महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 13 श्लोक 1-22

त्रयोदश (13) अध्याय: सौप्तिक पर्व (ऐषिक पर्व)

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महाभारत: सौप्तिक पर्व: त्रयोदश अध्‍याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद


श्रीकृष्ण, अर्जुन और युधिष्ठिर का भीमसेन के पीछे जाना, भीम का गंगातट पर पहुँचकर अश्वत्थामा को ललकारना और अश्वत्थामा के द्वारा ब्रह्मस्त्र का प्रयोग


वैशम्पायन जी कहते है- राजन! सम्पूर्ण यादवकुल को आनन्दित करने वाले योद्धाओं में श्रेष्ठ भगवान श्रीकृष्ण ऐसा कहकर समस्त श्रेष्ठ आयुधों से सम्पन्‍न उत्‍तम रथ पर आरूढ़ हुए। उसमें सोने की माला पहने हुए अच्छी जाति के काबुली घोडे़ जुते हुए थे। उस श्रेष्ठ रथ की कान्ति उदयकालीन सूर्य के समान अरुण थी। उसकी दाहिनी धुरा का बोझ शैव्य ढो रहा था और बायीं का सुग्रीव। उन दोनों के पार्श्‍वभाग में क्रमशः मेघपुष्प और बलाहक जुते हुए थे। उस रथ पर विश्वकर्मा द्वारा निर्मित तथा रत्नमय धातुओं से विभूषित दिव्य ध्वजा दिखायी दे रही थी, जो ऊँचे उठी हुई माया के समान प्रतीत होती थी। उस ध्वजा पर प्रभापुन्ज एवं किरणों से सुशोभित विनतानन्दन गरुड़ विराज रहे थे। सर्पों के शत्रु गरुड़ सत्यवान श्रीकृष्ण के रथ की पताका के रूप में दृष्टिगोचर हो रहे थे।

सम्पूर्ण धनुर्धरों में श्रेष्ठ श्रीकृष्ण पहले उस रथ पर सवार हुए। तत्पश्चात सत्यपराक्रमी अर्जुन तथा कुरुराज युधिष्ठिर उस रथ पर बैठे। वे दोनों महात्मा पाण्डव रथ पर स्थित हुए शांर्ग धनुषधारी दशार्हकुलनन्दन श्रीकृष्ण के समीप विराजमान हो इन्द्र के पास बैठे हुए दोनों अश्विनीकुमारों के समान सुशोभित हो रहे थे। उन दोनों भाईयों को उस लोकपूजित रथ पर चढ़ाकर दशार्हवंशी श्रीकृष्ण ने वेगशाली उत्‍तम अश्वों को चाबुक से हाँका। वे घोडे़ दोनों पाण्‍डवों तथा यदुकुलतिलक श्रीकृष्‍ण की सवारी में आये हुए उस उत्तम रथ को लेकर सहसा उड़ चले। शांर्गधन्वा श्रीकृष्‍ण की सवारी ढोते हुए शीघ्रगामी अश्वों का महान शब्‍द उड़ते हुए पक्षियों के समान प्रकट हो रहा था। भरतश्रेष्ठ! वे तीनो नरश्रेष्ठ बड़े वेग से पीछे-पीछे दौड़कर क्षणभर में महाधनुर्धर भीमसेन के पास जा पहुँचे।

इस समय कुन्‍तीकुमार भीमसेन क्रोध से प्रज्‍वलित हो शत्रु का संहार करने के लिए तुले हुए थे। इसलिए वे तीनों महारथी उनसे मिलकर भी उन्‍हें रोक न सके। उन सदृढ़ धनुर्धर तेजस्‍वी वीरों को देखते देखते वे अत्‍यंत वेगशाली घोड़ों के द्वारा भागीरथी के तट पर जा पहुँचे, जहाँ उन महात्‍मा पाण्‍डवों के पुत्रों का वध करने वाला अश्वत्थामा बैठा सुना गया था। वहाँ जाकर उन्‍होंने गंगा जी के जल के किनारे परम यशस्‍वी महात्‍मा श्रीकृष्‍ण द्वैपायन व्यास को अनेकों महर्षियों के साथ बैठे देखा। उनके पास ही वह क्रूरकर्मा द्रोणपुत्र भी बैठा दिखायी दिया। उसने अपने शरीर में घी लगाकर कुश का चीर पहन रखा था। उसके सारे अंगों पर धूल छा रही थी। कुन्‍तीकुमार महाबाहु भीमसेन बाणसहित धनुष लिये उसकी ओर दौडे़ और बोले- 'अरे! खड़ा रह, खड़ा रह।'

अश्वत्थामा ने देखा कि भयंकर धनुर्धर भीमसेन हाथ में धनुष लिये आ रहे हैं। उनके पीछे श्रीकृष्‍ण के रथ पर बैठे हुए दो भाई और हैं। यह सब देखकर द्रोणकुमार के हृदय में बड़ी व्यथा हुई। उस घबराहट में उसने यही करना उचित समझा। उदार हृदय अश्वत्थामा ने उस दिव्य एवं उत्तम अस्त्र का चिन्‍तन किया। साथ ही बायें हाथ से एक सींक उठा ली। दिव्‍य आयुध धारण करके खडे़ हुए उन शूरवीरों का आना वह सहन न कर सका। उस आपत्ति में पड़कर उसने रोषपूर्वक दिव्‍यास्त्र का प्रयोग किया और मुख से कठोर वचन निकाला कि- ‘यह अस्त्र समस्‍त पाण्‍डवों का विनाश कर डाले।’ नृपश्रेष्ठ! ऐसा कहकर प्रतापी द्रोणपुत्र ने सम्‍पूर्ण लोकों को मोह में डालने के लिए वह अस्त्र छोड़ दिया। तदनन्तर उस सींक में काल, अन्‍तक और यमराज के समान भयंकर आग प्रकट हो गयी। उस समय ऐसा जान पड़ा कि वह अग्नि तीनों लोकों को जलाकर भस्‍म कर डालेगी।


इस प्रकार श्रीमहाभारत सौप्तिक पर्व के अन्‍तर्गत ऐषीक पर्व में अश्वत्थामा के द्वारा ब्रह्मास्त्र प्रयोगविषयक तेरहवां अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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