महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 18 श्लोक 1-21

अष्टादश (18) अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: अष्टादश अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद


शिवसहस्रनाम के पाठ की महिमा तथा ऋषियों का भगवान शंकर की कृपा से अभीष्ट सिद्धि होने के विषय में अपना-अपना अनुभव सुनाना और श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शिव जी की महिमा का वर्णन

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर महायोगी श्रीकृष्णद्वैपायन मुनिश्वर व्यास ने युधिष्ठिर से कहा- "बेटा! तुम्हारा कल्याण हो। तुम भी इस स्तोत्र का पाठ करो, जिससे तुम्हारे ऊपर भी महेश्वर प्रसन्न हों। पुत्र! महाराज! पूर्वकाल की बात है, मैंने पुत्र की प्राप्ति के लिये मेरु पर्वत पर बड़ी भारी तपस्या की थी। उस समय मैंने इस स्तोत्र का अनेक बार पाठ किया था। पांडुनन्दन! इसके पाठ से मैंने अपनी मनोवांछित कामनाओं को प्राप्त कर लिया था। उसी प्रकार तुम भी शंकर जी से सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर लोगे।"

तत्पश्चात वहाँ सांख्य के आचार्य देव सम्मानित कपिल ने कहा- "मैने भी अनेक जन्मों तक भक्तिभाव से भगवान शंकर की आराधना की थी। इससे प्रसन्न होकर भगवान ने मुझे भवभयनाशक ज्ञान प्रदान किया था।" तदनन्तर इन्द्र के प्रिय सखा आलम्बगोत्रीय चारुशीर्ष ने जो आलम्बायन नाम से ही प्रसिद्ध तथा परम दयालु हैं, इस प्रकार कहा- "पांडुनन्दन! पूर्वकाल में गोकर्ण तीर्थ में जाकर मैंने सौ वर्षों तक तपस्या करके भगवान शंकर को संतुष्ट किया। इससे भगवान शंकर की ओर से मुझे सौ पुत्र प्राप्त हुए, जो अयोनिज, जितेन्द्रिय, धर्मज्ञ, परम तेजस्वी, जरारहित, दुःखहीन और एक लाख वर्ष की आयु वाले थे।"

इसके बाद भगवान वाल्मीकि ने राजा युधिष्ठिर से इस प्रकार कहा- "भारत! एक समय अग्निहोत्री मुनियों के साथ मेरा विवाद हो रहा था। उस समय उन्होंने कुपित होकर मुझे शाप दे दिया कि 'तुम ब्रह्म हत्यारे हो जाओ।' उनके इतना कहते ही मैं क्षणभर में उस अधर्म से व्याप्त हो गया। तब मैं पापरहित एवं अमोघ शक्ति वाले भगवान शंकर की शरण में गया। इससे मैं उस पाप से मुक्त हो गया। फिर उन दुःखनाशन त्रिपुरहन्ता रुद्र ने मुझसे कहा- 'तुम्हें सर्वश्रेष्ठ सुयश प्राप्त होगा।'

इसके बाद धर्मात्माओं में श्रेष्ठ जमदग्निनन्दन परशुराम जी ऋषियों के बीच में खड़े होकर सूर्य के समान प्रकाशित होते हुए वहाँ कुन्तीकुमार युधिष्ठिर से इस प्रकार बोले- "ज्येष्ठ पांडव! नरेश्वर! मैंने पितृतुल्य बड़े भाइयों को मारकर पितृवध और ब्राह्मण वध का पाप कर डाला था। इससे मुझे बड़ा दुःख हुआ और मैं पवित्रभाव से महादेव जी की शरण में गया। शरणागत होकर मैंने इन्हीं नामों से रुद्रदेव की स्तुति की। इससे भगवान महादेव मुझ पर बहुत संतुष्ट हुए और मुझे अपना परशु एवं दिव्यास्त्र देकर बोले- 'तुम्हें पाप नहीं लगेगा। तुम युद्ध में अजेय हो जाओगे। तुम पर मृत्यु का वश नहीं चलेगा तथा तुम अजर-अमर बने रहोगे।'

इस प्रकार कल्याणमय विग्रह वाले जटाधारी भगवान शिव ने मुझसे जो कुछ कहा, वह सब कुछ उन ज्ञानी महेश्वर के कृपा प्रसाद से मुझे प्राप्त हो गया। तदनन्तर विश्वामित्र जी ने कहा- "राजन! जिस समय मैं क्षत्रिय था, उन दिनों की बात है। मेरे मन में यह दृढ़ संकल्प हुआ कि मैं ब्राह्मण हो जाऊँ। यही उद्देश्य लेकर मैंने भगवान शंकर की आराधना की और उनकी कृपा से मैंने अत्यन्त दुर्लभ ब्राह्मणत्व प्राप्त कर लिया।" तत्पश्चात असित, देवल ने पांडुकुमार राजा युधिष्ठिर से कहा- "कुन्तीनन्दन! प्रभो! इन्द्र के शाप से मेरा धर्म नष्ट हो गया था; किंतु भगवान शंकर ने ही मुझे धर्म, उत्तम यश तथा दीर्घ आयु प्रदान की।" इसके बाद इन्द्र के प्रिय सखा और बृहस्पति के समान तेजस्वी मुनिवर भगवान गृत्समद ने अजमीढवंशी युधिष्ठिर से कहा- "चाक्षुष मनु के पुत्र भगवान वरिष्ठ के नाम से प्रसिद्ध हैं। एक समय अचिन्त्य शक्तिशाली शतक्रतु इन्द्र का एक यज्ञ हो रहा था, जो एक हज़ार वर्षों तक चलने वाला था। उसमें मैं रथनन्तर साम का पाठ कर रहा था। मेरे द्वारा उस साम का उच्चारण होने पर वसिष्ठ ने मुझसे कहा- "द्विजश्रेष्ठ! तुम्हारे द्वारा रथन्तर साम का पाठ ठीक नहीं हो रहा है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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