महाभारत आदि पर्व अध्याय 144 श्लोक 1-19

चतुश्चत्‍वारिंशदधिकशततम (144) अध्‍याय: आदि पर्व (जतुगृहपर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: चतुश्चत्‍वारिंशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


पाण्‍डवों की वारणावत-यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! वायु के समान वेगशाली उत्तम घोड़ों से जुते हुए रथों पर चढ़ने के लिये उद्यत हो उत्तम व्रत को धारण करने वाले पाण्डवों ने अत्‍यन्‍त दुखी-से होकर पितामह भीष्‍म के दोनों चरणों का स्‍पर्श किया। तत्‍पश्चात् राजा धृतराष्ट्र, महात्‍मा द्रोण, कृपाचार्य, विदुर तथा दूसरे बड़े-बूढ़ों को प्रणाम किया। इस प्रकार क्रमश: सभी वृद्ध कौरवों को प्रणाम करके समान अवस्‍था वाले लागों को हृदय से लगाया। फि‍र बालकों ने आकर पाण्‍डवों को प्रणाम किया। इसके बाद सब माताओं से आज्ञा ले उनकी परिक्रमा करके तथा समस्‍त प्रजाओं से भी विदा लेकर वे वारणावत नगर की ओर प्रस्थित हुए। उस समय महाज्ञानी विदुर तथा कुरुकुल के अन्‍य श्रेष्ठ पुरुष एवं पुरवासी मनुष्‍य शोक से कातर हो नरश्रेष्ठ पाण्‍डवों के पीछे-पीछे चलने लगे। तब कुछ निर्भय ब्राह्मण पाण्‍डवों को अत्‍यन्‍त दीन-दशा में देखकर बहुत दुखी हो इस प्रकार कहने लगे।

‘अत्‍यन्‍त मन्‍दबुद्धि कुरुवंशी राजा धृतराष्ट्र पाण्‍डवों को सर्वथा विषम दृष्टि से देखते हैं। धर्म की ओर उनकी दृष्टि नहीं है। निष्‍पाप अन्‍त:करण वाले पाण्‍डुकुमार युधिष्ठिर, बलवानों में श्रेष्ठ भीमसेन अथवा कुन्‍तीनन्‍दन अर्जुन कभी पाप से प्रीति नहीं करेंगे। फि‍र महात्‍मा दोनों माद्रीकुमार कैसे पाप कर सकेंगे। पाण्‍डवों को अपने पिता से जो राज्‍य प्राप्त हुआ था, धृतराष्ट्र उसे सहन नहीं कर रहे हैं। इस अत्‍यन्‍त अधर्मयुक्त कार्य के लिये भीष्‍म जी कैसे अनुमति दे रहे हैं? पाण्‍डवों को अनुचित रूप से यहाँ से निकाल कर जो रहने योग्‍य स्‍थान नहीं, उस वारणावत नगर में भेजा जा रहा है। फि‍र भी भीष्‍म जी चुपचाप क्‍यों इसे मान लेते हैं? पहले शांतनुकुमार राजर्षि विचित्रवीर्य तथा कुरुकुल को आनन्‍द देने वाले महाराज पाण्‍डु हमारे राजा थे। केवल राजा ही नहीं, वे पिता के समान हमारा पालन-पोषण करते थे। नरश्रेष्ठ पाण्‍डु जब देवभाव (स्‍वर्ग) को प्राप्त हो गये हैं, तब उनके इन छोटे-छोटे राजकुमारों का भार धृतराष्ट्र नहीं सहन कर पा रहे हैं।

हम लोग यह नहीं चाहते, इसलिये हम सब घर-द्वार छोड़कर इस उत्तम नगरी से वहीं चलेंगे, जहाँ युधिष्ठिर जा रहे हैं।' शोक से दुर्बल धर्मराज युधिष्ठिर अपने लिये दुखी उन पुरवासियों को ऐसी बातें करती देख मन-ही-मन कुछ सोचकर उनसे बोले- ‘बन्‍धुओं! राजा धृतराष्ट्र मेरे माननीय पिता, गुरु एवं श्रेष्ठ पुरुष हैं। वे जो आज्ञा दें, उसका हमें निशंक होकर पालन करना चाहिये; यही हमारा व्रत है। आप लोग हमारे हित चिन्‍तक हैं, अत: हमें अपने आशीर्वाद से संतुष्ट करें और हमें दाहिने करते हुए जैसे आये थे, वैसे ही अपने घर को लौट जायं। जब आप लोगों के द्वारा हमारा कोई कार्य सिद्ध होने वाला होगा, उस समय आप हमारे प्रिय और हितकारी कार्य कीजियेगा’। उनके यों कहने पर पुरवासी उन्‍हें आशीर्वाद से प्रसन्न करते हुए दाहिने करके नगर को ही लौट गये। पुरवासियों के लौट जाने पर सत्‍यधर्म के ज्ञाता विदुर जी पाण्‍डवश्रेष्ठ युधिष्ठिर को दुर्योधन के कपट का बोध कराते हुए इस प्रकार बोले।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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