भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 79

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-2
सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास

कृष्ण द्वारा अर्जुन की भर्त्सना और वीर बनने के लिए प्रोत्साहन

संजय उवाच

1.तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् ।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ॥

संजय ने कहाः इस प्रकार दया से भरे हुए और आँसुओं से डबडबाई आंखों वाले अर्जुन से, जिसका मन दुःख से भरा हुआ था, कृष्ण ने कहा: अर्जुन की दया का दैवीय करुणा से कोई मेल नहीं है। यह तो एक प्रकार की स्वार्थवृत्ति है, जिसके कारण वह ऐसा कार्य करने से हिचकता है, जिसमें उसे अपने ही लोगों को चोट पहुँचानी होगी। अर्जुन एक आत्मदया की भावुकतापूर्ण मनोवृत्ति के कारण इस कार्य से पीछे हटना चाहता है और उसका गुरु कृष्ण उसको फटकारता है। कौरव लोग उसके अपने सम्बन्धी हैं, यह बात तो उसे पहले भी मालूम थी।

2.कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।
अनार्य जुष्टमस्वग्र्य मकीर्ति करमर्जुन ॥

भगवान् कृष्ण ने कहा: हे अर्जुन, तुझे यह आत्मा का कलंक (यह उदासी) इस विषय समय में कहाँ से आ लगा। यह वस्तु श्रेष्ठ मन वाले लोगों के लिए बिलकुल अनजानी है (आर्य लोग इसे पसन्द नहीं करते), यह स्वर्ग ले जाने वाली नहीं है और (पृथ्वी पर ) यह अपयश देने वाली है। आर्यां में अयोग्य। कुछ लोगों का कहना है कि आर्य लोग वे हैं, जो आन्तरिक संस्कार और सामाजिक व्यवहार को, जिसमें कि उत्साह और सौजन्य, कुलीनता और सरल व्यवहार पर जोर दिया गया है, अंगीकार करते हैं।अर्जुन को संशय से छुटकारा दिलाने के प्रयत्न में कृष्ण आत्मा की अनश्वरता के सिद्धान्त का उल्लेख करता है और अर्जुन की प्रतिष्ठा और सैरिक परम्पराओं की भावनाओं को जगाता है। उसके सम्मुख भगवान् के प्रयोजन को प्रस्तुत करता है और इस बात को संकेत करता है कि संसार में कर्म किस प्रकार किया जाना चाहिए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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