंसा आदि रजोगुणी कर्म और कुलीनता आदि का अभिमान भी उससे बढ़कर बुद्धिभ्रंशक नहीं है; क्योंकि श्रीमद के साथ-साथ तो स्त्री, जुआ और मदिरा भी रहती है। ऐश्वर्यमद और श्रीमद से अंधे होकर अपनी इन्द्रियों के वश में रहने वाले क्रूर पुरुष अपने नाशवान शरीर को तो अजर-अमर मान बैठते हैं और अपने ही जैसे शरीर वाले पशुओं की हत्या करते हैं। जिस शरीर को ‘भूदेव’, ‘नरदेव’, ‘देव’ आदि नामों से पुकारते हैं, उसकी अन्त में क्या गति होगी? उसमें कीड़े पड़ जायँगे, पक्षी खाकर उसे विष्ठा बना देंगे या वह जलकर राख का ढेर बन जायगा। उसी शरीर के लिये प्राणियों से द्रोह करने में मनुष्य अपना कौन-सा स्वार्थ समझता है? ऐसा करने में तो उसे नरक की ही प्राप्ति होगी।

बतलाओ तो सही, यह शरीर किसकी सम्पत्ति है? अन्न देकर पालने वाले की है या गर्भाधान कराने वाले पिता की? यह शरीर उसे नौ महीने पेट में रखने वाली माता का है अथवा माता को पैदा करने वाले नाना का? जो बलवान पुरुष बलपूर्वक इससे काम करा लेता है, उसका है अथवा दाम देकर खरीद लेने वाले का? चिता की जिस धधकती आग में यह जल जायगा, उसका है अथवा जो कुत्ते-स्यार उसको चीथ-चीथकर खा जाने की आशा लगाये बैठे हैं, उनका? जो दुष्ट श्रीमद से अंधे हो रहे हैं, उनकी आँखों में ज्योति डालने के लिए दरिद्रता ही सबसे बड़ा अंजन है; क्योंकि दरिद्र यह देख सकता है कि दूसरे प्राणी भी मेरे ही जैसे हैं। जिसके शरीर में एक बार काँटा गड़ जाता है, वह नहीं चाहता कि किसी भी प्राणी को काँटा गड़ने की पीड़ा सहनी पड़े; क्योंकि उस पीड़ा और उसके द्वारा होने वाले विकारों से वह समझता है कि दूसरे को भी वैसी ही पीड़ा होती है। परन्तु जिसे कभी काँटा गड़ा ही नहीं, वह उसकी पीड़ा का अनुमान नहीं कर सकता।

दरिद्र में घमण्ड और हेकड़ी नहीं होती; वह सब तरह के मदों से बचा रहता है। बल्कि देववश उसे जो कष्ट उठाना पड़ता है, वह उसके लिए एक बहुत बड़ी तपस्या भी है। जिसे प्रतिदिन भोजन के लिय अन्न जुटाना पड़ता है, भूख से जिसका शरीर दुबला-पतला हो गया है, उस दरिद्र की इन्द्रियाँ भी अधिक विषय नहीं भोगना चाहतीं, सूख जाती हैं और फिर वह अपने भोगों के लिए दूसरे प्राणियों को सताता नहीं, उसकी हिंसा नहीं करता। यद्यपि साधु पुरुष समदर्शी होते हैं, फिर भी उनका समागम दरिद्र के लिये ही सुलभ है; क्योंकि उसके भोग तो पहले से ही छूटे हुए हैं। अब संतों के संग से उसकी लालसा-तृष्णा भी मिट जाती है और शीघ्र ही उसका अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है।[3] जिन महात्माओं के चित्त में सबके लिये समता है, जो केवल भगवान के चरणारविन्दों का मकरन्द-रस पीने के लिए सदा उत्सुक रहते हैं, उन्हें दुर्गुणों के खजाने अथवा दुराचारियों की जीविका चलाने वाले और धन के मद से मतवाले दुष्टों की क्या आवश्यकता है? वे तो उसकी उपेक्षा के ही पात्र हैं।[4] ये दोनों यक्ष वारुणी मदिरा का पान करके मतवाले और श्रीमद से अंधे हो रहे हैं। अपनी इन्द्रियों के अधीन रहने वाले इन स्त्री-लम्पट यक्षों का अज्ञानजनित मद मैं चूर-चूर कर दूँगा। देखो तो सही, कितना अनर्थ है कि ये लोकपाल कुबेर के पुत्र होने पर भी मदोन्मत्त होकर अचेत हो रहे हैं और इनको इस बात का भी पता नहीं है कि हम बिलकुल नंग-धडंग हैं। इसलिए ये दोनों अब वृक्ष योनि में जाने के योग्य हैं। ऐसा होने से इन्हें फिर इस प्रकार का अभिमान न होगा। वृक्ष योनि में जाने पर भी मेरी कृपा से इन्हें भगवान की स्मृति बनी रहेगी और मेरे अनुग्रह से देवताओं के सौ वर्ष बीतने पर इन्हें भगवान श्रीकृष्ण का सानिध्य प्राप्त होगा और फिर भगवान के चरणों में परम प्रेम प्राप्त करके ये अपने लोक में चले आयेंगे।

श्री शुकदेव जी कहते हैं- "देवर्षि! नारद इस प्रकार कहकर भगवान नर-नारायण के आश्रम पर चले गये।[5] नलकूबर और मणिग्रीव, ये दोनों एक ही साथ अर्जुन वृक्ष होकर यमलार्जुन नाम से प्रसिद्ध हुए। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने परम प्रेमी भक्त देवर्षि नारद की बात सत्य करने के लिए धीरे-धीरे ऊखल घसीटते हुए उस ओर प्रस्थान किया, जिधर यमलार्जुन वृक्ष थे। भगवान ने सोचा कि ‘देवर्षि नारद मेरे अत्यन्त प्यारे हैं और ये दोनों भी मेरे भक्त कुबेर के लड़के हैं। इसलिए महात्मा नारद ने जो कुछ कहा है, उसे मैं ठीक उसी रूप में पूरा करूँगा।’[6] यह विचार करके भगवान श्रीकृष्ण दोनों वृक्षों के बीच में घुस गये।[7] वे तो दूसरी ओर निकल गये, परन्तु ऊखल टेढ़ा होकर अटक गया। दामोदर भगवान श्रीकृष्ण की कमर में रस्सी कसी हुई थी। उन्होंने अपने पीछे लुढ़कते हुए ऊखल को ज्यों ही तनिक जोर से खींचा, त्यों ही पेड़ों की सारी जड़ें उखड़ गयीं।[8] समस्त बल-विक्रम के केन्द्र भगवान का तनिक-सा ज़ोर लगते ही पेड़ों के तने, शाखाएँ, छोटी-छोटी डालियाँ और एक-एक पत्ते काँप उठे और वे दोनों बड़े ज़ोर से तड़तड़ाते हुए पृथ्वी पर गिर पड़े। उन दोनों वृक्षों में से अग्नि के समान तेजस्वी दो सिद्ध पुरुष निकले। उनके चमचमाते हुए सौन्दर्य से दिशाएँ दमक उठीं। उन्होंने सम्पूर्ण लोकों के स्वामी भगवान श्रीकृष्ण के पास आकर उनके चरणों में सर रखकर प्रणाम किया और हाथ जोड़कर शुद्ध हृदय से वे उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगे-

उन्होंने कहा- "सच्चिदानन्दस्वरूप! सबको अपनी ओर आकर्षित करने वाले परम योगेश्वर श्रीकृष्ण! आप प्रकृति से अतीत स्वयं पुरुषोत्तम हैं। वेदज्ञ ब्राह्मण यह बात जानते हैं कि यह व्यक्त और अव्यक्त सम्पूर्ण जगत आपका ही रूप है। आप ही समस्त प्राणियों के शरीर, प्राण, अंतःकरण और इन्द्रियों के स्वामी हैं तथा आप ही सर्वशक्तिमान काल, सर्वव्यापक एवं अविनाशी ईश्वर हैं। आप ही महत्तत्त्व और वह प्रकृति हैं, जो अत्यन्त सूक्ष्म एवं सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणरूपा है। आप ही समस्त स्थूल और सूक्ष्म शरीरों के कर्म, भाव, धर्म और सत्ता को जानने वाले सबके साक्षी परमात्मा हैं। वृत्तियों से ग्रहण किये जाने वाले प्रकृति के गुणों और विकारों के द्वारा आप पकड़ में नहीं आ सकते।

स्थूल और सूक्ष्म शरीर के आवरण से ढका हुआ ऐसा कौन-सा पुरुष है, जो आपको जान सके? क्योंकि आप तो उन शरीरों के पहले भी एकरस विद्यमान थे। समस्त प्रपंच के विधाता भगवान वासुदेव को हम नमस्कार करते हैं। प्रभो! आपके द्वारा प्रकाशित होने वाले गुणों से ही आपने अपनी महिमा छिपा रखी है। परब्रह्मस्वरूप श्रीकृष्ण! हम आपको नमस्कार करते हैं। आप प्राकृत शरीर से रहित हैं। फिर भी जब ऐसे पराक्रम प्रकट करते हैं, जो साधारण शरीरधारियों के लिए शक्य नहीं है और जिसने बढ़कर तो क्या जिनके समान भी कोई नहीं कर सकता, तब उनके द्वारा उन शरीरों में आपके अवतारों का पता चलता है।

प्रभो! आप ही समस्त लोकों के अभ्युदय और निःश्रेयस के लिए इस समय अपनी सम्पूर्ण शक्तियों से अवतीर्ण हुए हैं। आप समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाले हैं। परम कल्याण (साध्य) स्वरूप! आपको नमस्कार है। परम मंगल (साधन) स्वरूप! आपको नमस्कार हैं। परम शान्त, सबके हृदय में विहार करने वाले यदुवंश शिरोमणि श्रीकृष्ण को नमस्कार है। अनन्त! हम आपके दासानुदास हैं। आप यह स्वीकार कीजिये। देवर्षि भगवान नारद के परम अनुग्रह से ही हम अपराधियों को आपका दर्शन प्राप्त हुआ है।

प्रभो! हमारी वाणी आपके मंगलमय गुणों का वर्णन करती रहे। हमारे कान आपकी रसमयी कथा में लगे रहें। हमारे हाथ आपकी सेवा में और मन आपके चरण-कमलों की स्मृति में रम जाये। यह सम्पूर्ण जगत आपका निवास-स्थान है। हमारा मस्तक सबके सामने झुका रहे। संत आपके प्रत्यक्ष शरीर हैं। हमारी आँखें उनके दर्शन करती रहें।

श्री शुकदेव जी कहते हैं- "सौन्दर्य-माधुर्यनिधि गोकुलेश्वर श्रीकृष्ण नलकूबर और मणिग्रीव के इस प्रकार स्तुति करने पर रस्सी से उखल बँधे-बँधे ही हँसते हुए[9] उनसे कहा- "तुम लोग श्रीमद से अंधे हो रहे थे। मैं पहले से ही यह बात जानता था कि परम कारुणिक देवर्षि नारद ने शाप देकर तुम्हारा ऐश्वर्य नष्ट कर दिया तथा इस प्रकार तुम्हारे ऊपर कृपा की। जिसकी बुद्धि समदर्शिनी है और हृदय पूर्ण रूप से मेरे प्रति समर्पित है, उन साधु पुरुषों के दर्शन से बंधन होना ठीक वैसे ही सम्भव नहीं है, जैसे सूर्योदय होने पर नेत्रों के सामने अन्धकार होना। इसलिए नलकूबर और मणिग्रीव! तुम लोग मेरे परायण होकर अपने-अपने घर जाओ। तुम लोगों को संसार चक्र से छुड़ाने वाले अनन्य भक्तिभाव की, जो तुम्हें अभीष्ट है, प्राप्ति हो गयी है।"

श्री शुकदेव जी कहते हैं- "जब भगवान ने इस प्रकार कहा, तब उन दोनों ने उनकी परिक्रमा की और बार-बार प्रणाम किया। इसके बाद ऊखल में बंधे हुए सर्वेश्वर की आज्ञा प्राप्त करके उन लोगों ने उत्तर दिशा की यात्रा की।[10]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दशम स्कन्ध, अध्याय 10, श्लोक 1-43
  2. देवर्षि नारद के शाप देने में दो हेतु थे- एक तो अनुग्रह, उनके मद का नाश करना और दूसरा अर्थ- श्रीकृष्ण की प्राप्ति। ऐसा प्रतीत होता है कि त्रिकालदर्शी देवर्षि नारद ने अपनी ज्ञानदृष्टि से यह जान लिया कि इन पर भगवान का अनुग्रह होने वाला है। इसी से उन्हें भगवान का भावी कृपा पात्र समझकर ही उनके साथ छेड़-छाड़ की।
  3. धनी पुरुष में तीन दोष होते हैं- धन, धन का अभिमान और धन की तृष्णा। दरिद्र पुरुष में पहले दो नहीं होते, केवल तीसरा ही दोष रहता है। इसलिये सत्पुरुषों के संग से धन की तृष्णा मिट जाने पर धनियों की अपेक्षा उसका शीघ्र कल्याण हो जाता है।
  4. धन स्वयं एक दोष है। सातवें स्कन्ध में कहा है कि जितने में पेट भर जाय, उससे अधिक को अपना मानने वाला चोर है और दण्ड का पात्र है- ‘स स्तेनो दण्डमर्हति।’ भगवान भी कहते हैं- "जिस पर मैं अनुग्रह करता हूँ, उसका धन छीन लेता हूँ।" इसी से सत्पुरुष प्रायः धनियों की उपेक्षा करते हैं।
    1. शाप वरदान से तपस्या क्षीण होती है। नलकूबर-मणिग्रीव को शाप देने के पश्चात नर-नारायण-आश्रम की यात्रा करने का यह अभिप्राय है कि फिर से तपःसंचय कर लिया जाय।
    2. मैंने यक्षों पर जो अनुग्रह किया है, वह बिना तपस्या के पूर्ण नहीं हो सकता है, इसलिये।
    3. अपने आराध्यदेव एवं गुरुदेव नारायण के सम्मुख अपना कृत्य निवेदन करने के लिये।
  5. भगवान श्रीकृष्ण अपनी कृपा दृष्टि से उन्हें मुक्त कर सकते थे। परन्तु वृक्षों के पास जाने का कारण यह है कि देवर्षि नारद ने कहा था तुम्हें वासुदेव का सान्निध्य प्राप्त होगा।
  6. वृक्षों के बीच में जाने का आशय यह है कि भगवान जिसके अन्तर्देश में प्रवेश करते हैं, उसके जीवन में क्लेश का लेश भी नहीं रहता। भीतर प्रवेश किये बिना दोनों का एक साथ उद्धार भी कैसे होता।
  7. जो भगवान के गुण (भक्त-वत्सल आदि सगुण या रस्सी) से बँधा हुआ है, यह तिर्यक गति (पशु-पक्षी या टेढ़ी चाल वाला) ही क्यों न हो, दूसरों का उद्धार कर सकता है। अपने अनुयायी के द्वारा किया हुआ काम जितना यशस्कर होता है, उतना अपने हाथ से नहीं। मानो यही सोचकर अपने पीछे-पीछे चलने वाले ऊखल के द्वारा उनका उद्धार करवाया।
  8. सर्वदा मैं मुक्त रहता हूँ और बद्ध जीव मेरी स्तुति करते हैं। आज मैं बद्ध हूँ और मुक्त जीव मेरी स्तुति कर रहे हैं। यह विपरीत दशा देखकर भगवान को हँसी आ गयी।
  9. यक्षों ने विचार किया कि जब तक यह सगुणा (रस्सी) में बँधे हुए हैं, तभी तक हमें इनके दर्शन हो रहे हैं। निर्गुण को तो मन में सोचा भी नहीं जा सकता। इसी से भगवान के बँधे रहते ही वे चले गये। "स्वस्त्यस्तु उलूखल सर्वदा श्रीकृष्णगुणशाली एव भूयाः।" "ऊखल! तुम्हारा कल्याण हो, तुम सदा श्रीकृष्ण के गुणों से बँधे ही रहो।" - ऐसा ऊखल को आशीर्वाद देकर यक्ष वहाँ से चले गये।

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः