भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 52

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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12.कर्ममार्ग

शंकराचार्य, जो मुक्ति प्राप्त करने के लिए ज्ञान मार्ग का समर्थन करता है, यह युक्ति प्रस्तुत करता है कि अर्जुन मध्यमाधिकारी व्यक्ति था, जिसके लिए संन्यास ख़तरनाक होता; इसलिए उसे कर्ममार्ग को अपनाने का उपदेश दिया गया। परन्तु गीता भागवत धर्म द्वारा विकसित किए गए दृष्टिकोण को अपनाती है, जिसमें हमें पूर्ण मुक्ति प्राप्त करने और इस संसार में कार्य करते रहने में सहायता देने के लिए दुहरा प्रयोजन विद्यमान है।[1] दो स्थानों पर व्यास ने शुकदेव से कहा है कि ब्राह्मण के लिए सबसे पुरानी पद्धति ज्ञान द्वारा मुक्ति प्राप्त करने और कर्म करते रहने की है।[2] ईशोपनिषद् में भी इसी प्रकार का दृष्टिकोण अपनाया गया है। यह मान लेना ग़लत है कि हिन्दू विचार धारा में अप्राप्य को प्राप्त करने पर अत्यधिक बल दिया गया था और उसमें यह दोष था कि वह संसार की समस्याओं के प्रति निरपेक्ष रही। जब ग़रीब लोग हमारे दरवाजे़ पर नंगे और भूखे मर रहे हों, उस समय हम आन्तरिक धर्मनिष्ठा में लीन नहीं हो सकते। गीता हमसे कहती है कि हम इस संसार में रहें और इसकी रक्षा करें।
गीता का गुरु कर्म की समस्या की आत्यधिक सूक्ष्मता की ओर संकेत करता है, गहना कर्मणो गतिः।[3] हमारे लिए कर्म से बचे रह सकना सम्भव नहीं है प्रकृति सदा अपना काम करती रहती है और यदि हम यह सोचें कि इसकी प्रक्रिया को रोका जा सकता है, तो हम भ्रम में हैं। कर्म को त्याग देना वांछनीय भी नहीं है। जड़ता स्वतन्त्रता नहीं है। फिर, किसी कर्म का बन्धन का गुण केवल उस कर्म को कर देने-भर में ही निहित नहीं है, अपितु स प्रयोजन या। इच्छा में निहित है, जिससे प्रेरित होकर कर्म किया जाता है। संन्यास का मतलब स्वयं कर्म को त्याग देने से नहीं है, अपितु उस कर्म के पीछे विद्यमान मानसिक ढांचे को बदल देने से है। संन्यास का अर्थ है--इच्छा का अभाव। जब तक कर्म मिथ्या आधारों पर आधारित है, तब तक वह व्यक्तिक आत्मा को बन्धन में डालता है। यदि हमारा जीवन अज्ञान पर आधारित है, तो भले ही हमारा आचरण कितना ही परोपकार वादी क्यों न हो, वह बन्धन में डालने वाला होगा। गीता इच्छाओं से विरक्त होने का उपदेश देती है, कर्म को त्याग देने का नहीं।[4] जब कृष्ण अर्जुन को यद्ध लड़ने का परामर्श देता है, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वह युद्ध की वैधता का समर्थन कर रहा है। युद्ध तो एक ऐसा अवसर आ पड़ा है, जिसका उपयोग गुरु उस भावना की ओर संकेत करने के लिए करता है, जिस भावना के साथ सब कार्य, जिनमें युद्ध भी सम्मिलित है, किए जाने चाहिए।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. नारायणपुरो धर्मः पुनरावृत्तिदुर्लभः। प्रवृत्तिलक्षणश्चैव धर्मो नारायणात्मकः॥

    -महाभारत, शान्तिपर्व, 347, 80, 81। फिर, प्रवृत्तिलक्षणं धर्मम् ऋषिर्नारायणोऽब्रवीत्। वही, 217, 2
  2. एषा पूर्वतरा वृत्ति ब्राह्मणस्य विधीयते। ज्ञानवानेव कर्माणि कुर्वन् सर्वत्र सिद्ध्यति॥

    -महाभारत शान्तिपर्व, 237, 1; 234, 29 साथ ही देखिए, ईशोपनिषद्, 2 और विष्णुपुराण, 6, 6, 12
  3. 4, 17
  4. अर्जुन कहता हैःअसक्तः सक्तवद् गच्छन् निस्संगों मुक्तबन्धनः। समः शत्रौ च मित्रे च स वै मुक्तो महीपते॥ --महाभारत, 12, 18, 31

संबंधित लेख

भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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