महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 270 श्लोक 1-13

सप्‍तत्‍यधिकद्विशततम (270) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: सप्‍तत्‍यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 1-13 अध्याय: का हिन्दी अनुवाद
स्यूमरश्मि-कपिल-संवाद-चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन

कपिल ने कहा- स्यूमरश्मि! सम्‍पूर्ण लोकों के लिये वेद ही प्रमाण हैं। अत: वेदों की अवहेलना नहीं की गयी है। ब्रह्म के दो रूप समझने चाहिये- शब्‍दब्रह्म (वेद) और परब्रह्म (सच्चिदानन्‍दघन परमात्‍मा)। जो पुरुष शब्‍दब्रह्म में पारंगत (वेदोक्‍त कर्मों के अनुष्‍ठान से शुद्धचित हो चुका) है, वह परब्रह्म को प्राप्‍त कर लेता है। पिता और माता वेदोक्‍त गर्भाधान की विधि से बालक के जिस शरीर को जन्‍म देते हैं, वे उस बालक के उस शरीर का संस्‍कार करते हैं। इस प्रकार जिसका शरीर वैदिक संस्‍कार से शुद्ध हो जाता है, वही ब्रह्मज्ञान का पात्र होता है। अब मैं अपनी बुद्धि के अनुसार तुम्‍हें यह बता रहा हूँ कि कर्म किस प्रकार अक्षय मोक्ष-सुख की प्राप्ति कराने में कारण होते हैं। जो अपना धर्म (कर्तव्‍य) समझकर बिना किसी प्रकार की भोगेच्‍छा के यज्ञों का अनुष्‍ठान करते हैं, उनके उस यज्ञ का फल वेद या इतिहास द्वारा नहीं जाना जाता है। वह प्रत्‍यक्ष है और उसे सब लोग अपनी आँखों से देखते हैं।

जो प्राप्‍त हुए पदार्थों का त्‍याग सब प्रकार के लालच को छोड़कर करते हैं, जो कृपणता और असूया से रहित हैं और 'धन के उपयोग का यही सर्वोत्तम मार्ग है' ऐसा समझकर सत्‍पात्रों को दान करते हैं, कभी पापकर्म का आश्रय नहीं लेते तथा सदा कर्मयोग के साधन में ही लगे रहते हैं, उनके मानसिक संकल्‍प की सिद्धि होने लगती है और उन्‍हें विशुद्ध ज्ञानस्‍वरूप परब्रह्म के विषय में दृढ निश्‍चय हो जाता है। वे किसी पर क्रोध नहीं करते, कहीं दोषदृष्टि नहीं रखते, अहंकार तथा मात्‍सर्य से दूर रहते हैं, ज्ञान के साधनों में उनकी निष्‍ठा होती है, उनके जन्‍म, कर्म और विद्या- तीनों ही शुद्ध होते हैं तथा वे समस्‍त प्राणियों के हित में तत्‍पर रहते हैं। पूर्वकाल में बहुत-से ब्राह्मण और राजा ऐसे हो गये हैं, जो गृहस्‍थ आश्रम में ही रहते हुए अपने-अपने कर्मों का त्‍याग न करके उनमें निष्‍काम भाव से विधिपूर्वक लगे रहे।

वे सब प्राणियों पर समान दृष्टि रखते थे। सरल, संतुष्‍ट, ज्ञाननिष्‍ठ, प्रत्‍यक्ष फल देने वाले धर्म के अनुष्‍ठाता और शुद्धचित्त होते थे तथा शब्‍दब्रह्म एवं परब्रह्म- दोनों में ही श्रद्धा रखते थे। वे आवश्‍यक नियमों का यथावत पालन करके पहले अपने चित्त को शुद्ध करते थे और कठिनाई तथा दुर्गम स्‍थानों में पड़ जाने पर भी परस्‍पर मिलकर धर्मानुष्‍ठान में तत्‍पर रहते थे। संघ-बद्ध होकर धर्मानुष्‍ठान करने वाले उन पूर्ववर्ती पुरुषों को इसमें सुख का ही अनुभव होता था। उन्‍हें किसी प्रकार का प्रायश्चित करने की आवश्‍यकता नहीं पड़ती थी। वे सत्‍य धर्म का आश्रय लेकर ही अत्‍यन्‍त दुर्धर्ष माने जाते थे। लेशमात्र भी पाप नहीं करते थे और प्राणान्‍त का अवसर उपस्थित होने पर भी धर्म के विषय में छल से काम नहीं लेते थे। जो प्रथम श्रेणी का धर्म माना जाता था, उसी का वे स‍ब लोग साथ रहकर आचरण करते थे, अत: उनके सामने कभी प्रायश्चित करने का अवसर नहीं आता था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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