मथुरा

मथुरा
मथुरा के विभिन्न दृश्य
विवरण मथुरा उत्तर प्रदेश राज्य का एक ऐतिहासिक एवं धार्मिक नगर है, जो पर्यटन स्थल के रूप में भी बहुत प्रसिद्ध है।
राज्य उत्तर प्रदेश
ज़िला मथुरा ज़िला
भौगोलिक स्थिति उत्तर 27.49, पूर्व 77.67
मार्ग स्थिति यह आगरा से दिल्ली की ओर और दिल्ली से आगरा की ओर क्रमश: 58 कि.मी. उत्तर-पश्चिम एवं 145 कि.मी. दक्षिण-पश्चिम में यमुना के किनारे राष्ट्रीय राजमार्ग 2 पर स्थित है।
तापमान ग्रीष्म 22° से 45° से., शीत 40° से 32° से.
प्रसिद्धि 'कृष्ण जन्मभूमि', 'बांके बिहारी मन्दिर', द्वारिकाधीश मन्दिर, 'मथुरा रिफ़ाइनरी', 'मथुरा संग्रहालय' आदि।
कब जाएँ कभी भी जा सकते हैं।
कैसे पहुँचें बस, रेल, कार आदि से आसानी से मथुरा पहुँचा जा सकता है।
रेलवे स्टेशन मथुरा जंक्शन, मथुरा कैंट स्टेशन
बस अड्डा नया बस अड्डा, पुराना बस अड्डा
कहाँ ठहरें होटल, धर्मशाला, विश्राम ग्रह
क्या खायें चाट, कचौड़ी, जलेबी, लस्सी, मथुरा के पेड़े आदि
क्या ख़रीदें माला, कंठी, भगवान की मूर्तियाँ, पोशाक, शंख,बाँसुरी आदि
एस.टी.डी. कोड 91(565)
ए.टी.एम लगभग सभी
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संबंधित लेख यमुना, होली, वृन्दावन, गोवर्धन, बरसाना, गोकुल, नंदगाँव, महावन आदि।
पिन कोड 281001
वाहन पंजीयन UP-85
बाहरी कड़ियाँ आधिकारिक वेबसाइट
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मथुरा उत्तर प्रदेश राज्य का एक ऐतिहासिक एवं धार्मिक नगर है, जो पर्यटन स्थल के रूप में भी बहुत प्रसिद्ध है। मथुरा, भगवान श्रीकृष्ण की जन्मस्थली और भारत की परम प्राचीन तथा जगद्-विख्यात नगरी है। शूरसेन देश की यहाँ राजधानी थी। पौराणिक साहित्य में मथुरा को अनेक नामों से संबोधित किया गया है, जैसे- 'शूरसेन नगरी', 'मधुपुरी', 'मधुनगरी', 'मधुरा' आदि।

भौगोलिक स्थिति

मथुरा यमुना नदी के पश्चिमी तट पर स्थित है। समुद्र तल से ऊँचाई 187 मीटर है। जलवायु-ग्रीष्म 22° से 45° से., शीत 40° से 32° से. औसत वर्षा 66 से.मी. जून से सितंबर तक होती है। मथुरा जनपद उत्तर प्रदेश की पश्चिमी सीमा पर स्थित है। इसके पूर्व में जनपद एटा, उत्तर में जनपद अलीगढ़, दक्षिण-पूर्व में जनपद आगरा, दक्षिण-पश्चिम में राजस्थान एवं पश्चिम-उत्तर में हरियाणा राज्य स्थित हैं। मथुरा, आगरा मण्डल का उत्तर-पश्चिमी ज़िला है। यह अक्षांश 27° 41' उत्तर और देशान्तर 77° 41' पूर्व के मध्य स्थित है। मथुरा जनपद में चार तहसीलें- माँट, छाता, महावन और मथुरा तथा 10 विकास खण्ड हैं- नन्दगाँव, छाता, चौमुहाँ, गोवर्धन, मथुरा, फ़रह, नौहझील, मांट, राया और बल्देव हैं। जनपद का भौगोलिक क्षेत्रफल 3329.4 वर्ग कि.मी. है।

प्रमुख नदी 'यमुना'

जनपद की प्रमुख नदी यमुना है, जो उत्तर से दक्षिण की ओर बहती हुई जनपद की कुल चार तहसीलों मांट, मथुरा, महावन और छाता में से होकर बहती है। यमुना का पूर्वी भाग पर्याप्त उपजाऊ है तथा पश्चिमी भाग अपेक्षाकृत कम उपजाऊ है। इस जनपद की प्रमुख नदी यमुना है। इसकी दो सहायक नदियाँ 'करवन' तथा 'पथवाहा' हैं। यमुना नदी वर्ष भर बहती है तथा जनपद की प्रत्येक तहसील को छूती हुई बहती है। यह प्रत्येक वर्ष अपना मार्ग बदलती रहती है, जिसके परिणाम स्वरूप हज़ारों हैक्टेयर क्षेत्रफल बाढ़ से प्रभावित हो जाता है। यमुना नदी के किनारे की भूमि खादर है। जनपद की वायु शुद्ध एवं स्वास्थ्यवर्धक है। गर्मियों में अधिक गर्मी और सर्दियों में अधिक सर्दी पड़ना यहाँ की विशेषता है। वर्षा के अलावा वर्ष भर शेष समय मौसम सामान्यत: शुष्क रहता है। मई व जून के महीनों में तेज़ गर्म पश्चिमी हवायें (लू) चलती हैं। जनपद में अधिकांश वर्षा जुलाई व अगस्त माह में होती है। जनपद के पश्चिमी भाग में आजकल बाढ़ का आना सामान्य हो गया है, जिससे काफ़ी क्षेत्र जलमग्न हो जाता है।

मथुरा संदर्भ

शूरसेन देश की मुख्य नगरी मथुरा के विषय में आज तक कोई वैदिक संकेत नहीं प्राप्त हो सका है। किन्तु ई.पू. पाँचवीं शताब्दी से इसका अस्तित्व सिद्ध हो चुका है। 'अंगुत्तरनिकाय'[1] एवं 'मज्झिमनिकाय'[2] में आया है कि बुद्ध के एक महान शिष्य 'महाकाच्यायन' ने मथुरा में अपने गुरु के सिद्धान्तों की शिक्षा दी। मैगस्थनीज़ सम्भवत: मथुरा को जानता था और इसके साथ हरेक्लीज के सम्बन्ध से भी परिचित था। 'माथुर'[3] शब्द जैमिनि के पूर्व मीमांसासूत्र में भी आया है। यद्यपि पाणिनि के सूत्रों में स्पष्ट रूप से 'मथुरा' शब्द नहीं आया है, किन्तु वरणादि-गण[4] में इसका प्रयोग मिलता है। किन्तु पाणिनि को वासुदेव, अर्जुन[5], यादवों के अंधक- वृष्णि लोग, सम्भवत: गोविन्द भी[6] ज्ञात थे।

  • पतंजलि के 'महाभाष्य' में मथुरा शब्द कई बार आया है।[7] कई स्थानों पर वासुदेव द्वारा कंस के नाश का उल्लेख नाटकीय संकेतों, चित्रों एवं गाथाओं के रूप में आया है। 'उत्तराध्ययनसूत्र' में मथुरा को 'सौर्यपुर' कहा गया है, किन्तु 'महाभाष्य' में उल्लिखित सौर्य नगर मथुरा ही है, ऐसा कहना सन्देहात्मक है। आदिपर्व[8] में आया है कि मथुरा अति सुन्दर गायों के लिए उन दिनों प्रसिद्ध थी। जब जरासंध के वीर सेनापति हंस एवं डिम्भक यमुना में डूब गये, और जब जरासंध दु:खित होकर मगध चला गया तो कृष्ण कहते हैं- "अब हम पुन: प्रसन्न होकर मथुरा में रह सकेंगे।"[9] अन्त में जरासंध के लगातार आक्रमणों से तंग आकर कृष्ण ने यादवों को द्वारका में ले जाकर बसाया।[10]

मथुरा का परिचय

मोर, मथुरा

भारतवर्ष का वह भाग जो हिमालय और विंध्याचल के बीच में पड़ता है, प्राचीनकाल में आर्यावर्त कहलाता था। यहाँ पर पनपी हुई भारतीय संस्कृति को जिन धाराओं ने सींचा वे गंगा और यमुना की धाराएँ थीं। इन्हीं दोनों नदियों के किनारे भारतीय संस्कृति के कई केन्द्र बने और विकसित हुए। वाराणसी, प्रयाग, कौशाम्बी, हस्तिनापुर, कन्नौज आदि कितने ही ऐसे स्थान हैं, परन्तु यह तालिका तब तक पूर्ण नहीं हो सकती, जब तक इसमें मथुरा का समावेश न किया जाय। यह आगरा से दिल्ली की ओर और दिल्ली से आगरा की ओर क्रमश: 58 कि.मी. उत्तर-पश्चिम एवं 145 कि.मी. दक्षिण-पश्चिम में यमुना के किनारे राष्ट्रीय राजमार्ग 2 पर स्थित है।

'रामायण' में उल्लेख

वाल्मीकि रामायण में मथुरा को मधुपुर या मधुदानव का नगर कहा गया है तथा यहाँ लवणासुर की राजधानी बताई गई है-[11] इस नगरी को इस प्रसंग में मधुदैत्य द्वारा बसाई, बताया गया है। लवणासुर, जिसको शत्रुघ्न ने युद्ध में हराकर मारा था, इसी मधुदानव का पुत्र था।[12] इससे मधुपुरी या मथुरा का रामायण-काल में बसाया जाना सूचित होता है। रामायण में इस नगरी की समृद्धि का वर्णन है।[13] इस नगरी को लवणासुर ने भी सजाया संवारा था।[14]दानव, दैत्य, राक्षस आदि जैसे संबोधन विभिन्न काल में अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुए हैं, कभी जाति या क़बीले के लिए, कभी आर्य अनार्य संदर्भ में तो कभी दुष्ट प्रकृति के व्यक्तियों के लिए)। प्राचीनकाल से अब तक इस नगर का अस्तित्व अखण्डित रूप से चला आ रहा है।

शूरसेन जनपद

शूरसेन जनपद का नक्शा

शूरसेन जनपद के नामकरण के संबंध में विद्वानों के अनेक मत हैं किन्तु कोई भी सर्वमान्य नहीं है। शत्रुघ्न के पुत्र का नाम शूरसेन था। जब सीताहरण के बाद सुग्रीव ने वानरों को सीता की खोज में उत्तर दिशा में भेजा तो शतबलि और वानरों से कहा- 'उत्तर में म्लेच्छ' पुलिन्द, शूरसेन, प्रस्थल, भरत (इन्द्रप्रस्थ और हस्तिनापुर के आसपास के प्रान्त), कुरु (कुरुदेश) (दक्षिण कुरु- कुरुक्षेत्र के आसपास की भूमि), मद्र, कम्बोज, यवन, शकों के देशों एवं नगरों में भली-भाँति अनुसन्धान करके दरद देश में और हिमालय पर्वत पर ढूँढ़ो। [15] इससे स्पष्ट है कि शत्रुघ्न के पुत्र से पहले ही 'शूरसेन' जनपद नाम अस्तित्व में था। हैहयवंशी कार्तवीर्य अर्जुन के सौ पुत्रों में से एक का नाम शूरसेन था और उसके नाम पर यह शूरसेन राज्य का नामकरण होने की संम्भावना भी है, किन्तु हैहयवंशी कार्तवीर्य अर्जुन का मथुरा से कोई सीधा संबंध होना स्पष्ट नहीं है। महाभारत के समय में मथुरा शूरसेन देश की प्रख्यात नगरी थी। लवणासुर के वधोपरांत शत्रुघ्न ने इस नगरी को पुन: बसाया था। उन्होंने मधुवन के जंगलों को कटवा कर उसके स्थान पर नई नगरी बसाई थी। यहीं कृष्ण का जन्म, यहाँ के अधिपति कंस के कारागार में हुआ तथा उन्होंने बचपन में ही अत्याचारी कंस का वध करके देश को उसके अभिशाप से छुटकारा दिलवाया। कंस की मृत्यु के बाद श्रीकृष्ण मथुरा ही में बस गए, किंतु जरासंध के आक्रमणों से बचने के लिए उन्होंने मथुरा छोड़ कर द्वारका नगरी बसाई[16] दशम सर्ग, 58 में मथुरा पर कालयवन के आक्रमण का वृतांत है। इसने तीन करोड़ म्लेच्छों को लेकर मथुरा को घेर लिया था।[17]

शूरसेन जनपद की सीमा

प्राचीन शूरसेन जनपद का विस्तार दक्षिण में चंबल नदी से लेकर उत्तर में वर्तमान मथुरा नगर से 75 कि.मी. उत्तर में स्थित कुरु (कुरुदेश) राज्य की सीमा तक था। उसकी सीमा पश्चिम में मत्स्य और पूर्व में पांचाल जनपद से मिलती थी। मथुरा नगर को महाकाव्यों एवं पुराणों में 'मथुरा' एवं `मधुपुरी' नामों से संबोधित किया गया है।[18] विद्वानों ने `मधुपुरी' की पहचान मथुरा के 6 मील पश्चिम में स्थित वर्तमान 'महोली' से की है।[19] प्राचीन काल में यमुना नदी मथुरा के पास से गुजरती थी, आज भी इसकी स्थिति यही है। प्लिनी[20] ने यमुना को जोमेनस कहा है, जो मेथोरा और क्लीसोबोरा[21] के मध्य बहती थी।

प्राचीन साहित्य में मथुरा

हरिवंश पुराण[22] में भी मथुरा के विलास-वैभव का मनोहर चित्र है।[23]विष्णु पुराण में भी मथुरा का उल्लेख है,[24] विष्णु-पुराण[25] में शत्रुघ्न द्वारा पुरानी मथुरा के स्थान पर ही नई नगरी के बसाए जाने का उल्लेख है।[26] इस समय तक मधुरा नाम का रूपांतर मथुरा प्रचलित हो गया था। कालिदास ने 'रघुवंश'[27] में इंदुमती के स्वंयवर के प्रसंग में शूरसेनाधिपति सुषेण की राजधानी मथुरा में वर्णित की है।[28] इसके साथ ही गोवर्धन का भी उल्लेख है। मल्लिनाथ ने 'मथुरा` की टीका करते हुए लिखा है`-'कालिंदीतीरे मथुरा लवणासुरवधकाले शत्रुघ्नेन निर्मास्यतेति वक्ष्यति`।

शूरसेन से मथुरा

प्राचीन ग्रंथों हिन्दू, बौद्ध, जैन एवं यूनानी साहित्य में इस जनपद का शूरसेन नाम अनेक स्थानों पर मिलता है। प्राचीन ग्रंथों में मथुरा का मेथोरा[29], मदुरा[30], मत-औ-लौ[31], मो-तु-लो[32] तथा सौरीपुर[33]सौर्यपुर) नामों का भी उल्लेख मिलता है। इन उदाहरणों से ऐसा प्रतीत होता है कि शूरसेन जनपद की संज्ञा ईस्वी सन के आरम्भ तक जारी रही [34] और शक-कुषाणों के प्रभुत्व के साथ ही इस जनपद की संज्ञा राजधानी के नाम पर `मथुरा' हो गई। इस परिवर्तन का मुख्य कारण था कि यह नगर शक-कुषाणकालीन समय में इतनी प्रसिद्धि को प्राप्त हो चुका था कि लोग जनपद के नाम को भी मथुरा नाम से पुकारने लगे और कालांतर में जनपद का शूरसेन नाम जनसाधारण के स्मृतिपटल से विस्मृत हो गया।

पुराणों में मथुरा

पुराणों में मथुरा के गौरवमय इतिहास का विषद विवरण मिलता है। अनेक धर्मों से संबंधित होने के कारण मथुरा में बसने और रहने का महत्त्व क्रमश: बढ़ता रहा। ऐसी मान्यता थी कि यहाँ रहने से पापरहित हो जाते हैं तथा इसमें रहने करने वालों को मोक्ष की प्राप्ति होती है।[35] वराह पुराण में कहा गया है कि इस नगरी में जो लोग शुद्ध विचार से निवास करते हैं, वे मानव के रूप में साक्षात देवता हैं।[36] श्राद्ध कर्म का विशेष फल मथुरा में प्राप्त होता है। मथुरा में श्राद्ध करने वालों के पूर्वजों को आध्यात्मिक मुक्ति मिलती है।[37] उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव ने मथुरा में तपस्या करके नक्षत्रों में स्थान प्राप्त किया था।[38] पुराणों में मथुरा की महिमा का वर्णन है। पृथ्वी के यह पूछने पर कि मथुरा जैसे तीर्थ की महिमा क्या है? महावराह ने कहा था- 'मुझे इस वसुंधरा में पाताल अथवा अंतरिक्ष से भी मथुरा अधिक प्रिय है।'[39] वराह पुराण में भी मथुरा के संदर्भ में उल्लेख मिलता है, यहाँ की भौगोलिक स्थिति का वर्णन मिलता है।[40] यहाँ मथुरा की माप बीस योजन बतायी गयी है।[41] इस मंडल में मथुरा, गोकुल, वृन्दावन, गोवर्धन आदि नगर, ग्राम एवं मंदिर, तड़ाग, कुण्ड, वन एवं अनगणित तीर्थों के होने का विवरण मिलता है। इनका विस्तृत वर्णन पुराणों में मिलता है। गंगा के समान ही यमुना के गौरवमय महत्त्व का भी विशद विवरण किया गया है। पुराणों में वर्णित राजाओं के शासन एवं उनके वंशों का भी वर्णन प्राप्त होता है।

मथुरा मण्डल

मथुरा का मण्डल 20 योजनों तक विस्तृत था और मथुरापुरी इसके बीच में स्थित थी।[42] वराह पुराण एवं नारदीय पुराण (उत्तरार्ध, अध्याय 79-80) ने मथुरा एवं इसके आसपास के तीर्थों का उल्लेख किया है। वराह पुराण[43] एवं नारदीय पुराण[44] ने मथुरा के पास के 12 वनों की चर्चा की है, यथा- मधुवन, तालवन, कुमुदवन, काम्यवन, बहुलावन, भद्रवन, खदिरवन, महावन, लौहजंघवन, बिल्ववन, भांडीरवन एवं वृन्दावन। 24 उपवन भी[45] थे जिन्हें पुराणों ने नहीं, प्रत्युत पश्चात्कालीन ग्रन्थों ने वर्णित किया है।

चन्द्रमा जी मन्दिर, काम्यवन
  • वृन्दावन यमुना के किनारे मथुरा के उत्तर-पश्चिम में था और विस्तार में पाँच योजन था।[46] पद्मपुराण[47] ने कृष्ण, गोपियों एवं कालिन्दी की गूढ़ व्याख्या उपस्थित की है। गोप-पत्नियाँ योगिनी हैं, कालिन्दी सुषुम्ना है, कृष्ण सर्वव्यापक हैं, आदि। यही कृष्ण की लीला-भूमि थी। पद्मपुराण[48] ने इसे पृथ्वी पर वैकुण्ठ माना है। मत्स्यपुराण[49] ने राधा को वृन्दावन में देवी दाक्षायणी माना है। कालिदास के काल में यह प्रसिद्ध था। रघुवंश (6) में नीप कुल के एवं शूरसेन के राजा सुषेण का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वृन्दावन कुबेर की वाटिका चित्ररथ से किसी प्रकार सुन्दरता में कम नहीं है। इसके उपरान्त गोवर्धन की महत्ता है, जिसे कृष्ण ने अपनी कनिष्ठा अंगुली पर इन्द्र द्वारा भेजी गयी वर्षा से गोप-गोपियों एवं उनके पशुओं को बचाने के लिए उठाया था।[50]

ब्रज संस्कृति

यहाँ के वन–उपवन, कुन्ज–निकुन्ज, श्री यमुना व गिरिराज अत्यन्त मोहक हैं। पक्षियों का मधुर स्वर एकाकी स्थल को मादक एवं मनोहर बनाता है। मोरों की बहुतायत तथा उनकी पिऊ-पिऊ की आवाज़ से वातावरण गुन्जायमान रहता है। बाल्यकाल से ही भगवान श्रीकृष्ण की सुन्दर मोर के प्रति विशेष कृपा तथा उसके पंखों को शीष मुकुट के रूप में धारण करने से स्कन्द वाहन स्वरूप मोर को भक्ति साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान मिला है। भारत की सरकार ने मोर को 'राष्ट्रीय पक्षी' घोषित कर इसे संरक्षण दिया है।

Blockquote-open.gif वराह पुराण[51] एवं नारदीय पुराण[52] ने मथुरा के पास के 12 वनों की चर्चा की है, यथा- मधुवन, तालवन, कुमुदवन, काम्यवन, बहुलावन, भद्रवन, खदिरवन, महावन, लौहजंघवन, बिल्ववन, भांडीरवन एवं वृन्दावन। 24 उपवन भी[53] थे, जिन्हें पुराणों ने नहीं, प्रत्युत पश्चात्कालीन ग्रन्थों ने वर्णित किया है। Blockquote-close.gif

ब्रज की जीवन शैली

परम्परागत रूप से ब्रजवासी सानन्द जीवन व्यतीत करते हैं। नित्य स्नान, भजन, मन्दिर गमन, दर्शन–झांकी करना, दीन-दुखियों की सहायता करना, अतिथि सत्कार, लोकोपकार के कार्य, पशु-पक्षियों के प्रति प्रेम, नारियों का सम्मान व सुरक्षा, बच्चों के प्रति स्नेह, उन्हें अच्छी शिक्षा देना तथा लौकिक व्यवहार कुशलता उनकी जीवन शैली के अंग बन चुके हैं। यहाँ कन्या को देवी के समान पूज्य माना जाता है। ब्रज वनितायें पति के साथ दिन-रात कार्य करते हुए कुल की मर्यादा रखकर पति के साथ रहने में अपना जीवन सार्थक मानती है। संयुक्त परिवार प्रणाली साथ रहने, कार्य करने , एक-दूसरे का ध्यान रखने, छोटे-बड़े के प्रति यथोचित सम्मान, यहाँ की सामाजिक व्यवस्था में परिलक्षित होता है। सत्य और संयम ब्रज लोक जीवन के प्रमुख अंग हैं। यहाँ कार्य के सिद्धान्त की महत्ता है और जीवों में परमात्मा का अंश मानना ही दिव्य दृष्टि है।

रथ का मेला, वृन्दावन

व्रत और त्योहार

महिलाओं की मांग में सिन्दूर, माथे पर बिन्दी, नाक में लौंग या बाली, कानों में कुण्डल या झुमकी-झाली, गले में मंगल सूत्र, हाथों में चूड़ी, पैरों में बिछुआ-चुटकी, महावर और पायजेब या तोड़िया उनकी सुहाग की निशानी मानी जाती है। विवाहित महिलायें अपने पति परिवार और गृह की मंगल कामना हेतु करवा चौथ का व्रत करती हैं, पुत्रवती नारियां संतान के मंगलमय जीवन हेतु अहोई अष्टमी का व्रत रखती हैं। स्वर्गस्तक सतिया चिह्न यहाँ सभी मांगलिक अवसरों पर बनाया जाता है और शुभ अवसरों पर नारियल का प्रयोग किया जाता है। देश के कोने-कोने से लोग यहाँ पर्वों पर एकत्र होते हैं। जहाँ विविधता में एकता के साक्षात दर्शन होते हैं। ब्रज में प्राय: सभी मन्दिरों में रथ यात्रा का उत्सव होता है। चैत्र मास में वृन्दावन में रंगनाथ जी की सवारी विभिन्न वाहनों पर निकलती है। जिसमें देश के कोने-कोने से आकर भक्त सम्मिलित होते हैं। ज्येष्ठ मास में गंगा दशहरा के दिन प्रात: काल से ही विभिन्न अंचलों से श्रद्धालु आकर यमुना में स्नान करते हैं। इस अवसर पर भी विभिन्न प्रकार की वेशभूषा और शिल्प के साथ राष्ट्रीय एकता के दर्शन होते हैं, इस दिन छोटे-बड़े सभी कलात्मक ढंग की रंगीन पतंग उड़ाते हैं।

परिक्रमा

आषाढ़ मास में गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा हेतु प्राय: सभी क्षेत्रों से यात्री गोवर्धन आते हैं, जिसमें आभूषणों, परिधानों आदि से क्षेत्र की शिल्प कला उद्भाषित होती है। श्रावण मास में हिन्डोलों के उत्सव में विभिन्न प्रकार से कलात्मक ढंग से सज्जा की जाती है। भाद्रपद में मन्दिरों में विशेष कलात्मक झांकियाँ तथा सजावट होती है। आश्विन माह में सम्पूर्ण ब्रज क्षेत्र में कन्याएँ घर की दीवारों पर गोबर से विभिन्न प्रकार की कृतियाँ बनाती हैं, जिनमें कौड़ियों तथा रंगीन चमकदार काग़ज़ों के आभूषणों से अपनी सांझी को कलात्मक ढंग से सजाकर आरती करती हैं। इसी माह से मन्दिरों में काग़ज़ के सांचों से सूखे रंगों की वेदी का निर्माण कर उस पर अल्पना बनाते हैं। इसको भी 'सांझी' कहते हैं। कार्तिक मास तो श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं से परिपूर्ण रहता है। अक्षय तृतीया तथा देवोत्थान एकादशी को मथुरा तथा वृन्दावन की परिक्रमा लगाई जाती है। बसंत पंचमी को सम्पूर्ण ब्रज क्षेत्र बसन्ती होता है। फाल्गुन मास में तो जिधर देखो उधर नगाड़ों, झांझ पर चौपाई तथा होली के रसिया की ध्वनियां सुनाई देती हैं। नन्दगांव तथा बरसाना की लट्ठमार होली, दाऊजी का हुरंगा जगत प्रसिद्ध है।

ब्रज का प्राचीन संगीत

तानसेन

ब्रज के प्राचीन संगीतज्ञों की प्रामाणिक जानकारी 16वीं शताब्दी के भक्तिकाल से मिलती है। इस काल में अनेकों संगीतज्ञ वैष्णव संत हुए। संगीत शिरोमणि स्वामी हरिदास जी, इनके गुरु आशुधीर जी तथा उनके शिष्य तानसेन आदि का नाम सर्वविदित है। बैजूबावरा के गुरु भी हरिदास जी कहे जाते हैं, किन्तु बैजू बावरा ने अष्टछाप के कवि संगीतज्ञ गोविन्द स्वामी जी से ही संगीत का अभ्यास किया था। निम्बार्क सम्प्रदाय के श्रीभट्ट जी इसी काल में भक्त, कवि और संगीतज्ञ हुए। अष्टछाप के महासंगीतज्ञ कवि सूरदास, नन्ददास, परमानंद दास जी आदि भी इसी काल में प्रसिद्ध कीर्तनकार, कवि और गायक हुए, जिनके कीर्तन बल्लभकुल के मन्दिरों में गाये जाते हैं। स्वामी हरिदास जी ने ही वस्तुत: ब्रज-संगीत के ध्रुपद-धमार की गायकी और रास नृत्य की परम्परा चलाई।

गायन-वादन

मथुरा में संगीत का प्रचलन बहुत पुराना है, बाँसुरी ब्रज का प्रमुख वाद्य यंत्र है। भगवान श्रीकृष्ण की बाँसुरीको जन-जन जानता है, और इसी को लेकर उन्हें 'मुरलीधर' और 'वंशीधर' आदि नामों से पुकारा जाता है। वर्तमान में भी ब्रज के लोक संगीत में ढोल, मृदंग, झांझ, मंजीरा, ढप, नगाड़ा, पखावज, एकतारा आदि वाद्य यंत्रों का प्रचलन है। 16 वीं शती से मथुरा में रास के वर्तमान रूप का प्रारम्भ हुआ। यहाँ सबसे पहले बल्लभाचार्य ने स्वामी हरदेव के सहयोग से विश्रांत घाट पर रास किया। रास ब्रज की अनोखी देन है, जिसमें संगीत के गीत गद्य तथा नृत्य का समिश्रण है। ब्रज के साहित्य के सांस्कृतिक एवं कलात्मक जीवन को रास बड़ी सुन्दरता से अभिव्यक्त करता है। अष्टछाप के कवियों के समय ब्रज में संगीत की मधुरधारा प्रवाहित हुई। सूरदास, नन्ददास, कृष्णदास आदि स्वयं गायक थे। इन कवियों ने अपनी रचनाओं में विविध प्रकार के गीतों का अपार भण्डार भर दिया।

कम्बोजिका
राजकीय संग्रहालय, मथुरा

स्वामी हरिदास संगीत शास्त्र के प्रकाण्ड आचार्य एवं गायक थे। तानसेन जैसे प्रसिद्ध संगीतज्ञ भी उनके शिष्य थे। सम्राट अकबर भी स्वामी जी के मधुर संगीत गीतों को सुनने का लोभ संवरण न कर सका और इसके लिए भेष बदलकर उन्हें सुनने वृन्दावन आया करता था। मथुरा, वृन्दावन, गोकुल, गोवर्धन लम्बे समय तक संगीत के केन्द्र बने रहे और यहाँ दूर से संगीत कला सीखने आते रहे।

लोक गीत

ब्रज में अनेकानेक गायन शैलियां प्रचलित हैं और रसिया ब्रज की प्राचीनतम गायकी कला है। भगवान श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं से सम्बन्धित पद, रसिया आदि गायकी के साथ रासलीला का आयोजन होता है। श्रावण मास में महिलाओं द्वारा झूला झूलते समय गायी जाने वाली मल्हार गायकी का प्रादुर्भाव ब्रज से ही है। लोकसंगीत में रसिया, ढोला, आल्हा, लावणी, चौबोला, बहल-तबील, भगत आदि संगीत भी समय-समय पर सुनने को मिलता है। इसके अतिरिक्त ऋतु गीत, घरेलू गीत, सांस्कृतिक गीत समय-समय पर विभिन्न वर्गों में गाये जाते हैं।

मूर्ति कला

यहाँ स्थापत्य तथा मूर्ति कला के विकास का सबसे महत्त्वपूर्ण युग कुषाण काल के प्रारम्भ से गुप्त काल के अन्त तक रहा। यद्यपि इसके बाद भी ये कलायें 12वीं शती के अन्त तक जारी रहीं। इसके बाद लगभग 350 वर्षों तक मथुरा कला का प्रवाह अवरुद्ध रहा, पर 16वीं शती से कला का पुनरूत्थान साहित्य, संगीत तथा चित्रकला के रूप में दिखाई पड़ने लगता है।

होली

श्रीकृष्ण राधा और गोपियों- ग्वालों के बीच की होली के रूप में गुलाल, रंग केसर की पिचकारी से ख़ूब खेलते हैं। होली का आरम्भ फाल्गुन शुक्ल नवमी बरसाना से होता है। वहाँ की लठामार होली जग प्रसिद्ध है। दशमी को ऐसी ही होली नन्दगांव में होती है। इसी के साथ पूरे ब्रज में होली की धूम मचती है। धुलेंडी को प्राय: होली पूर्ण हो जाती है, इसके बाद हुरंगे चलते हैं, जिनमें महिलायें रंगों के साथ लाठियों, कोड़ों आदि से पुरुषों को घेरती हैं। बरसाना और नंदगाँव की लठमार होली तो जगप्रसिद्ध है। 'नंदगाँव के कुँवर कन्हैया, बरसाने की गोरी रे रसिया' और ‘बरसाने में आई जइयो बुलाए गई राधा प्यारी’ गीतों के साथ ही ब्रज की होली की मस्ती शुरू होती है। वैसे तो होली पूरे भारत में मनाई जाती है लेकिन ब्रज की होली ख़ास मस्ती भरी होती है। वजह ये कि इसे कृष्ण और राधा के प्रेम से जोड़ कर देखा जाता है। उत्तर भारत के ब्रज क्षेत्र में बसंत पंचमी से ही होली का चालीस दिवसीय उत्सव आरंभ हो जाता है। नंदगाँव एवं बरसाने से ही होली की विशेष उमंग जाग्रत होती है। जब नंदगाँव के गोप गोपियों पर रंग डालते, तो नंदगांव की गोपियां उन्हें ऐसा करने से रोकती थीं और न मानने पर लाठी मारना शुरू करती थीं। होली की टोलियों में नंदगाँव के पुरुष होते हैं, क्योंकि कृष्ण यहीं के थे, और बरसाने की महिलाएं, क्योंकि राधा बरसाने की थीं। दिलचस्प बात ये होती है कि ये होली बाकी भारत में खेली जाने वाली होली से पहले खेली जाती है। दिन शुरू होते ही नंदगाँव के हुरियारों की टोलियाँ बरसाने पहुँचने लगती हैं। साथ ही पहुँचने लगती हैं, कीर्तन मंडलियाँ। इस दौरान भाँग-ठंढई का ख़ूब इंतज़ाम होता है। ब्रजवासी लोगों की चिरौंटा जैसी आखों को देखकर भाँग ठंढई की व्यवस्था का अंदाज़ लगा लेते हैं। बरसाने में टेसू के फूलों के भगोने तैयार रहते हैं। दोपहर तक घमासान लठमार होली का समाँ बंध चुका होता है। नंदगाँव के लोगों के हाथ में पिचकारियाँ होती हैं और बरसाने की महिलाओं के हाथ में लाठियाँ, और शुरू हो जाती है होली।

मथुरा के प्रमुख मन्दिर

भगवान श्रीकृष्ण के जन्म स्थान पर महामना पंडित मदन मोहन मालवीय जी की प्रेरणा से एक विशाल मन्दिर बना है। यह देशी-विदशी पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र है। मन्दिर में भगवान श्रीकृष्ण का सुन्दर विग्रह है। समीप ही सुविधा युक्त अतिथि ग्रह तथा धर्मार्थ आयुर्वेदिक चिकित्सालय है। अतिथि ग्रह के निकट विशाल भागवत भवन है। यहाँ शोध पीठ एवं बाल मन्दिर भी है। इसके पीछे केशवदेव जी का प्राचीन मन्दिर भी स्थित है।

नाम एवं संक्षिप्त विवरण संबंधित चित्र
कृष्ण जन्मभूमि

भगवान श्री कृष्ण की जन्मभूमि का ना केवल राष्द्रीय स्तर पर महत्त्व है बल्कि वैश्विक स्तर पर मथुरा जनपद भगवान श्रीकृष्ण के जन्मस्थान से ही जाना जाता है। आज वर्तमान में महामना पंडित मदनमोहन मालवीय जी की प्रेरणा से यह एक भव्य आकर्षण मन्दिर के रूप में स्थापित है। पर्यटन की दृष्टि से विदेशों से भी भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए यहाँ प्रतिदिन आते हैं .... और पढ़ें

कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा
द्वारिकाधीश मन्दिर

मथुरा नगर के राजाधिराज बाज़ार में स्थित यह मन्दिर अपने सांस्कृतिक वैभव कला एवं सौन्दर्य के लिए अनुपम है। ग्वालियर राज के कोषाध्यक्ष सेठ गोकुल दास पारीख ने इसका निर्माण 1814–15 में प्रारम्भ कराया, जिनकी मृत्यु पश्चात इनकी सम्पत्ति के उत्तराधिकारी सेठ लक्ष्मीचन्द्र ने मन्दिर का निर्माण कार्य पूर्ण कराया .... और पढ़ें

द्वारिकाधीश मन्दिर
बांके बिहारी मन्दिर

बांके बिहारी मंदिर मथुरा ज़िले के वृंदावन धाम में रमण रेती पर स्थित है। यह भारत के प्राचीन और प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। बांके बिहारी कृष्ण का ही एक रूप है जो इसमें प्रदर्शित किया गया है। कहा जाता है कि इस मन्दिर का निर्माण स्वामी श्री हरिदास जी के वंशजो के सामूहिक प्रयास से संवत 1921 के लगभग किया गया .... और पढ़ें

बांके बिहारी मन्दिर
रंग नाथ जी मन्दिर

श्री सम्प्रदाय के संस्थापक रामानुजाचार्य के विष्णु-स्वरूप भगवान रंगनाथ या रंगजी के नाम से रंग जी का मन्दिर सेठ लखमीचन्द के भाई सेठ गोविन्ददास और राधाकृष्ण दास द्वारा निर्माण कराया गया था। उनके महान गुरु संस्कृत के आचार्य स्वामी रंगाचार्य द्वारा दिये गये मद्रास के रंग नाथ मन्दिर की शैली के मानचित्र के आधार पर यह बना था। इसकी बाहरी दीवार की लम्बाई 773 फीट और चौड़ाई 440 फीट है .... और पढ़ें

रंग नाथ जी मन्दिर
गोविन्द देव मन्दिर

गोविन्द देव जी का मंदिर वृंदावन में स्थित वैष्णव संप्रदाय का मंदिर है। मंदिर का निर्माण ई. 1590 में तथा इसे बनाने में 5 से 10 वर्ष लगे। मंदिर की भव्यता का अनुमान इस उद्धरण से लगाया जा सकता है औरंगज़ेब ने शाम को टहलते हुए, दक्षिण-पूर्व में दूर से दिखने वाली रौशनी के बारे जब पूछा तो पता चला कि यह चमक वृन्दावन के वैभवशाली मंदिरों की है .... और पढ़ें

गोविन्द देव मन्दिर
इस्कॉन मन्दिर

वृन्दावन के आधुनिक मन्दिरों में यह एक भव्य मन्दिर है। इसे अंग्रेज़ों का मन्दिर भी कहते हैं। केसरिया वस्त्रों में हरे रामा–हरे कृष्णा की धुन में तमाम विदेशी महिला–पुरुष यहाँ देखे जाते हैं। मन्दिर में राधा कृष्ण की भव्य प्रतिमायें हैं और अत्याधुनिक सभी सुविधायें हैं .... और पढ़ें

इस्कॉन मन्दिर वृन्दावन
मदन मोहन मन्दिर

श्रीकृष्ण भगवान के अनेक नामों में से एक प्रिय नाम मदनमोहन भी है। इसी नाम से एक मंदिर मथुरा ज़िले के वृंदावन धाम में विद्यमान है। विशालकायिक नाग के फन पर भगवान चरणाघात कर रहे हैं। पुरातनता में यह मंदिर गोविन्द देव जी के मंदिर के बाद आता है .... और पढ़ें

मदन मोहन मन्दिर वृन्दावन
दानघाटी मंदिर

मथुरा–डीग मार्ग पर गोवर्धन में यह मन्दिर स्थित है। गिर्राजजी की परिक्रमा हेतु आने वाले लाखों श्रृद्धालु इस मन्दिर में पूजन करके अपनी परिक्रमा प्रारम्भ कर पूर्ण लाभ कमाते हैं। ब्रज में इस मन्दिर की बहुत महत्ता है। यहाँ अभी भी इस पार से उसपार या उसपार से इस पार करने में टोल टैक्स देना पड़ता है। कृष्णलीला के समय कृष्ण ने दानी बनकर गोपियों से प्रेमकलह कर नोक–झोंक के साथ दानलीला की है .... और पढ़ें

दानघाटी
मानसी गंगा

गोवर्धन गाँव के बीच में श्री मानसी गंगा है। परिक्रमा करने में दायीं और पड़ती है और पूंछरी से लौटने पर भी दायीं और इसके दर्शन होते हैं। मानसी गंगा के पूर्व दिशा में- श्री मुखारविन्द, श्री लक्ष्मीनारायण मन्दिर, श्री किशोरीश्याम मन्दिर, श्री गिरिराज मन्दिर, श्री मन्महाप्रभु जी की बैठक, श्री राधाकृष्ण मन्दिर स्थित हैं .... और पढ़ें

मानसी गंगा
कुसुम सरोवर

मथुरा में गोवर्धन से लगभग 2 किलोमीटर दूर राधाकुण्ड के निकट स्थापत्य कला के नमूने का एक समूह जवाहर सिंह द्वारा अपने पिता सूरजमल ( ई.1707-1763) की स्मृति में बनवाया गया। कुसुम सरोवर गोवर्धन के परिक्रमा मार्ग में स्थित एक रमणीक स्थल है जो अब सरकार के संरक्षण में है .... और पढ़ें

कुसुम सरोवर
राधा रानी मंदिर

इस मंदिर को बरसाने की लाड़ली जी का मंदिर भी कहा जाता है। राधा का यह प्राचीन मंदिर मध्यकालीन है जो लाल और पीले पत्थर का बना है। राधा-कृष्ण को समर्पित इस भव्य और सुन्दर मंदिर का निर्माण राजा वीर सिंह ने 1675 में करवाया था। बाद में स्थानीय लोगों द्वारा पत्थरों को इस मंदिर में लगवाया। .... और पढ़ें

राधा रानी मंदिर
नन्द जी मंदिर

नन्द जी का मंदिर, नन्दगाँव में स्थित है। नन्दगाँव ब्रजमंडल का प्रसिद्ध तीर्थ है। गोवर्धन से 16 मील पश्चिम उत्तर कोण में, कोसी से 8 मील दक्षिण में तथा वृन्दावन से 28 मील पश्चिम में नन्दगाँव स्थित है। नन्दगाँव की प्रदक्षिणा (परिक्रमा) चार मील की है। यहाँ पर कृष्ण लीलाओं से सम्बन्धित 56 कुण्ड हैं। जिनके दर्शन में 3–4 दिन लग जाते हैं .... और पढ़ें

नन्द जी मंदिर



वीथिका

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अंगुत्तरनिकाय, 1।167, एकं समयं आयस्मा महाकच्छानो मधुरायं विहरति गुन्दावने
  2. मज्झिम.(2।84
  3. मथुरा का निवासी, या वहाँ उत्पन्न हुआ या मथुरा से आया हुआ
  4. पाणिनि, 4।2।82
  5. पाणिनि (4।3।98
  6. 3।1।138 एवं वार्तिक 'गविच विन्दे: संज्ञायाम्'
  7. पतंजलि महाभाष्य, जिल्द 1,पृ. 18, 19 एवं 192, 244, जिल्द 3, पृ. 299 आदि।
  8. महाभारत आदि पर्व 221।46
  9. महाभारत, सभापर्व 14।41-45
  10. महाभारत, सभापर्व 14।49-50 एवं 67।
  11. `एवं भवतु काकुत्स्थ क्रियतां मम शासनम्, राज्ये त्वामभिषेक्ष्यामि मधोस्तु नगरे शुभे। नगरं यमुनाजुष्टं तथा जनपदाञ्शुभान् यो हि वंश समुत्पाद्य पार्थिवस्य निवेशने` उत्तर. 62,16-18.
  12. `तं पुत्रं दुर्विनीतं तु दृष्ट्वा कोधसमन्वित:, मधु: स शोकमापेदे न चैनं किंचिदब्रवीत्`-उत्तर. 61,18।
  13. `अर्ध चंद्रप्रतीकाशा यमुनातीरशोभिता, शोभिता गृह-मुख्यैश्च चत्वरापणवीथिकै:, चातुर्वर्ण्य समायुक्ता नानावाणिज्यशोभिता` उत्तर. 70,11।
  14. यच्चतेनपुरा शुभ्रं लवणेन कृतं महत्, तच्छोभयति शुत्रध्नो नानावर्णोपशोभिताम्। आरामैश्व विहारैश्च शोभमानं समन्तत: शोभितां शोभनीयैश्च तथान्यैर्दैवमानुषै:` उत्तर. 70-12-13। उत्तर0 70,5 (`इयं मधुपुरी रम्या मधुरा देव-निर्मिता) में इस नगरी को मथुरा नाम से अभिहित किया गया है।
  15. बाल्मीकि रामायाण,किष्किन्धाकाण्ड़,त्रिचत्वारिंशः सर्गः। तत्र म्लेच्छान् पुलिन्दांश्च शूरसेनां स्तथैव च। प्रस्थलान् भरतांश्चैव कुरुंश्च सह मद्रकैः॥ 11 काम्बोजयवनांश्चैव शकानां पत्तनानि च। अन्वीक्ष्य दरदांश्चैव हिमवन्तं विचिन्वथ ॥ 12
  16. `वयं चैव महाराज, जरासंधभयात् तदा, मथुरां संपरित्यज्य यता द्वारावतीं पुरीम्` महा. सभा. 14,67। श्रीमद्भागवत 10,41,20-21-22-23 में कंस के समय की मथुरा का सुंदर वर्णन है।
  17. `रूरोध मथुरामेत्य तिस भिम्र्लेच्छकोटिभि:
  18. रामायण, उत्तरकांड, सर्ग 62, पंक्ति 17
  19. कृष्णदत्त वाजपेयी, मथुरा, पृ 2
  20. प्लिनी, नेचुरल हिस्ट्री, भाग 6, पृ 19; तुलनीय ए, कनिंघम, दि ऐंश्येंलटज्योग्राफी आफ इंडिया, (इंडोलाजिकल बुक हाउस, वाराणसी, 1963), पृ 315
  21. `कनिंघम ने 'क्लीसोबेरा' की पहचान 'केशवुर' या कटरा केशवदेव के मुहल्ले से की है। यूनानी लेखकों के समय में यमुना की मुख्य धारा या उसकी बड़ी शाखा वर्तमान कटरा या केशव देव के पूर्वी दीवार के समीप से बहती रही होगी ओर उसके दूसरी तरफ मथुरा नगर रहा होगा। ए, कनिंघम, दि ऐंश्येंरटज्योग्राफी ऑफ इंडिया, इंडोलाजिकल बुक हाउस, वाराणसी, 1963 ई , पृ 315.
  22. हरिवंश पुराण, 1,54
  23. `सा पुरी परमोदारा साट्टप्रकारतोरणा स्फीता राष्ट्र समाकीर्णा समृद्धबलवाहना। उद्यानवन संपन्ना सुसीमासुप्रतिष्ठिता, प्रांशुप्राकारवसना परिखाकुल मेखला`।
  24. `संप्राप्तश्चापि सायाह्ने सोऽक्रूरो मथुरां पुरीम` 5,19,9
  25. विष्णु-पुराण, 4,5,101
  26. `शत्रुघ्नेनाप्यमितबलपराक्रमो मधुपुत्रो लवणो नाम राक्षसोभिहतो मथुरा च निवेशिता`
  27. रघुवंश, 6,48
  28. 'यस्यावरोधस्तनचंदनानां प्रक्षालनाद्वारिविहारकाले, कलिंदकन्या मथुरां गतापि गंगोर्मिसंसक्तजलेव भाति`
  29. विष्णु पुराण, 1/12/43 मेक्रिण्डिल, ऐंश्यें टइंडिया एज डिस्क्राइब्ड बाई टालेमी (कलकत्ता, 1927), पृ 98
  30. `मदुरा य सूरसेणा' देखें-इंडियन एण्टिक्वेरी, संख्या 20, पृ 375
  31. जेम्स लेग्गे, दि टे्रवेल्स आफ फ़ाह्यान, द्वितीय संस्करण, 1972), पृ 42
  32. थामस वाट्र्स, आन युवॉन् च्वाग्स टे्रवेल्स इन इंडिया, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1961 ई) भाग 1, पृ 301
  33. हरमन जैकोबी, सेक्रेड बुक्स ऑफ दि ईस्ट, भाग 45, पृ 112
  34. मनुस्मृति, भाग 2, श्लोक 18 और 20
  35. ये वसंति महाभागे मथुरायामितरे जना:। तेऽपि यांति परमां सिद्धिं मत्प्रसादन्न संशय: वाराह पुराण, पृ 852, श्लोक 20
  36. मथुरायां महापुर्या ये वसंति शुचिव्रता:। बलिभिक्षाप्रदातारो देवास्ते नरविग्रहा:।। तत्रैव, श्लोक 22
  37. मथुराममंडमम् प्राप्य श्राद्धं कृत्वा यथाविधि। तृप्ति प्रयांति पितरो यावस्थित्यग्रजन्मन:।। तत्रैव, श्लोक 19
  38. पद्मपुराण, पृ 600, श्लोक 53
  39. वराह पुराण, अध्याय 152
  40. गोवर्धनो गिरिवरो यमुना च महानदी। तयोर्मध्ये पुरोरम्या मथुरा लोकविश्रुता।। वाराहपुराण, अध्याय 165, श्लोक 23
  41. `शितिर्योजनानातं मथुरां मत्र मंडलम्।' तत्रैव, अध्याय 158, श्लोक1
  42. विंशतिर्योजनानां तु माथुरं परिमण्डलम्। तन्मध्ये मथुरा नाम पुरी सर्वोत्तमोत्तमा॥ नारदीय पुराण उत्तर, 79। 20-21
  43. वराह पुराण (अध्याय 153 एवं 161। 6-10
  44. नारदीय पुराण (उत्तरार्ध, 79।10-18
  45. ग्राउसकृत मथुरा, पृ. 76
  46. विष्णुपुराण 5।6।28-40, नारदीय पुराण, उत्तरार्ध 80।6,8 एवं 77)
  47. पद्मपुराण पाताल, 75।8-14
  48. पद्मपुराण (4।69।9)
  49. मत्स्यपुराण (13।38)
  50. विष्णुपुराण (5।11।15-24
  51. वराह पुराण (अध्याय 153 एवं 161। 6-10
  52. नारदीय पुराण (उत्तरार्ध, 79।10-18
  53. ग्राउसकृत मथुरा, पृ. 76

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