एकोनचत्वारिंश (39) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय तदन्तर सर्वदर्शी देवकीनंदन भगवान कृष्ण जहाँ भाइयों सहित खड़े हुए राजा युधिष्ठिर से कहा। कृष्ण बोले- तात इस संसार में ब्राह्मण मेरे लिए सदा ही पूज्यनीय हैं। ये पृथ्वी पर बिचरने वाले देवता हैं। कुपित होने पर इनकी वाणी में विष का सा होता है। ये सहज ही प्रसन्न होते और दूसरों को भी प्रसन्न करते हैं। राजन! महाबाहों पहले सतयुग की बात है- चार्वाक राक्षस ने बहुत वर्षों तक बद्रिकाश्रम में तपस्या की। भरतनंदन जब ब्रह्मा जी ने उससे बारंबार वर मांगने का अनुरोध किया तब उसने यही वर मांगा कि मुझे किसी भी प्राणी से भय न हो। जगदीश्वर ब्रह्मा जी ने उसे यह परम उत्तम वर देते हुए कहा कि- तुम्हें ब्राह्मण का अपमान करने के सिवा और कहीं किसी से भी भय नहीं है। इस तरह उन्होंने उसे संपूर्ण प्राणियों की ओर से अभयदान दे दिया। वर पाकर वह अमित पराक्रमी महाबली और दुसह कर्म करने वाला पापात्मा राक्षस देवताओं को संताप देने लगा। तब उसके बल से तिरस्कृत हुए सब देवताओं ने एकत्र ब्रह्मा जी से उसके वध के लिए प्रार्थना की। भरतनंदन तब ब्रह्मा जी ने देवताओं से कहा- 'मैंने ऐसा विधान कर दिया है जिससे शीघ्र ही उस राक्षस की मृत्यु हो जाएगी। मनुष्यों में राजा दुर्योधन उसी का मित्र होगा और उसी के स्नेह से बंधकर वह राक्षस ब्राह्मणों का अपमान कर बैठेगा। उसने विरुद्धाचरण से तिरस्कृत हो रोष में भरे हुए वाक्-शक्ति से संपन्न ब्राह्मण वहीं उस पति को जला देंगे। इससे उसका नाश हो जाएगा। नृपश्रेष्ठ भरतभूषण अब आप शोक न करें। यह वही राक्षस चार्वाक ब्रह्मदण्ड से मारा जाकर पृथ्वी पर पड़ा है। राजन आपने क्षत्रिय धर्म के अनुसार भाई बंधुओं का वध किया है। महामनस्वी क्षत्रिय-शिरोमणि फिर स्वर्गलोक में चले गए है। अच्युत अब आप अपने कर्तव्य का पालन करें। आपके मन में ग्लानी न हो आप शत्रुओं को मारिये। प्रजा की रक्षा कीजिये और ब्राह्मणों का आदर-सत्कार करते रहिए ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत शांतिपर्व के अंतर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में चार्वाक को प्राप्त हुए वरदान आदि का वर्णनविषयक उनतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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