मधुकर यह निहचै हम जानी।
खोयौ गयौ नेह नग उनपै, प्रीति काथरी भई पुरानी।।
पहिलै अधर सुधा रस सीचे, कियौ पोप बहु लाड़ लड़ानी।
बहुरौ खेल कियौ सिसु कैसौ, गृह रचना ज्यौ चलत पिछानी।।
ऐसे हित की प्रीति दिखाई, पत्रंग कँचुरी ज्यौ लपटानी।
बहुरौ सुरति लई नहिं जैसै, भ्रमर लता त्यागत कुँभिलानी।।
बहुरंगी जित जाइ तितहिं सुख, इक रंगी दुख देह दिझानी।
'सूरदास' पशुधनी चोरि कै, खायौ चाहत चारा पानी।।3714।।