यदुवंश को ऋषियों का शाप

राजा उग्रसेन मूसल को देखते हुए

'श्रीमद्भागवत महापुराण'[1] के अनुसार- व्यासनन्दन भगवान श्रीशुकदेवजी कहते हैं- "परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण ने बलरामजी तथा अन्य यदुवंशियों के साथ मिलकर बहुत-से दैत्यों का संहार किया तथा कौरव और पाण्डवों में भी शीघ्र मार-काट मचाने वाला अत्यन्त प्रबल कलह उत्पन्न करके पृथ्वी का भार उतार दिया। कौरवों ने कपटपूर्वक जुए से, तरह-तरह के अपमानों से तथा द्रौपदी के केश खींचने आदि अत्याचारों से पाण्डवों को अत्यन्त क्रोधित कर दिया था। उन्हीं पाण्डवों को निमित्त बनाकर भगवान श्रीकृष्ण ने दोनों पक्षों में एकत्र हुए राजाओं को मरवा डाला और इस प्रकार पृथ्वी का भार हल्का कर दिया।

अपने बाहुबल से सुरक्षित यदुवंशियों के द्वारा पृथ्वी के भार-राजा और उनकी सेना का विनाश करके, प्रमाणों के द्वारा ज्ञान के विषय न होने वाले भगवान श्रीकृष्ण ने विचार किया कि लोक दृष्टि से पृथ्वी का भार दूर हो जाने पर भी वस्तुतः मेरी दृष्टि से अभी तक दूर नहीं हुआ; क्योंकि जिस पर कोई विजय नहीं प्राप्त कर सकता, वह यदुवंश अभी पृथ्वी पर विद्यमान है। यह यदुवंश मेरे आश्रित है और हाथी, घोड़े, जनबल, धनबल आदि विशाल वैभव के कारण उच्छ्रंखल हो रहा है। अन्य किसी देवता आदि से भी इसकी किसी प्रकार पराजय नहीं हो सकती। बाँस के वन में परस्पर संघर्ष से उत्पन्न अग्नि के समान इस यदुवंश में भी परस्पर कलह खड़ा करके मैं शान्ति प्राप्त कर सकूँगा और इसके बाद अपने धाम में जाऊँगा।

राजन! भगवान सर्वशक्तिमान और सत्यसंकल्प हैं। उन्होंने इस प्रकार अपने मन में निश्चय करके ब्राह्मणों के शाप के बहाने अपने ही वंश का संहार कर डाला, सबको समेटकर अपने धाम में ले गये।"

"परीक्षित! भगवान की वह मूर्ति त्रिलोकी के सौन्दर्य का तिरस्कार करने वाली थी। उन्होंने अपनी सौन्दर्य-माधुरी से सबके नेत्र अपनी ओर आकर्षित कर लिये थे। उनकी वाणी, उनके उपदेश परम मधुर, दिव्यातिदिव्य थे। उनके द्वारा उन्हें स्मरण करने वालों के चित्त उन्होंने छीन लिये थे। उनके चरणकमल त्रिलोक-सुन्दर थे। जिसने उनके एक चरण-चिह्न का भी दर्शन कर लिया, उसकी बहिर्मुखता दूर भाग गयी, वह कर्मप्रपंच से ऊपर उठकर उन्हीं की सेवा में लग गया। उन्होंने अनायास ही पृथ्वी में अपनी कीर्ति का विस्तार कर दिया, जिसका बड़े-बड़े सुकवियों ने बड़ी ही सुन्दर भाषा में वर्णन किया है। वह इसलिए कि मेरे चले जाने के बाद लोग मेरी इस कीर्ति का गान, श्रवण और स्मरण करके इस अज्ञानरूप अन्धकार से सुगमतया पार हो जायँगे। इसके बाद पर्मैश्वर्यशाली भगवान श्रीकृष्ण ने अपने धाम को प्रयाण किया।"

राजा परीक्षित ने पूछा- "भगवन! यदुवंशी बड़े ब्राह्मण भक्त थे। उनमें बड़ी उदारता भी थी और वे अपने कुलवृद्धों की नित्य-निरन्तर सेवा करने वाले थे। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि उनका चित्त भगवान श्रीकृष्ण में लगा रहता था; फिर उनसे ब्राह्मणों का अपराध कैसे बन गया? और क्यों ब्राह्मणों ने उन्हें शाप दिया?

भगवान के परम प्रेमी विप्रवर! उस शाप का कारण क्या था तथा क्या स्वरूप था? समस्त यदुवंशियों के आत्मा, स्वामी और प्रियतम एकमात्र भगवान श्रीकृष्ण ही थे; फिर उनमें फूट कैसे हुई? दूसरी दृष्टि से देखें तो वे सब ऋषि अद्वैतदर्शी थे, फिर उनको ऐसी भेददृष्टि कैसे हुई? यह सब आप कृपा करके मुझे बतलाइये।"

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- "भगवान श्रीकृष्ण ने वह शरीर धारण करके जिसमें सम्पूर्ण सुन्दर पदार्थों का सन्निवेश था[2], पृथ्वी में मंगलमय कल्याणकारी कर्मों का आचरण किया। वे पूर्णकाम प्रभु द्वारकाधाम में रहकर क्रीडा करते रहे और उन्होंने अपनी उदार कीर्ति की स्थापना की।[3] अन्त में श्रीहरि ने अपने कुल के संहार-उपसंहार की इच्छा की; क्योंकि अब पृथ्वी का भार उतरने में इतना ही कार्य शेष रह गया था। भगवान श्रीकृष्ण ने ऐसे परम मंगलमय और पुण्य-प्रापक कर्म किये, जिनका गान करने वाले लोगों के सारे कलिमल नष्ट हो जाते हैं। अब भगवान श्रीकृष्ण महाराज उग्रसेन की राजधानी द्वारकापुरी में वसुदेवजी के घर यादवों का संहार करने के लिये कालरूप से ही निवास कर रहे थे। उस समय उनके विदा कर देने पर विश्वामित्र, असित, कण्व, दुर्वासा, भृगु, अंगीरा, कश्यप, वामदेव, अत्रि, वसिष्ठ और नारद आदि बड़े-बड़े ऋषि द्वारका के पास ही पिण्डारक क्षेत्र में जाकर निवास करने लगे थे।

साम्ब के पेट से यदुवंश-विनाश के लिये मूसल पैदा होने का ऋषियों द्वारा शाप

एक दिन यदुवंश के कुछ उद्दण्ड कुमार खेलते-खेलते उनके पास जा निकले। उन्होंने बनावटी नम्रता से उनके चरणों में प्रणाम करके प्रश्न किया। वे जाम्बवतीनन्दन साम्ब को स्त्री के वेष में सजाकर ले गये और कहने लगे- "ब्राह्मणों! यह कजरारी आँखों वाली सुन्दरी गर्भवती है। यह आपसे एक बात पूछना चाहती है। परन्तु स्वयं पूछने में सकुचाती है। आप लोगों का ज्ञान अमोघ-अबाध है, आप सर्वज्ञ हैं। इसे पुत्र की बड़ी लालसा है और अब प्रसव का समय निकट आ गया है। आप लोग बतलाइये, यह कन्या जनेगी या पुत्र?" परीक्षित! जब उन कुमारों ने इस प्रकार उन ऋषि-मुनियों को धोखा देना चाहा, तब वे भगवत्प्रेरणा से क्रोधित हो उठे। उन्होंने कहा- "मूर्खों! यह एक ऐसा मूसल पैदा करेगी, जो तुम्हारे कुल का नाश करने वाला होगा। "मुनियों की यह बात सुनकर वे बालक बहुत ही डर गये। उन्होंने तुरंत साम्ब का पेट खोलकर देखा तो सचमुच उसमें एक लोहे का मूसल मिला। अब तो वे पछताने लगे और कहने लगे- "हम बड़े अभागे हैं। देखो, हम लोगों ने यह क्या अनर्थ कर डाला? अब लोग हमें क्या कहेंगे?" इस प्रकार वे बहुत ही घबरा गये तथा मूसल लेकर अपने निवासस्थान में गये। उस समय उनके चेहरे फीके पड़ गये थे। मुख कुम्हला गये थे। उन्होंने भरी सभा में सब यादवों के समाने ले जाकर वह मूसल रख दिया और राजा उग्रसेन से सारी घटना कह सुनायी। राजन! जब सब लोगों ने ब्राह्मणों के शाप की बात सुनी और अपनी आँखों से उस मूसल को देखा, तब सब-के-सब द्वारकावासी विस्मित और भयभीत हो गये; क्योंकि वे जानते थे कि ब्राह्मणों का शाप कभी झूठा नहीं होता। यदुराज उग्रसेन ने उस मूसल को चूरा-चूरा करा डाला और उस चूरे तथा लोहे के बचे हुए छोटे टुकड़े को समद्र में फेंकवा दिया।[4]

परीक्षित! उस लोहे के टुकड़े को एक मछली निगल गयी और चूरा तरंगों के साथ बह-बहकर समुद्र के किनारे आ लगा। वह थोड़े दिनों में एरक[5] के रूप में उग आया। मछली मारने वाले मछुओं ने समुद्र में दूसरी मछलियों के साथ उस मछली को भी पकड़ लिया। उसके पेट में जो लोहे का टुकड़ा था, उसको जरा नामक व्याध ने अपने बाण के नोक में लगा लिया। भगवान सब कुछ जानते थे। वे इस शाप को उलट भी सकते थे। फिर भी उन्होंने ऐसा उचित न समझा। कालरूपधारी प्रभु ने ब्राह्मणों के शाप का अनुमोदन ही किया।"


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. एकादश स्कन्ध, अध्याय 1, श्लोक 1-24
  2. नेत्रों में मृगनयन, कन्धों में सिंहस्कन्ध, करों में करि-कर, चरणों में कमल आदि का विन्यास था।
  3. जो कीर्ति स्वयं अपने आश्रयतक का दान कर सके वह उदार है।
  4. इसके सम्बन्ध में उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से कोई सलाह न ली; ऐसी ही उनकी प्रेरणा थी।
  5. बिना गाँठ की एक घास

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