पंचविंश (25) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: पंचविंश अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! व्यास जी की बात सुनकर और अर्जुन के कुपित हो जाने पर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने व्यास जी को आमन्त्रित करके उत्तर देना आरम्भ किया। युधिष्ठिर बोले- मुने! यह भूत का राज्य और ये भिन्न-भिन्न प्रकार भोग आज मेरे मन को प्रसन्न नहीं कर रहे हैं। यह शोक मुझे चारों ओर से घेरे हुए है। महर्षे! पति और पुत्रों से हीन हुई युवतियों का करूण विलाप सुनकर मुझे शान्ति नहीं मिल रही है। युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर योग वेत्ताओं में श्रेष्ठ और वेदों के पारंगत विद्वान् धर्मश महाज्ञानी व्यास ने उसने फिर इस प्रकार कहा। व्यास जी बोले- राजन्! न तो कोई कर्म करने से नष्ट हुई वस्तु मिल सकती है, न चिन्ता से ही। कोई ऐसा दाता भी नहीं है, जो मनुष्य को उसकी विनष्ट वस्तु दे दे। बारी-बारी से विधाता के विधानानुसार मनुष्य समय पर सब कुछ पा लेता है। बुद्धि अथवा शास्त्राध्ययन से भी मनुष्य असमय में किसी विशेष वस्तु को नहीं पा सकता और समय आने पर कभी-कभी मूर्ख भी अभीष्ट पदार्थों को प्राप्त कर लेता है; अतः काल ही कार्य की सिद्धि में सामान्य कारण है। अवनति के समय शिल्पकलाएँ, मन्त्र तथा औषध भी कोई फल नहीं देते हैं। वे ही जब उन्नति के समय उपयोग में लाये जाते हैं, तब काल की प्रेरणा से सफल होते और वृद्धि में सहायक बनते हैं। समय से ही तेज हवा चलती है, समय से ही मेघ जल बरसाते हैं, समय से ही पानी में कमल तथा उत्पल उत्पन्न हो जाते हैं और समय से ही वन में वृक्ष पुष्ट होते हैं। समय से ही अँधेरी और उजेली रातें होती हैं, समय से ही चन्द्रमा का मण्डल परिपूर्ण होता है, असमय में वृक्षों में फल और फूल भी नहीं लगते हैं और न असमय में नदियाँ ही वेग से बहती हैं। लोग में पक्षी, सर्प जंगली मृग, हाथी और पहाड़ी मृग भी समय आये बिना मतवाले नहीं होते हैं। असमय में स्त्रियों के गर्भ नहीं रहते और बिना समय के सर्दी, गर्मी तथा वर्षा भी नहीं होती है। बालक समय आये बिना न जन्म लेता है, न मरता है और न असमय में बोलता ही है। बिना समय के जवानी नहीं आती और बिना समय के बोया हुआ बीज भी नहीं उगता है। असमय में सूर्य उदयाचल से संयुक्त नहीं होते हैं, समय आये बिना वे अस्ताचल पर भी नहीं जाते हैं, असमय में न तो चन्द्रमा घटते-बढ़ते हैं और न समुद्र में ही ऊँची-ऊँची तरंगें उठती हैं। युधिष्ठिर! इस विषय में लोग एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। एक समय शोक से आतुर हुए राजा सेनजित ने जो उदार प्रकट किया था, वही तुम्हें सुना रहा हूँ। ( राजा सेनजित् ने मन-ही-मन कहा कि) यह दुःसह कालचक्र सभी मनुष्यों पर अपना प्रभाव डालता है। एक दिन सभी भूपाल काल से परिपक्व होकर मृत्यु के अधीन हो जाते हैं। राजन्! मनुष्य दूसरों को मारते हैं, फिर उन्हें भी दूसरे लोग मार देते हैं। नरेश्वर! यह मरना-मारना लौकिक संज्ञा मात्र है। वास्तव में न कोई मारता है और न मारा ही जाता है। एक मानता है कि ’आत्मा मारता है।’ दूसरा ऐसा मानता है कि ’नहीं मारता है।’ पांच भौतिक शरीर के जन्म और मरण स्वभावतः नियत हैं। धन के नष्ट होने पर अथवा स्त्री, पुत्र या पिता की मृत्यु होने पर मनुष्य ’हाय! मुझ पर बड़ा भारी दुःख आ पड़ा, इस प्रकार चिन्ता करते हुए उस दुःख की निवृत्ति की चेष्टा करता है। तुम मूढ़ बनकर शोक क्यों कर रहे हो? उन मरे हुए शोचनीय व्यक्तियों का बारंबार स्मरण ही क्यों करते हो? देखो, शोक करने से दुःख में दुःख तथा भय में भय की वृद्धि होगी। यह शरीर भी अपना नहीं है और सारी पृथ्वी भी अपनी नहीं है। यह जिस तरह से मेरी है, उसी तरह दूसरों की भी है। ऐसी दृष्टि रखने वाला पुरुष कभी मोह में नहीं फँसता है। शोक में सहस्रों स्थान हैं, हर्ष के भी सैकड़ों अवसर हैं। वे प्रतिदिन मूढ़ मनुष्य पर ही प्रभाव डालते हैं, विद्वान् पर नहीं। इस प्रकार ये प्रिय और अप्रिय भाव ही दुःख और सुख बनकर अलग-अलग सभी जीवों को प्राप्त होते रहते हैं।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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