महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 16 श्लोक 1-20

षोडश (16) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: षोडश अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


उपमन्यु-श्रीकृष्ण-संवाद, महात्मा तण्डि द्वारा की गयी महादेव जी की स्तुति, प्रार्थना और उसका फल

उपमन्यु कहते हैं- 'तात! सत्ययुग में तण्डि नाम से विख्यात एक ऋषि थे, जिन्होंने भक्तिभाव से ध्यान के द्वारा दस हज़ार वर्षों तक महादेव जी की आराधना की थी। उन्हें जो फल प्राप्त हुआ था, उसे बता रहा हूँ, सुनिये! उन्होंने महादेव जी का दर्शन किया और स्तोत्रों द्वारा उन प्रभु की स्तुति की। इस तरह तण्डि ने तपस्या में संलग्न होकर अविनाशि परमात्मा महामना शिव का चिन्तन करके अत्यन्त विस्मित हो इस प्रकार कहा था- 'सांख्यशास्त्र के विद्वान पर, प्रधान, पुरुष, अधिष्ठाता और ईश्वर कहकर सदा जिनका गुणगान करते हैं, योगीजन जिनके चिन्तन में लगे रहते हैं, विद्वान पुरुष जिन्हें जगत की उत्पति और विनाश का कारण समझते हैं, देवताओं, असुरों और मुनियों में भी जिनसे श्रेष्ठ दूसरा कोई नहीं है; उन अजन्मा, अनादि, अनन्त, अनघ और अत्यन्त सुखी, प्रभावशाली ईश्वर महादेव जी की मैं शरण लेता हूँ।'

इतना कहते ही तण्डि ने उन तपोनिधि, अविकारी, अनुपम, अचिन्त्य, शाश्वत, ध्रुव, निष्कल, सकल, निर्गुण एवं सगुण ब्रह्म का दर्शन प्राप्त किया, जो योगियों के परमानन्द, अविनाशी एवं मोक्षस्वरूप हैं। वे ही मनु, इन्द्र, अग्नि, मरुद्गण, सम्पूर्ण विश्व तथा ब्रह्मा जी की भी गति हैं। मन और इन्द्रियों के द्वारा उनका ग्रहण नहीं हो सकता। वे अग्राह्य, अचल, शुद्ध, बुद्धि के द्वारा अनुभव करने योग्य तथा मनोमय हैं। उनका ज्ञान होना अत्यन्त कठिन है। वे अप्रमेय हैं। जिन्होंने अपने अन्तःकरण को पवित्र एवं वशीभूत नहीं किया है, उनके लिये वे सर्वथा दुर्लभ हैं। वे ही सम्पूर्ण जगत के कारण हैं। अज्ञानमय अन्धकार से अत्यन्त परे हैं। जो देवता अपने को प्राणवान-जीवस्वरूप बनाकर उसमें मनोमय ज्योति बनकर स्थित हुए थे, उन्हीं के दर्शन की अभिलाषा से तण्डि मुनि बहुत वर्षों तक उग्र तपस्या में लगे रहे। जब उनका दर्शन प्राप्त कर लिया, तब उन मुनिश्वर ने जगदीश्वर शिव की इस प्रकार स्तुति की।

तण्डि ने कहा- 'सर्वश्रेष्ठ परमेश्वर! आप पवित्रों में भी परम पवित्र तथा गतिशील प्राणियों की उत्तम गति हैं। तेजों में अत्यन्त उग्र तेज और तपस्याओं में उत्कृष्ट तप हैं। गन्धर्वराज विश्वावसु, दैत्यराज हिरण्याक्ष और देवराज इन्द्र भी आपकी वन्दना करते हैं। सबको महान कल्याण प्रदान करने वाले प्रभो! आप परम सत्य हैं। आपको नमस्कार है। विभो! जो जन्म-मरण से भयभीत हो संसारबन्धन से मुक्त होने के लिये प्रयत्न करते हैं, उन यतियों को निर्वाण (मोक्ष) प्रदान करने वाले आप ही हैं। आप ही सहस्रों किरणों वाले सूर्य होकर तप रहे हैं। सुख के आश्रयरूप महेश्वर! आपको नमस्कार है। ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, विश्वेदेव तथा महर्षि भी आपको यथार्थरूप से नहीं जानते हैं। फिर हम कैसे जान सकते हैं। आप से ही सबकी उत्पत्ति होती है तथा आप में ही यह सारा जगत प्रतिष्ठित है। काल, पुरुष और ब्रह्मा- इन तीन नामों द्वारा आप ही प्रतिपादित होते हैं। पुराणवेत्ता देवर्षियों ने आपके ये तीन रूप बताये हैं।

अधिपौरुष, अध्यात्म, अधिभूत, अधिदैवत, अधिलोक, अधिविज्ञान और अधियज्ञ आप ही हैं। आप देवताओं के लिये भी दुर्जेय हैं। विद्वान पुरुष आपको अपने ही शरीर में स्थित अन्तर्यामी आत्मा के रूप मे जानकर संसार-बन्धन से मुक्त हो रोग-शोक से रहित परमभाव को प्राप्त होते हैं। प्रभो! यदि आप स्वयं ही कृपा करके जीव का उद्धार करना न चाहें तो उसके बारंबार जन्म और मृत्यु होते रहते हैं। आप ही स्वर्ग और मोक्ष के द्वार हैं। आप ही उनकी प्राप्ति में बाधा डालने वाले हैं तथा आप ही ये दोनों वस्तुएं प्रदान करते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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