षष्टितम (60) अध्याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)
महाभारत: सभा पर्व: षष्टितम अध्याय: श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! जब जूए का खेल आरम्भ होने लगा, उस समय सब राजा लोग धृतराष्ट्र को आगे करके उस सभा में आये। भारत! भीष्म, द्रोण, कृप और परम बुद्धिमान विदुर- ये सब लोग असंतुष्ट चित्त से ही धृतराष्ट्र के पीछे-पीछे वहाँ आये। सिंह के समान ग्रीवा वाले वे महातेजस्वी राजा लोग कहीं एक-एक आसन पर दो-दो तथा कहीं पृथक्-पृथक् एक-एक आसन पर एक ही व्यक्ति बैठे। इस प्रकार उन्होंने वहाँ रखे हुए बहुसंख्यक विचित्र सिंहासनों को ग्रहण किया। राजन्! जैसे महाभाग देवताओं के एकत्र होने से स्वर्गलोक सुशोभित होता है, उसी प्रकार उन आगन्तुक नरेशों से उस सभा की बड़ी शोभा हो रही थी। महाराज! वे सब-के-सब वेदवेत्ता एवं शूरवीर ये तथा उनके शरीर तेजोयुक्त थे। उनके बैठ जाने पर अनन्तर वहाँ सुहृदों की द्यूतक्रीड़ा आरम्भ हुई। युधिष्ठिर ने कहा - राजन्! यह समुद्र के आवर्त में उत्पन्न हुआ कान्तिमान मणिरत्न बहुत बड़े मूल्य का है। मेरे हारों में यह सर्वोत्तम है तथा इस पर उत्तम सुवर्ण जड़ा गया है। राजन्! मेरी ओर से यही धन दाँव पर रखा गया है। इसके बदले में तुम्हारी ओर से कौन-सा धन दाँव पर रखा जाता है, जिस धन के द्वारा तुम मेरे साथ खेलना चाहते हो। दुर्योधन बोल- मेरे पास भी मणियाँ और बहुत-सा धन है, मुझे अपने धन पर अहंकार नहीं है। आप इस जूए को जीतिये। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर पासे फेंकने की कला में अत्यन्त निपुण शकुनि ने उन पासों को हाथ में लिया ओर उन्हें फेंककर युधिष्ठिर से कहा- ‘लो, यह दाँव मैंने जीता’।
इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व में द्यूतारम्भ-विषयक साठवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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