मणिदास माली

मणिदास माली
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पूरा नाम मणिदास माली
जन्म 1600 सम्वत
जन्म भूमि जगन्नाथ पुरी, (उड़ीसा)
मृत्यु 1680 सम्वत
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र जगन्‍नाथ जी (उड़ीसा)
प्रसिद्धि भक्त
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी मणिदास भगवान श्री जगन्‍नाथ जी के मन्दिर में कीर्तन करते समय शरीर की सुधि भूल जाते, कभी नृत्‍य करते, कभी खड़े रह जाते। कभी गाते, स्‍तुति करते या रोने लगते। कभी प्रणाम करते, कभी जय-जयकार करते और कभी भूमि में लोटने लगते थे। उनके शरीर में अश्रु, स्‍वेद, कम्‍प, रोमांच आदि आठों सात्त्विक भावों का उदय हो जाता था।

मणिदास श्री जगन्‍नाथ धाम में रहते थे। फूल-माला बेचकर जो कुछ मिलता था, उसमें से साधु-ब्राह्मणों की वे सेवा भी करते थे, दीन-दु:खियों को, भूखों को भी दान करते थे और अपने कुटुम्‍ब का काम भी चलाते थे। अक्षर-ज्ञान मणिदास ने नहीं पाया था; पर यह सच्‍ची शिक्षा उन्‍होंने ग्रहण कर ली थी कि दीन-दु:खी प्राणियों पर दया करनी चाहिये और दुष्‍कर्मों का त्‍याग करके भगवान का भजन करना चाहिये।

परिचय

मणिदास का जन्म सम्वत 1600 के लगभग जगन्नाथ पुरी (उड़ीसा) में हुआ था।[1] मणिदास अपने छोटे से खेत में तरह-तरह के फूल उगाता था। फूल-माला बेचकर जो कुछ मिलता था, उसमें से साधु-ब्राह्मणों की वे सेवा भी करते थे, दीन-दु:खियों को, भूखों को भी दान करते थे और अपने कुटुम्‍ब का काम भी चलाते थे। मणिदास प्रतिदिन मंदिर जाकर जगन्नाथजी के सामने तन्मय होकर नृत्य किया करता। नृत्य करते-करते वह सुधबुध खो बैठता। अक्षर-ज्ञान मणिदास ने नहीं पाया था; पर यह सच्‍ची शिक्षा उन्‍होंने ग्रहण कर ली थी कि दीन-दु:खी प्राणियों पर दया करनी चाहिये और दुष्‍कर्मों का त्‍याग करके भगवान का भजन करना चाहिये।[2]

स्‍त्री-पुत्रों का परलोकवास

कुछ समय बाद मणिदास के स्‍त्री-पुत्रों का एक-एक करके परलोकवास हो गया। जो संसार के विषयों में आसक्त, माया-मोह में लिपटे प्राणी हैं, वे सम्‍पत्ति तथा परिवार का नाश होने पर दु:खी होते हैं और भगवान को दोष देते हैं; किंतु मणिदास ने तो इसे भगवान की कृपा मानी। उन्‍होंने सोचा- "मेरे प्रभु कितने दयामय हैं कि उन्‍होंने मुझे सब ओर से बन्‍धन-मुक्त कर दिया। मेरा मन स्‍त्री-पुत्र को अपना मानकर उनके मोह में फँसा रहता था, श्रीहरि ने कृपा करके मेरे कल्‍याण के लिये अपनी वस्‍तुएँ लौटा लीं। मैं मोह-मदिरा से मतवाला होकर अपने सच्‍चे कर्तव्‍य को भूला हुआ था। अब तो जीवन का प्रत्‍येक क्षण प्रभु के स्‍मरण में लगाउँगा।"

भजन-कीर्तन

मणिदास अब साधु के वेश में अपना सारा जीवन भगवान के भजन में ही बिताने लगे। हाथों में करताल लेकर प्रात: काल ही स्‍नानादि करके वे श्री जगन्‍नाथ जी के सिंह द्वार पर आकर कीर्तन प्रारम्‍भ कर देते थे। कभी-कभी प्रेम में उन्‍मत्त होकर नाचने लगते थे। मन्दिर के द्वार खुलने पर भीतर जाकर श्री जगन्‍नाथ जी की मूर्ति के पास गरुड़-स्‍तम्‍भ के पीछे खड़े होकर देर तक अपलक दर्शन करते रहते और फिर साष्‍टांग प्रणाम करके कीर्तन करने लगते थे। कीर्तन के समय मणिदास को शरीर की सुधि भूल जाती थी। कभी नृत्‍य करते, कभी खड़े रह जाते। कभी गाते, स्‍तुति करते या रोने लगते। कभी प्रणाम करते, कभी जय-जयकार करते और कभी भूमि में लोटने लगते थे। उनके शरीर में अश्रु, स्‍वेद, कम्‍प, रोमांच आदि आठों सात्त्विक भावों का उदय हो जाता था।

मणिदास की धुन

नित्‍य श्री जगन्‍नाथ जी के मन्दिर में मण्‍डप के एक भाग में पुराण की कथा हुआ करती थी। कथावाचक जी विद्वान तो थे, पर भगवान की भक्ति उनमें नहीं थी। वे कथा में अपनी प्रतिभा से ऐसे-ऐसे भाव बतलाते थे कि श्रोता मुग्‍ध हो जाते थे। एक दिन कथा हो रही थी, पण्डित जी कोई अदभुत भाव बता रहे थे कि इतने में करताल बजाता ‘राम-कृष्‍ण-गोविन्‍द-हरि’ की उच्‍च ध्‍वनि करता मणिदास वहाँ आ पहुँचा। मणिदास तो जगन्‍नाथ जी के दर्शन करते ही बेसुध हो गया। उसे पता नहीं कि कहाँ कौन बैठा है या क्‍या हो रहा है। वह तो उन्‍मत्त होकर नाम-ध्‍वनि करता हुआ नाचने लगा। कथावाचक जी को उसका यह ढंग बहुत बुरा लगा। उन्‍होंने डाँटकर उसे हट जाने के लिये कहा, परंतु मणिदास तो अपनी धुन में था। उसके कान कुछ नहीं सुन रहे थे। कथावाचक जी को क्रोध आ गया। कथा में विघ्‍न पड़ने से श्रोता भी उत्तेजित हो गये। मणिदास पर गालियों के साथ-साथ थप्‍पड़ पड़ने लगे। जब मणिदास को बाह्यज्ञान हुआ, तब वह भौंचक्‍का रह गया। सब बातें समझ में आने पर उसके मन में प्रणय कोप जागा। उसने सोचा- "जब प्रभु के सामने ही उनकी कथा कहने तथा सुनने वाले मुझे मारते हैं, तब मैं वहाँ क्‍यों जाउँ?"

जो प्रेम करता है, उसी को रूठने का भी अधिकार है। मणिदास आज श्री जगन्‍नाथ जी से रूठकर भूखा-प्‍यासा एक मठ में दिनभर पड़ा रहा। मन्दिर में सन्‍ध्‍या-आरती हुई, पट बंद हो गये, पर मणिदास आया नहीं। रात्रि को द्वार बंद हो गये।

राजा को स्‍वप्‍न में दर्शन

पुरी-नरेश ने उसी रात्रि में स्‍वप्‍न में श्री जगन्‍नाथ जी के दर्शन किये। प्रभु कह रहे थे- "तू कैसा राजा है ! मेरे मन्दिर में क्‍या होता है, तुझे इसकी खबर भी नहीं रहती। मेरा भक्त मणिदास नित्‍य मन्दिर में करताल बजाकर नृत्‍य किया करता है। तेरे कथावाचक ने उसे आज मारकर मन्दिर से निकाल दिया। उसका कीर्तन सुने बिना मुझे सब फीका जान पड़ता है। मेरा मणिदास आज मठ में भूखा-प्‍यासा पड़ा है। तू स्‍वयं जाकर उसे सन्‍तुष्‍ट कर। अब से उसके कीर्तन में कोई विघ्‍न नहीं होना चाहिये। कोई कथावाचक आज से मेरे मन्दिर में कथा नहीं करेगा। मेरा मन्दिर तो मेरे भक्तों के कीर्तन करने के लिये सुरक्षित रहेगा। कथा अब लक्ष्‍मी जी के मन्दिर में होगी।"

  • उधर मठ में पड़े मणिदास ने देखा कि सहसा कोटि-कोटि सूर्यों के समान शीतल प्रकाश चारों ओर फैल गया है। स्‍वयं जगन्‍नाथ जी प्रकट होकर उसके सिर पर हाथ रखकर कह रहे हैं- "बेटा मणिदास ! तू भूखा क्‍यों है। देख तेरे भूखे रहने से मैंने भी आज उपवास किया है। उठ, तू जल्‍दी भोजन तो कर ले!" भगवान अन्‍तर्धान हो गये। मणिदास ने देखा कि महाप्रसाद का थाल सामने रखा है। उसका प्रणयरोष दूर हो गया। प्रसाद पाया उसने।
  • उधर राजा की निद्रा टूटी। घोड़े पर सवार होकर वह स्‍वयं जाँच करने मन्दिर पहुँचा। पता लगाकर मठ में मणिदास के पास गया। मणिदास में अभिमान तो था नहीं, वह राजी हो गया। राजा ने उसका सत्‍कार किया। करताल लेकर मणिदास स्‍तुति करता हुआ श्री जगन्‍नाथ जी के सम्‍मुख नृत्‍य करने लगा। उसी दिन से श्री जगन्‍नाथ-मन्दिर में कथा का बाँचना बन्‍द हो गया। कथा अब तक श्री जगन्‍नाथ जी के मन्दिर के नैर्ऋत्‍य कोण में स्थित श्री लक्ष्‍मी जी के मन्दिर में होती है।

दिव्‍यधाम गमन

मणिदास जीवन भर श्री जगन्‍नाथ जी के मन्दिर में कीर्तन करते रहे। अन्‍त में लगभग सम्वत 1680[1] में मणिदास श्री जगन्‍नाथ जी की सेवा के लिये उनके दिव्‍यधाम पधारे।[2]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 पाञ्चजन्य स्वर्ण-जयन्ती चित्रमाला-292 (हिन्दी) पाञ्चजन्य। अभिगमन तिथि: 11 दिसम्बर, 2015।
  2. 2.0 2.1 पुस्तक- भक्त चरितांक | प्रकाशक- गीता प्रेस, गोरखपुर | विक्रमी संवत- 2071 (वर्ष-2014) | पृष्ठ संख्या- 680

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