महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 15 श्लोक 1-10

पंद्रहवां (15) अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

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महाभारत: अनुशासनपर्व: पंद्रहवां अध्याय: श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद


शिव और पार्वती का श्रीकृष्ण को वरदान और उपमन्यु के द्वारा महादेव जी की महिमा

श्रीकृष्ण कहते हैं- "भारत! तदनन्तर मन को वश में करके तेजोराशि में स्थित महादेव जी को मस्तक झुकाकर प्रणाम करने के अनन्तर बड़े हर्ष में भरकर मैंने उन भगवान शिव से कहा- 'धर्म में दृढ़तापूर्वक स्थिति, युद्ध में शत्रुओं का संहार करने की क्षमता, श्रेष्ठ यश, उत्तम बल, योगबल, सब का प्रिय होना, आपका सांनिध्य तथा दस हज़ार पुत्र- ये ही आठ वर मैं माँग रहा हूँ।' मेरे इस प्रकार कहने पर भगवान शंकर ने कहा- 'एवमस्तु- ऐसा ही हो।' तब सब का धारण-पोषण करने वाली सर्वपावनी तपोनिधि रुद्रपत्नी जगदम्बा उमा देवी एकाग्रचित्त होकर बोलीं- 'निष्पाप श्यामसुन्दर! भगवान ने तुम्हें साम्ब नामक पुत्र दिया है। अब मुझ से भी अभीष्ट आठ वर माँग लो। मैं तुम्हें वे वर प्रदान करती हूँ।'

पांडुनन्दन! तब मैंने जगदम्बा के चरणों में सिर से प्रणाम करके उनसे कहा- 'ब्राह्मणों पर कभी मेरे मन में क्रोध न हो। मेरे पिता मुझ पर प्रसन्न रहें। मुझे सैकड़ों पुत्र प्राप्त हों। उत्तम भोग सदा उपलब्ध रहें। हमारे कुल में प्रसन्नता बनी रहे। मेरी माता भी प्रसन्न रहें। मुझे शान्ति मिले और प्रत्येक कार्य में कुशलता प्राप्त हो- ये आठ वर और माँगता हूँ।' भगवती उमा ने कहा- 'अमरों के समान प्रभावशाली श्रीकृष्ण! ऐसा ही होगा। मैं कभी झूठ नहीं बोलती हूँ। तुम्हें सोलह हज़ार रानियाँ होंगी। उनका तुम्हारे प्रति प्रेम रहेगा। तुम्हें अक्षय धन-धान्य की प्राप्ति होगी। बन्धु-बान्धवों की ओर से तुम्हें प्रसन्नता प्राप्त होगी। मैं तुम्हारे इस शरीर के सदा कमनीय बने रहने का वर देती हूँ और तुम्हारे घर में प्रतिदिन सात हज़ार अतिथि भोजन करेंगे।'[1]

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- "भरतनन्दन! भीमसेन के बड़े भैया! इस प्रकार महादेव जी तथा देवी पार्वती मुझे वरदान देकर अपने गणों के साथ उसी क्षण अन्तर्धान हो गये। नृपश्रेष्ठ! यह अत्यन्त अद्भुत वृत्तान्त मैंने पहले महातेजस्वी ब्राह्मण उपमन्यु को पूर्णरूप से बताया था। उत्तम व्रत का पालन करने वाले नरेश! उपमन्यु ने देवाधिदेव महादेव जी को नमस्कार करके इस प्रकार कहा।

उपमन्यु बोले- 'महादेव जी के समान कोई देवता नहीं है। महादेव जी के समान कोई गति नहीं है। दान में शिव जी की समानता करने वाला कोई नहीं है तथा युद्ध में भी भगवान शंकर के समान दूसरा कोई वीर नहीं है।'


इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अन्तर्गत दानधर्म पर्व में मेघवाहन (इन्द्ररूपधारी महादेव) की महिमा के प्रतिपादक पर्व की कथा में पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यहाँ श्रीकृष्ण के मांगे हुए आठ वरों को एवं ‘भविष्यति’ इस वाक्य के द्वारा देने के पश्चात पार्वती जी अपनी ओर से आठ वर और देती हैं। इनमें ‘अमरप्रभाव’ इस सम्बोधन के द्वारा देवोपम प्रभाव का दान ही पहला वरदान सूचित किया गया है। ‘मैं कभी झूठ नहीं बोलती’ इस कथन के द्वारा ‘तुम भी कभी झूठ नहीं बोलोगे’ यह दूसरा वर सूचित होता है। सोलह हज़ार रानियों के प्राप्त होने का वर तीसरा है। उनका प्रिय होना चौथा वर है। अक्षय धन-धान्य की प्राप्ति पाँचवां वर है। बान्धवों की प्रीति छठा, शरीर की कमनीयता सातवाँ और सात हज़ार अतिथियों का भोजन आठवाँ वर है। इससे पहले जो सोलह और आठ वर के प्राप्त होने की बात कही गयी थी, उसकी संगति लग जाती है।

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