भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 56

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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12.कर्ममार्ग

सारा ज्ञान, सारा प्रयत्न परम ज्ञान को, उस अन्तिम सरलता को प्राप्त करने का साधन है। प्रत्येक कर्म या उपलब्धि इस अस्तित्वमान् होने के कर्म की अपेक्षा कम है। सारा कर्म संदोष है।[1]शकराचार्य ने इस बात को स्वीकार किया है कि ज्ञान की प्राप्ति के बाद भी मृत्युपर्यन्त कार्य करते रहने में कोई ऐतराज़ की बात नहीं है।[2] इस प्रकार के व्यक्ति को केवल सैद्धान्तिक दृष्टि से सब कर्त्तव्यों से ऊपर कहा जाता है।[3] इसका अर्थ है कि सिद्धान्ततः आध्यात्मिक स्वतन्त्रता और व्यावहारिक कार्य के बीच कोई विरोध नहीं है।
यद्यपि अगर ठीक-ठीक कहा जाए, तो ज्ञानी ऋषि को करने के लिए कुछ बाक़ी नहीं बचता, ठीक वैसे ही, जैसे परमात्मा को करने के लिए कुछ बाक़ी नहीं है, फिर भी ज्ञानी ऋषि और परमात्मा दोनों ही के निर्वाह और प्रगति , लोकसंग्रह, के लिए कार्य करते हैं। हम यह भी कह सकते है, कि कार्य करने वाला परमात्मा है, क्योंकि व्यक्ति तो अपनी सब इच्छाओं से अपने-आप को ख़ाली कर चुका है।[4] वह कुद नहीं करता न किंचित् करोति। क्योंकि उसका कोई बाह्म प्रयोजन नहीं होता, इसलिए वह किसी वस्तु पर दावा नहीं करता और अपने-आप को स्वतःप्रवृत्ति के सम्मुख समर्पित कर देता है। परमात्मा उसके द्वारा कार्य करता है और यद्यपि इस प्रकार के व्यक्ति के लिए कोई भी पाप कर पाना असम्भव है, फिर भी उसके बारे में पाप और पुण्य का प्रश्न ही नहीं उठता।[5] आत्म की शान्ति में स्थिर होकर वह सब कर्मों का करने वाला, कृत्स्नकर्मकृत्, बन जाता है। उसे ज्ञात रहता है कि वह परमात्मा के कार्य का केवल साधन-मात्र है, निमित्तमात्रम्।[6]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. न्यायसूत्र, 1, 1, 18
  2. ब्रह्मसूत्र पर शांकरभाष्य, 3, 3, 32; भगवद्गीता पर शंकराचार्य की टीका, 2, 11; 3, 8 और 20। जिन लोगों को यह भय लगा रहता है कि उनका ध्यान भगवान् के चिन्तन से विचलित होकर इधन-उधर न चला जाए, वे स्वभावतः बाह्म कर्मों को करने से हिचकते हैं।
  3. अलंकारों ह्ममस्माकं यद्ब्रह्मात्मावगतौ सत्यां सर्वकर्तव्यताहानिः। ब्रह्मसूत्र पर शांकरभाष्य 1, 1, 4
  4. जैमिनीय उपनिषद्ः तू (परमात्मा) उसका करने वाला हैः त्वं बै तस्य् कर्तासि। “हमारे अन्दर ईसा का मन है।” (कोरिन्थियिन्स 2, 16); “अब मैं जीवित नहीं हूँ, परन्तु मेरे रूप में ईसा जी रहा है।” (गैलेशियन्स 2, 20)। टॉलरः “अपने कार्यो द्वारा वे फिर नहीं जा सकते...यदि किसी व्यक्ति को परमात्मा के पास आना हो, तो उसे अपने-आप को सब कर्मों से रिक्त करना होगा।
    अकेले परमात्मा को कर्म करने देना होगा।” फ़ालोइंग आफ़ क्राइस्ट, 16, 17 सेण्ट टॉमस ऐक्वाइनासः “जिस मनुष्य का नेतृत्व पवित्र आत्मा कर रही है; उसके कार्य उसके अपने न होकर पवित्र आत्मा के कार्य हैं।”--सम्मा थियोलोजिया, 2, 1, 93-6 और 1।
  5. सेण्ट जॉन के इन शब्दों से तुलना कीजिएः “जो भी कोई परमात्मा से उत्पन्न हुआ है, वह पाप नहीं करता।”
  6. 11, 33

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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