अष्टसप्ततितम (78) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: अष्टसप्ततितम अध्याय: श्लोक 26-41 का हिन्दी अनुवाद
देवयानी बोली- पिता जी! मुझे अपने कर्मों का फल मिले या न मिले, आप मेरी बात ध्यान देकर सुनिये। वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा ने आज मुझसे जो कुछ कहा है, क्या यह सच है? वह कहती है- ‘आप भाटों की तरह दैत्यों के गुण गाया करते हैं।' वृषपर्वा की लाड़िली शर्मिष्ठा क्रोध से लाल आंखे करके आज मुझसे इस प्रकार अत्यन्त तीखे कठोर वचन कह रही थी- ‘देवयानी! तू स्तुति करने वाले, नित्य भीख मांगने वाले और दान लेने वाले की बेटी है और मैं तो उन महाराज की पुत्री हूं, जिनकी तुम्हारे पिता स्तुति करते हैं, जो स्वयं दान देते हैं और लेते एक धेला भी नहीं हैं’। वृषपर्वा की बेटी शर्मिष्ठा ने आज मुझ से ऐसी बात कही है। कहते समय उसकी आंखे क्रोध से लाल हो रही थीं। वह भारी घमंड से भरी हुई थी और उसने एक बार ही नहीं, अपितु बार-बार उपर्युक्त बातें दुहरायी हैं। तात! यदि सचमुच मैं स्तुति करने वाले और दान लेने वाले की बेटी हूं, तो मैं शर्मिष्ठा को अपनी सेवाओं द्वारा प्रसन्न करूंगी। यह बात मैंने अपनी सखी से कह दी थी। मेरे ऐसा कहने पर भी अत्यन्त क्रोध में भरी हुई शर्मिष्ठा ने उस निर्जन वन में मुझे पकड़कर कूएं में ढकेल दिया, उसके बाद वह अपने घर चली गयी। शुक्राचार्य ने कहा- देवयानी! तू स्तुति करने वाले, भीख मांगने वाले या दान लेने वाले की बेटी नहीं है। तू उस पवित्र ब्राह्मण की पुत्री है, जो किसी की स्तुति नहीं करता और जिसकी सब लोग स्तुति करते हैं। इस बात को वृषपर्वा, देवराज इन्द्र तथा ययाति जानते हैं। निर्द्वन्द्व अचिन्त्य ब्रह्म ही मेरा ऐश्वर्य युक्त बल है। ब्रह्मा जी ने संतुष्ट होकर मुझे वरदान दिया है; उसके अनुसार इस भूतल पर, देवलोक में अथवा सब प्राणियों में जो कुछ भी है, उन सबका मैं सदा-सर्वदा स्वामी हूँ। मैं ही प्रजाओें के हित के लिये पानी बरसाता हूँ और मैं ही सम्पूर्ण औषधियों का पोषण करता हूं, यह तुमसे सच्ची बात कह रहा हूँ। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! देवयानी इस प्रकार विषाद में डूबकर क्रोध और ग्लानि से अत्यन्त कष्ट पा रही थी, उस समय पिता ने सुन्दर मधुर वचनों द्वारा उसे समझाया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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