भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 63

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय -1
अर्जुन की दुविधा और विषाद
वास्तविक प्रश्न
धृतराष्ट्र उवाच

1.धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय॥

धृतराष्ट्र ने कहा: (1) हे संजय, जब मेरे पुत्र और पाण्डु के पुत्र धर्म के क्षेत्र कुरुक्षेत्र में युद्ध करने की इच्छा से एकत्र हुए, तब उन्होंने क्या किया? धर्मक्षेत्रेः धर्म के क्षेत्र में। क्या उचित है या धर्म है, यह निर्णय करने का गुण मनुष्य में ही विशेष रूप से पाया जाता है। भूख, नींद, भय और यौन इच्छा तो मनुष्यों और पशुओं में समान रूप से पाई जाती हैं; उचित और अनुचित के ज्ञान के कारण ही मनुष्य पशुओं से पृथक् समझा जा सकता है।[1]‌‌‌ यह संसार धर्मक्षेत्र है, नैतिक संघर्ष के लिए समर-भूमि। निर्णायक तत्त्व मनुष्यों के हृदयों में विद्यमान है, जहाँ कि ये युद्ध प्रतिदिन और प्रतिघड़ी चल रहे हैं। पृथ्वी से स्वर्ग तक और दुःख से आत्मा तक धर्म के मार्ग द्वारा ही उठा जा सकता है। अपने शारीरिक अस्तित्व की दृष्टि से भी हम धर्म का आचरण करते हुए सुरक्षा की स्थिति तक पहुँच सकते हैं, जहाँ पहुँचकर प्रत्येक कठिनाई का अन्त आनन्द में होता है। यह संसार धर्मक्षेत्र है, सन्तों के पनपने की भूमि, यहाँ आत्मा की पवित्र ज्वाला कभी बुझने नहीं पाई है। इसे कर्मभूमि भी कहा जाता है। हम इसमें अपना कार्य करते हैं और आत्मा के निर्माण के प्रयोजन को पूरा करते हैं। गीता का उद्देश्य किसी सिद्धान्त की शिक्षा देना उतना नहीं है जितना कि धर्म के आचरण की पे्ररणा देना। जो वस्तु जीवन में पृथक् नहीं की जा सकती, उसे हम सिद्धान्त में भी पृथक् नहीं कर सकते। नागरिक और सामाजिक जीवन के कर्तव्यों में धर्म का, उसके कार्यां और सुअवसरों समेत, विधान किया गया है। जो भी वस्तु भौतिक समृद्धि और आत्मिक स्वतन्त्रता को बढ़ाती है, वह धर्म है।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आहारनिद्राभ्य मैथुनं, च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।
    धर्मो हि तेषमधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥ -हितोपदेश

  2. प्रणिनां साक्षाद्भ्युदयनिः श्रेयसहेतुर्यः स धर्मः।

संबंधित लेख

भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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