महाभारत वन पर्व अध्याय 289 श्लोक 1-18

अष्टाशीत्यधिकद्विशततम (289) अध्‍याय: वन पर्व (रामोपाख्‍यान पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: अष्टाशीत्यधिकद्विशततम अध्यायः 1-18 श्लोक का हिन्दी अनुवाद


श्रीराम-लक्ष्मण का सचेत होकर कुबेर के भेजे हुए अभिमन्त्रित जल से प्रमुख वानरों सहित अपने नेत्र धोना, लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित् का वध एवं सीता को मारने के लिये उद्यत हुए रावण का अविन्ध्य के द्वारा निवारण करना

मार्कण्डेय जी कहते हैं- युधिष्ठिर! उन दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण को पृथ्वी पर पड़े देख रावणकुमार इन्द्रजित ने जिनके लिये देवताओं का वर प्राप्त था, उन बाणों द्वारा उन्हें सब ओर से बाँध लिया। इन्द्रजित द्वारा बाणों के बन्धन से बँधे हुए वे दोनों वीर पुरुषसिंह श्रीराम और लक्ष्मण पिंजड़े में बंद हुए दो पक्षियों की भाँति शोभा पा रहे थे। उन दोनों को सैंकड़ों बाणों से व्याप्त एवं पृथ्वी पर पड़े देख वानरों सहित सुग्रीव उन्हें सब ओर से घेरकर खड़े हो गये। सुषेण, मैन्द, द्विविद, कुमुद, अंगद, हनुमान, नील, तार तथा नल के साथ कपिराज सुग्रीव उन दोनों बन्धुओं की रक्षा करने लगे। तदनन्तर अपने कर्तव्य कर्म को पूरा करके विभीषण उस स्थान पर आये। उन्होंने प्रज्ञास्त्र द्वारा उन दोनों वीरों को होश में लाकर जगाया। फिर सुग्रीव ने दिव्य मन्त्रों द्वारा विशल्या नामक महौषधि द्वारा उनके अंगों से बाण निकालकर उन्हें क्षण भर में स्वस्थ कर दिया। होश में आ जाने पर वे दोनों महारथी वीर बाणों से रहित हो आलस्य और थकावट त्यागकर क्षण भर में उठ खड़े हुए।

युधिष्ठिर! तदनन्तर विभीषण ने इक्ष्वाकुकुलनन्दन श्रीरामचन्द्र जी को नीरोग एवं स्वस्थ देख हाथ जोड़कर इस प्रकार कहा- ‘शत्रुदमन! राजाधिराज कुबेर की आज्ञा से एक गुह्यक यह जल लिये हुए श्वेतपर्वत से चलकर आपके समीप आया है। परंतप! महाराज कुबेर आपको यह जल इस उद्देश्य से समर्पित कर रहे हैं कि आप इसे नेत्रों में लगाकर माया से अदृश्य हुए प्राणियों को देख सकें। उन्होंने कहा है कि आप इस जल से अपने दोनों नेत्र धोकर अदृश्य प्राणियों को भी देख सकेंगे और आप जिसे यह जल अर्पित करेंगे, वह मनुष्य भी अदृश्य भूतों को देखने में समर्थ होगा’। ‘बहुत अच्छा’ कहकर श्रीरामचन्द्र जी ने वह अभिमन्त्रित जल ले लिया। फिर उन्होंने तथा महामना लक्ष्मण ने भी उससे अपने दोनों नेत्र धोये। सुग्रीव, जाम्बवान, हनुमान, अंगद, मैन्द, द्विविद तथा नील आदि प्रायः सभी प्रमुख वानरों ने उस जल से अपनी-अपनी आँखें धोयीं।

युधिष्ठिर! जैसा विभीषण ने बताया था, उसका वैसा ही प्रभाव देखने में आया। उन सब की आँखें क्षण भर में अतीन्द्रिय वस्तुओं का साक्षात्कार करने वाली हो गयीं। इन्द्रजित ने उस दिन युद्ध में जो पराक्रम कर दिखाया था, अपने उस वीरोचित कर्म को पिता से बताकर वह पुनः युद्ध के मुहाने की ओर लौटने लगा। उसे क्रोध में भरकर पुनः युद्ध की इच्छा से आते देख विभीषण की सम्मति से लक्ष्मण ने उस पर धावा किया। इन्द्रजित विजय के उल्लास से सुशोभित हो रहा था। अभी उसने नित्यकर्म भी नहीं किया था, उसी अवस्था में सचेत हुए लक्ष्मण ने कुपित होकर उसे मार डालने की इच्छा से उस पर बाणों द्वारा प्रहार करना आरम्भ किया। वे दोनों ही एक-दूसरे को जीतने के लिये उत्सुक थे। उस समय उनमें इन्द्र और प्रह्लाद की भाँति अत्यन्त अद्भुत तथा आश्चर्यजनक युद्ध होने लगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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