मृतिका भक्षण लीला

श्रीकृष्ण के मुख में देखती माता यशोदा

'श्रीमद्भागवत महापुराण'[1] के अनुसार- एक दिन बलराम आदि ग्वालबाल श्रीकृष्ण के साथ खेल रहे थे। उन लोगों ने माँ यशोदा के पास आकर कहा- "माँ! कन्हैया ने मिट्टी खायी है।[2] हितैषिणी यशोदाजी ने श्रीकृष्ण का हाथ पकड़ लिया।[3] उस समय श्रीकृष्ण की आँखें डर के मारे नाच रहीं थीं।[4] यशोदा मैया ने डाँटकर कहा- "क्यों रे नटखट! तू बहुत ढीठ हो गया है। तूने अकेले में छिपकर मिट्टी क्यों खायी ? देख तो तेरे दल के तेरे सखा क्या कह रहे हैं। तेरे बड़े भैया बलदाऊ भी तो उन्हीं ओर से गवाही दे रहें हैं।"

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- "माँ! मैंने मिट्टी नहीं खायी। ये सब झूठ बक रहें हैं। यदि तुम इन्हीं की बात सच मानती हो तो मेरा मुँह तुम्हारे सामने ही है, तुम अपनी आँखों से देख लो। यशोदाजी ने कहा- "अच्छी बात है। यदि ऐसा है, तो मुँह खोल।" माता के ऐसा कहने पर भगवान श्रीकृष्ण ने अपना मुँह खोल दिया।[5] परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण का ऐश्वर्य अनन्त है। वे केवल लीला के लिए ही मनुष्य के बालक बने हुए हैं। यशोदाजी ने देखा कि उनके मुँह में चर-अचर सम्पूर्ण जगत विद्यमान है। आकाश (वह शून्य जिसमें किसी की गति नहीं), दिशाएँ, पहाड़, द्वीप और समुद्रों के सहित सारी पृथ्वी, बहने वाली वायु, विद्युत, अग्नि, चन्द्रमा और तारों के साथ सम्पूर्ण ज्योतिर्मण्डल, जल, तेज, पवन, वियत् (प्राणियों के चलने-फिरने का आकाश), वैकारिक अहंकार के कार्य देवता, मन-इन्द्रिय, पंचतन्मात्राएँ और तीनों गुण श्रीकृष्ण के मुख में दीख पड़े। परीक्षित! जीव, काल, स्वाभाव, कर्म, उसकी वासना और शरीर आदि के द्वारा विभिन्न रूपों में दीखने वाला यह सारा विचित्र संसार, सम्पूर्ण ब्रज और अपने-आपको भी यशोदाजी ने श्रीकृष्ण के नन्हें से खुले हुए मुख में देखा। वे बड़ी शंका में पड़ गयीं।

यशोदाजी सोंचने लगीं कि "यह कोई स्वप्न है या भगवान की माया ? कहीं मेरी बुद्धि में ही तो कोई भ्रम नहीं हो गया है ? सम्भव है, मेरे इस बालक में ही कोई जन्मजात योगसिद्धि हो। जो चित्त, मन, कर्म और वाणी के द्वारा ठीक-ठीक तथा सुगमता से अनुमान के विषय नहीं होते, यह सारा विश्व जिनके आश्रित है, जो इसके प्रेरक हैं और जिनकी सत्ता से ही इसकी प्रतीति होती है, जिसका स्वरूप सर्वथा अचिन्त्य है-उन प्रभु को मैं प्रणाम करती हूँ। यह मैं हूँ और ये मेरे पति तथा यह मेरा लड़का है, साथ ही मैं व्रजराज की समस्त संपत्तियों की स्वामिनी धर्मपत्नी हूँ; ये गोपियाँ गोपुर गोधन मेरे अधीन हैं-जिनकी माया से मुझे इस प्रकार की कुमति घेरे हुए है, वे भगवान ही मेरे एकमात्र आश्रय हैं-मैं उन्हीं की शरण में हूँ।" जब इस प्रकार यशोदा माता श्रीकृष्ण का तत्त्व समझ गयीं, तब सर्वशक्तिमान सर्व्यापक प्रभु ने अपनी पुत्रस्नेहमयी वैष्णवी योगमाया का उनके हृदय में संचार कर दिया। यशोदाजी तुरंत वह घटना भूल गयीं। उन्होंने अपने दुलारे लाल को गोद में उठा लिया। जैसे पहले उनके हृदय में प्रेम का समुद्र उमड़ता रहता था, वैसे ही फिर उमड़ने लगा। सारे वेद, उपनिषद, सांख्य, योग और भक्तजन जिनके माहात्मय का गीत गाते-गाते अघाते नहीं, उन्हीं भगवान को यशोदाजी अपना पुत्र मानती थीं।



टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दशम स्कन्ध, अध्याय 8, श्लोक 32-45
  2. मृद्-भक्षण के हेतु-
    1. भगवान श्रीकृष्ण ने विचार किया कि मुझमें शुद्ध सत्त्वगुण ही रहता है और आगे बहुत-से रजोगुणी कर्म करने हैं। उसके लिए थोडा-सा ‘रज’ संग्रह कर लें।
    2. संस्कृत-साहित्य में पृथ्वी का एक नाम ‘क्षमा’ भी है। श्रीकृष्ण ने देखा कि ग्वालबाल खुलकर मेरे साथ खेलते हैं; कभी-कभी अपमान भी कर बैठते हैं। उनके साथ क्षमांश धारण करके ही क्रीडा करनी चाहिये, जिससे कोई विघ्न न पड़े।
    3. संस्कृत-भाषा में पृथ्वी को ‘रसा’ भी कहते हैं। श्रीकृष्ण ने सोचा सब रस तो ले ही चुका हूँ, अब रसा-रस का आस्वादन करूँ।
    4. इस अवतार में पृथ्वी का हित करना है। इसलिये उसका कुछ अंश अपने मुख्य (मुख में स्थित) द्विजों (दाँतों) को पहले दान कर लेना चाहिये।
    5. ब्राह्मण शुद्ध सात्त्विक कर्म में लग रहे हैं, अब उन्हें असुरों का संहार करने के लिये कुछ राजस कर्म भी करने चाहिये। यह सूचित करने के लिये मानो उन्होंने अपने मुख में स्थित द्विजों को (दाँतों को) रज से युक्त किया।
    6. पहले विष भक्षण किया था, मिट्टी खाकर उसकी दवा की।
    7. पहले गोपियों का मक्खन खाया था, उलाहना देने पर मिट्टी खा ली, जिससे मुँह साफ हो जाय।
    8. भगवान श्रीकृष्ण के उदर में रहने वाले कोटि-कोटि ब्रह्माण्डों के जीव व्रज-रज-गोपियों के चरणों की रज-प्राप्त करने के लिये व्याकुल हो रहे थे। उनकी अभिलाषा पूर्ण करने के लिये भगवान ने मिट्टी खायी।
    9. भगवान स्वयं ही अपने भक्तों की चरण-रज मुख के द्वारा अपने हृदय में धारण करते हैं।
    10. छोटे बालक स्वभाव से ही मिट्टी खा लिया करते हैं।
  3. यशोदाजी जानती थीं कि इस हाथ ने मिट्टी खाने में सहायता की है। चोर का सहायक भी चोर ही है। इसलिये उन्होंने हाथ ही पकड़ा।
  4. भगवान ने नेत्र में सूर्य और चद्रमा का निवास है। वे कर्म के साक्षी हैं। उन्होंने सोचा कि पता नहीं श्रीकृष्ण मिट्टी खाना स्वीकार करेंगे कि मुकर जायँगे। अब हमारा कर्तव्य क्या है। इसी भाव को सूचित करते हुए दोनों नेत्र चकराने लगे।
  5. माँ! मिट्टी खाने के सम्बन्ध में ये मुझ अकेले का ही नाम ले रहे हैं। मैंने खायी, तो सबने खायी, देख लो मेरे मुख में सम्पूर्ण विश्व। श्रीकृष्ण ने विचार किया कि उस दिन मेरे मुख में विश्व देखकर माता ने अपने नेत्र बंद कर लिये थे। आज भी जब मैं अपना मुँह खोलूँगा, तब यह अपने नेत्र बंद कर लेगी। यह विचार से मुख खोल दिया।

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