भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 61

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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13.वास्तविक लक्ष्य

जो भी कोई इस लोकातीत दशा को प्राप्त कर लेता है, वह योगी, सिद्धपुरुष, जितात्मा, युक्तचेता, एक अनुशासित और लयबद्ध प्राणी बन जाता है, जिसके लिए सनातन सदा वर्तमान रहता है। वह विभक्त निष्ठाओं और कर्मां से मुक्त हो जाता है। उसके शरीर, मन और आत्मा, फ्रायड के शब्दों में चेतन, पूर्वचेतन और अचेतन, निर्दोष रूप से साथ मिलकर कार्य करते हैं और एक ऐसी लय को प्राप्त कर लेते हैं,जो आनन्द की भावसमाधि में, ज्ञान के आलोक में और ऊर्जा की प्रबलता में अभिव्यक्त होती है। मुक्ति अमर आत्मा का मर्त्य मानवीय जीवन से पृथक्करण नहीं, अपितु सम्पूर्ण मनुष्य का रूपान्तरण है। यह मानवीय जीवन के तनाव को नष्ट करके प्राप्त नहीं की जाती, अपितु उसे रूपान्तरित करके प्राप्त की जाती है। उसकी सम्पूर्ण प्रकृति सार्वभौम के दर्शन के प्रति विनत हो जाती है और विचित्र आभा से भर उठती है और आध्यात्मिक प्रकाश से दमकने लगती है।
उसके शरीर, प्राण और मन लीन नहीं हो जाते, अपितु वे शुद्ध हो जाते हैं और दिव्य प्रकाश के साधन और सांचे बन जाते हैं और वह स्वयं अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति बन जाता है। उसका व्यक्तित्व अपनी पूर्णता तक, अपनी अधिकतम अभिव्यक्ति तक ऊपर उठ जाता है; और शुद्ध और मुक्त, प्रफुल्ल और भारमुक्त हो जाता है। उसकी सब गतिविधियां संसार को संगठित रखने के लिये होती है, चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्।[1] मुक्त आत्मांए सारे संसार के उद्धार का भार अपने ऊपर ले लेती हैं।
आत्मा की गतिकता का और इसके सदा नये-नये विरोधों का अन्त संसार का अन्त होने पर ही हो सकता है। द्वन्द्वात्मक विकास तब तक नहीं रुक सकता, जब तक कि सारा संसार अज्ञान और बुराई से मुक्त न हो जाए। सांख्य -मत के अनुसार वे लोग भी, जो कि उच्चतम ज्ञान और मुक्ति के अधिकारी हैं, दूसरों का कल्याण करने के विचार से इस संसार का परित्याग नहीं करते। अपने- आप को प्रकृति के शरीर में लीन करके और उसके उपहारों का उपयोग करते हुए वे प्रकृतिलीन आत्माएं संसार के हित का साधन करती है।
संसार को अपने आदर्श की ओर आगे बढ़ना है, और जो लोग अज्ञान और मूढ़ता में खोए हुए हैं, उनका उद्धार मुक्त आत्ताओं के प्रयत्न और दृष्टान्त, ज्ञान और बल द्वारा होना है।’ ये चुने हुए लोग मानव-जाति के स्वाभाविक नेता हैं। हमारे आध्यात्मिक अस्तित्व के कालहीन आधार में लंगर जमाकर मुक्त आत्मा (सनातन व्यक्ति) जीव-लोक के लिए कर्म करता है।[2] शरीर, प्राण और मन की व्यष्टि को धारण करते हुए भी वह आत्मा की सार्वभौमिकता को बनाए रखता है। वह जो भी कर्म करता है, उससे उसका भगवान् के साथ निरन्तर संयोग अविचलित रहता है।[3] जब विश्व की यह प्रक्रिया अपनी पूर्णता तक पहुँच जाती है, जब सारे संसार का उद्धार हो चुकता है, तब क्या होता है, इस विषय में कुछ कह पाना हमारे लिये कठिन है। हो सकता है कि तब भगवान् जो असीम सम्भावना है, अपनी अभिव्यक्ति के लिए किसी अन्य सम्भावना को शुरू कर दे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 4,34
  2. 15,7
  3. 6,31

संबंधित लेख

भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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