|
7.व्यक्तिक आत्मा
न तो प्रकृति और न समाज ही हमारे आन्तरिक अस्तित्व पर हमारी अनुमति के बिना आक्रमण कर सकता है। मानव-प्राणियों के सम्बन्ध में तो परमात्मा भी एक विलक्षण सुकुमारता के साथ कार्य करता है। वह मनाकर हमारी स्वीकृति प्राप्त करता है, परन्तु कभी हमें विवश नहीं करता। मानवीय व्यक्तियों की अपनी-अपनी अलग पृथक सत्ताएं हैं, जो उनके विकास में परमात्मा के हस्तक्षेप को सीमित रहती हैं। संसार एक यान्त्रिक ढंग से किसी पहले से व्यवस्थित योजना को पूरा नहीं कर रहा। सृष्टि का उद्देश्य ऐसे आत्मों को उत्पन्न करना है, जो स्वेच्छा से परमात्मा की इच्छा को पूरा कर सकें।
हमसे अपने मनोवेगों को नियन्त्रित करने के लिए, अपने चित-विक्षेप और परिभ्रन्तियों को हटा देने के लिए, प्रकृति की धारा से ऊपर उठने के लिए और बुद्धि के द्वारा अपने आचरण को नियमित करने के लिए कहा जाता है, क्योंकि अन्यथा हम उस लालसा के शिकार बन जाएगे, ‘जो लालसा कि पृथ्वी पर मनुष्य की शत्रु है।’[1] गीता में व्यक्ति की भले या बुरे का चुनाव कर सकने की स्वाधीनता पर और उस ढंग पर, जिससे कि वह इस स्वतन्त्रता का प्रयोग करना है, ज़ोर दिया गया है। मनुष्य के संघर्षो को, उसकी विफलता और आत्म-अभियोजन (दोषारोपण) की भावना को मर्त्य मन की त्रुटि कहकर या द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया का दौर-मात्र कहकर नहीं टाल देना चाहिए। ऐसा करना जीवन की नैतिक आवश्यकता को अस्वीकार करना होगा। जब अर्जुन सनातन (भगवान) की उपस्थिति में अपनी आतंक और भय की भावना को प्रकट करता है, जब वह क्षमा के लिए प्रार्थना करता है, तो वह कोई अभिनय नहीं कर रहा, अपितु एक संकट की दशा में से गुज़र रहा है।
प्रकृति निरपेक्ष रूप से सब बातों का निर्धारण नहीं कर देती है। कर्म एक दशा है, भवितव्यता नहीं। यह किसी भी काम के पूरा होने के लिए आवश्यक पांच घटक तत्त्वों में से एक है। ये पांच घटक तत्त्व हैं—
- अधिष्ठान अर्थात वह आधार या केन्द्र, जिस पर हम कार्य करते है;
- कर्ता अर्थात करने वाला;
- करण अर्थात प्रकृति के साधक उपकरण;
- चेष्टा अर्थात प्रयत्न और
- दैव अर्थात् भाग्य।[2]
इनमें से अन्तिम मानवीय शक्ति से भिन्न शक्ति या शक्तियां हैं, विश्व का वह मूल तत्त्व, जो पीछे खड़ा रहकर कार्य का संशोधन करता रहता है और कर्म और कर्मफल के रूप में उसका फल देता रहता है।
हमें इन दो बातों में भेद करना चाहिए। एक तो वह अंश है जो प्रकृति की व्यवस्था में अनिवार्य है, जहाँ रोकथाम का कोई फल नहीं होता, और दूसरा वह अंश है, जिसमें प्रकृति को नियन्त्रित किया जा सकता है और उसे अपने प्रयोजन के अनुकूल ढाला जा सकता है। हमारे जीवन में ऐसी कई बातें हैं, जो ऐसी शक्तियों द्वारा निर्धारित कर दी गई हैं, जिस पर हमारा कोई बस नहीं है। हम इस बात का चुनाव नहीं कर सकते कि हम कैसे यह कब या कहाँ या जीवन की किस दशाओं में जन्म लें। पुनर्जन्म के सिद्धान्त के अनुसार, इन बातों का चुनाव भी स्वयं हमारे द्वारा ही किया जाता है। हमारे पूर्वजन्म के कर्मो द्वारा ही हमारे पूर्वजों, हमारी आनुवंशिकता और परिवेश का निर्धारण होता है। परन्तु जब हम इस जीवन के दृष्टिकोण से देखते हैं, तो हम कह सकते हैं कि हमारी राष्ट्रिकता, जाति, माता-पिता या सामाजिक हैसियत के सम्बन्ध में हमसे कोई परामर्श नहीं किया गया था। परन्तु इन मर्यादाओं के होते हुए भी हमें चुनाव की स्वतन्त्रता है।
|
|