षट्पंचाशदधिकशततम (156) अध्याय: आदि पर्व (बकवध पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: षट्पंचाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 15-30 का हिन्दी अनुवाद
कुछ लोग चारों पुरुषार्थों में मोक्ष को ही सर्वोत्तम बतलाते हैं, किंतु वह भी मेरे लिये किसी प्रकार सुलभ नहीं है। अर्थ की प्राप्ति होने पर तो नरक का सम्पूर्ण दु:ख भोगना ही पड़ता है। धन की इच्छा सबसे बड़ा दु:ख है किंतु धन प्राप्त करने में तो और भी अधिक दु:ख है और जिसकी धन में आसक्ति हो गयी है[1], उसे उस धन का वियोग होने पर इतना महान् दु:ख होता है, जिसकी कोई सीमा नहीं है। मुझे ऐसा कोई उपाय नहीं दिखायी देता, जिससे इस विपत्ति से छुटकारा पा सकूं अथवा पुत्र और स्त्री के साथ किसी निरापद स्थान में भाग चलूं। ब्राह्मणी! तुम इस बात को ठीक-ठीक जानती हो कि पहले तुम्हारे साथ किसी ऐसे स्थान में चलने के लिये जहाँ सब प्रकार से अपना भला हो, मैंने प्रयत्न किया था; परंतु उस समय पुराने मेरी बात नहीं सुनी। मूढ़मते! मैं बार-बार तुमसे अन्यत्र चलने के लिये अनुरोध करता। उस समय तुम कहने लगती थीं- ‘यहीं मेरा जन्म हुआ, यहाँ बड़ी हुर्इ तथा मेरे पिता भी यहीं रहते थे’। अरी! तुम्हारे बूढ़े पिता-माता और पहले के भाई बन्धु जिसे छोड़कर बहुत दिन हुए स्वर्गलोक को चले गये, वहीं निवास करने के लिये यह आसक्ति कैसी? तुमने बन्धु-बान्धवों के साथ रहने की इच्छा रखकर जो मेरी बात नहीं सुनी, उसी का यह फल है कि आज समस्त भाई-बन्धुओं के विनाश की घड़ी आ पहुँची है, जो मेरे लिये अत्यन्त दु:ख का कारण है अथवा यह मेरे ही विनाश का समय है; क्योंकि मैं स्वयं जीवित रहकर क्रूर मनुष्य की भाँति दूसरे किसी भाई-बन्धु का त्याग नहीं कर सकूंगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यावन्तो यस्य संयोगा द्रव्यैरिष्टैर्भवन्युत।
तावन्तोअस्य निखन्यते हदये शोकशंका।।
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