भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
12.कर्ममार्ग
शंकराचार्य, जो मुक्ति प्राप्त करने के लिए ज्ञान मार्ग का समर्थन करता है, यह युक्ति प्रस्तुत करता है कि अर्जुन मध्यमाधिकारी व्यक्ति था, जिसके लिए संन्यास ख़तरनाक होता; इसलिए उसे कर्ममार्ग को अपनाने का उपदेश दिया गया। परन्तु गीता भागवत धर्म द्वारा विकसित किए गए दृष्टिकोण को अपनाती है, जिसमें हमें पूर्ण मुक्ति प्राप्त करने और इस संसार में कार्य करते रहने में सहायता देने के लिए दुहरा प्रयोजन विद्यमान है।[1] दो स्थानों पर व्यास ने शुकदेव से कहा है कि ब्राह्मण के लिए सबसे पुरानी पद्धति ज्ञान द्वारा मुक्ति प्राप्त करने और कर्म करते रहने की है।[2] ईशोपनिषद् में भी इसी प्रकार का दृष्टिकोण अपनाया गया है। यह मान लेना ग़लत है कि हिन्दू विचार धारा में अप्राप्य को प्राप्त करने पर अत्यधिक बल दिया गया था और उसमें यह दोष था कि वह संसार की समस्याओं के प्रति निरपेक्ष रही। जब ग़रीब लोग हमारे दरवाजे़ पर नंगे और भूखे मर रहे हों, उस समय हम आन्तरिक धर्मनिष्ठा में लीन नहीं हो सकते। गीता हमसे कहती है कि हम इस संसार में रहें और इसकी रक्षा करें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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नारायणपुरो धर्मः पुनरावृत्तिदुर्लभः। प्रवृत्तिलक्षणश्चैव धर्मो नारायणात्मकः॥
- ↑
एषा पूर्वतरा वृत्ति ब्राह्मणस्य विधीयते। ज्ञानवानेव कर्माणि कुर्वन् सर्वत्र सिद्ध्यति॥
- ↑ 4, 17
- ↑ अर्जुन कहता हैःअसक्तः सक्तवद् गच्छन् निस्संगों मुक्तबन्धनः। समः शत्रौ च मित्रे च स वै मुक्तो महीपते॥ --महाभारत, 12, 18, 31
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