महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 139 श्लोक 1-19

एकोनचत्वारिंशदधिकशततम (139) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: एकोनचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना, उनका प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना

युधिष्ठिर ने पूछा- महाप्राज्ञ पितामह! आप हमारे श्रेष्ठ कुल में सम्पूर्ण शास्त्रों के विशिष्ट विद्वान् और अनेक आगमों के ज्ञान से सम्पन्न हैं।

शत्रुदमन! मैं आपके मुख से अब ऐसे विषय का वर्णन सुनना चाहता हूँ, जो धर्म और अर्थ से युक्त, भविष्य में सुख देने वाला और संसार के लिये अद्भुत हो।

पुरुषप्रवर! हमारे बन्धु-बान्धवों को यह दुर्लभ अवसर प्राप्त हुआ है। हमारे लिये आपके सिवा दूसरा कोई समस्त धर्मों का उपदेश करने वाला नहीं है। अनघ! यदि भाइयों सहित मुझ पर आपका अनुग्रह हो तो पृथ्वीनाथ! मैं आपसे जो प्रश्न पूछता हूँ, उसका हम सब लोगों के लिये उत्तर दीजिये।

सम्पूर्ण नरेशों द्वारा सम्मानित ये श्रीमान् भगवान नारायण श्रीकृष्ण बड़े आदर और विनय के साथ आपकी सेवा करते हैं। इनके तथा इन भूपतियों के सामने मेरा और मेरे भाइयों का सब प्रकार से प्रिय करने के लिये इस पूछे हुए विषय का सस्नेह वर्णन कीजिये।

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! युधिष्ठिर का यह वचन सुनकर स्नेह के आवेश से युक्त हो गंगापुत्र भीष्म ने यह बात कही।

भीष्म जी बोले- बेटा! अब मैं तुम्हें एक अत्यन्त मनोहर कथा सुना रहा हूँ। राजन! पूर्वकाल में इन भगवान नारायण और महादेव जी का जो प्रभाव मैंने सुन रखा है, उसको तथा पार्वती जी के संदेह करने पर शिव और पार्वती में जो संवाद हुआ था, उसको भी बता रहा हूँ, सुनो।

पहले की बात है, धर्मात्मा भगवान श्रीकृष्ण बारह वर्षों में समाप्त होने वाले व्रत की दीक्षा लेकर (एक पर्वत के ऊपर) कठोर तपस्या कर रहे थे। उस समय उनका दर्शन करने के लिये नारद और पर्वत- ये दोनों ऋषि वहाँ पधारे। इनके सिवा श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास, जप करने वालों में श्रेष्ठ धौम्य, देवल, काश्यप, हस्तिकाश्यप तथा अन्य साधु-महर्षि जो दीक्षा और इन्द्रियसंयम से सम्पन्न थे, अपने देवोपम, तपस्वी एवं सिद्ध शिष्यों के साथ वहाँ आये। देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण ने बड़ी प्रसन्नता के साथ देवोचित उपचारों से उन महर्षियों का अपने कुल के अनुरूप आतिथ्य-सत्कार किया। भगवान के दिये हुए हरे और सुनहरे रंग वाले कुशों के नवीन आसनों पर वे महर्षि प्रसन्नतापूर्वक विराजमान हुए।

तदनन्तर वे राजर्षियों, देवताओं और जो तपस्वी मुनि वहाँ रहते थे, उनके सम्बन्ध में धर्मयुक्त मधुर कथाएँ कहने लगे। तत्पश्चात व्रतचर्यारूपी ईधन से प्रज्ज्वलित हुआ भगवान नारायण का तेज अद्भुतकर्मा श्रीकृष्ण के मुखारबिन्द से निकलकर अग्निरूप में प्रकट हो वृक्ष, लता, झाड़ी, पक्षी, मृग समुदाय, हिंसक जन्तु तथा सर्पों सहित उस पर्वत को जलाने लगा। उस समय नाना प्रकार के जीव-जन्तुओं का आर्तनाद चारों ओर फैल रहा था, मानो पर्वत का वह अचेतन शिखर स्वयं ही हाहाकार कर रहा हो। उस तेज से दग्ध हो जाने के कारण वह पर्वत शिखर बड़ा दयनीय दिखायी देता था। बड़ी-बड़ी लपटों वाली उस आग ने समस्त पर्वत शिखर को दग्ध करके भगवान विष्णु (श्रीकृष्ण) के समीप आकर जैसे शिष्य गुरु के चरण छूता है, उसी प्रकार उनके दोनों चरणों का स्पर्श किया और उन्हीं में वह विलीन हो गयी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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