भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 252

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-18
निष्कर्ष
संन्यास कर्म का ही नहीं, अपितु कर्म के फल का किया जाना चाहिए

   
66.सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥

सब कर्त्तव्यों को छोड़कर तू केवल मेरी शरण मे आ जा। तू दुःखी मत हो; मैं तुझे सब पापों (बुराइयों) से मुक्त कर दूंगा।हमें स्वेच्छापूवर्क उस परमात्मा के दबाव के प्रति आत्मसमर्पण कर देना चाहिए, हमें उसकी इच्छा के सम्मुख पूरी तरह झुक जाना चाहिए और उसके प्रेम में शरण लेनी चाहिए। यदि हम अपने छोटे-से आत्म में विश्वास को नष्ट कर दें और उसके स्थान पर परमात्मा में पूर्ण विश्वास जमा लें, तो वह परमात्मा हमारा उद्धार करेगा। परमात्मा हमसे पूर्ण आत्मसमर्पण चाहता है और उसके बदले में हमें आत्मा की वह शक्ति प्रदान करता है, जो प्रत्येक परिस्थिति को बदल देती है।अर्जुन विभिन्न कर्त्तव्यों के कारण- कर्मकाण्डीय और नैतिक कर्त्तव्यों के कारण- चिन्तित था। वह सोचता था कि युद्ध केपरिणामस्वरूप वर्णसंकरता उत्पन्न हो जाएगी, पितरों की उपेक्षा हो जाएगी और गुरुओं के प्रति आदर करने इत्यादि पवित्र कर्त्तव्यों का उल्लंघन हो जाएगा। कृष्ण उसे इन नियमों और प्रथाओं के विषय में चिन्ता न करने को कहता है और उसे केवल उसमें (कृष्ण में)विश्वास करने और उसकी इच्छा को सम्मुख सिर झुकाने को कहता है। यदि अर्जुन अपने जीवन, कर्म, अनुभूतियों और विचारों का पवित्रीकरण कर ले और अपने-आप को परमात्मा को समर्पित कर दे, तो परमात्मा जीवन के संघर्ष में उसका मार्गदर्शन करता रहेगा और अर्जुन को किसी बात से डरने की आवश्यकता नहीं है।

आत्मसमर्पण अपने-आप से ऊपर उठने का सरलतम उपाय है। ’’केवल वही व्यक्ति दिव्य प्रकाश का चिन्तन करने के उपयुक्त है, जो किसी वस्तु का दास नहीं है, यहाँ तक कि अपने सदृगुणों तक का भी दास नहीं है।’’ - राइजब्रौक।यदि हमें अपनी भवितव्यताओं को वास्तविक रूप देना हो, तो हमें भगवान् के सम्मुख नग्न और निश्छल रूप में खड़े होना चाहिए। हम कभी-कभी अपने-आप को ढांपने और सत्य को परमात्मा से छिपाने का व्यर्थ प्रयास करते हैं। गोपियां इसी ढंग से अपनी भवितव्यताआं को वास्तविक रूप देने में असफल रही थीं। हम परमात्मा की खोज तक नहीं करते, उसके स्पर्श की प्रतीक्षा करने की तो बात ही दूर की है। जब हम उसकी ओर अभिमुख हो जाते हैं और उसे अपने सम्पूर्ण अस्तित्व में रम जाने देते हैं, तब हमारी जिम्मेदारी समाप्त हो जाती है। तब वही हमसे काम करवाता है और हमें सब दुःखों के पार ले जाता है। यह उस भगवान् के प्रति निश्शेष आत्मसमर्पण है, जो हमें संभाल लेता है और हमें हमारी अधिकतम सम्भावित पूर्णता तक ऊपर उठाता जाता है। यद्यपि ईश्वर इस संसार को कुछ नियत नियमों के अनुसार चलाता है और हमसे आशा करता है कि हम अपने स्वभाव और जीवन में अपने स्थान पर आधारित उचित कर्मों के नियमों के अनुकूल काम करें, परन्तु यदि हम उसकी शरण में चले जाते हैं, तो हम इन सब नियमों से ऊपर उठ जाते हैं।

मनुष्य को कोई ऐसी सहायता प्राप्त होनी चाहिए, जो बाहरी सहायता प्रतीत होती हो, क्योंकि उसकी आत्मा अपने-आप को उस जाल में से नहीं छुड़ा सकती, जिसमें वह अपने ही प्रयत्न द्वारा बंधी हुई है। जब हम निश्शब्द रहकर परमात्मा की प्रतीक्षा करते हैं और केवल यह चाहते हैं कि वह हम पर अधिकार कर ले, तब वह सहायता आ पहुँचती है। तुलना कीजिए: ’’जो व्यक्ति स्वयं मेरे द्वारा बताए गए गुणों ओर दोषों की परवाह नहीं करता, जो सब कर्त्तव्यों को छोड़कर केवल मेरी सेवा करता है, वह सबसे श्रेष्ठ है।’’[1]इस रामानुज के अनुयायी इस श्लोक को चरम श्लोक अर्थात् सम्पूर्ण पुस्तक का अन्तिम श्लोक मानते हैं।

इस उपदेश का पालन करने का फल

67.इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योअभ्यसूयति॥

तू इसको किसी ऐसे व्यक्ति को मत बताना, जिसने जीवन में तप न किया हो, या जिसके अन्दर श्रद्धा न हो, या जो आज्ञाकारी न हो, या जो मेरी बुराई करता हो।इस सन्देश को समझने में केवल वे ही लोग समर्थ हैं, जो अनुशासित हैं, प्रेमपूर्ण हैं ओर जिनमें सेवा करने की इच्छा विद्यमान है; अन्य लोग, सम्भव है, इस सन्देश को सुनें और सुनकर इसका दुरुपयोग करें।

68.य इमं परमं गुह्यं मद्धक्तेष्वभिधास्यति।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः॥

जो इस परम रहस्य को मेरे भक्तों को सिखाता है और मेरे प्रति अधिकतम भक्ति दिखाता है, वह अवश्य ही मुझ तक पहुचेगा।जो लोग पहले दीक्षित हो चुके हैं, उनका यह कर्त्तव्य हो जाता है कि वे अपने अदीक्षित भाइयों को भी दीक्षित करें।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अज्ञात्वैवं गुणान् दोषान् मयादिष्टानपि स्वकान्। धर्मान् सन्त्यज्य यः सर्वान् भजेत् स किल सत्तमः॥
  2. असंस्कृतास्तु संस्कार्याः भ्रातृभिः पूर्वसंस्कृतैः। तुलना कीजिए: दर्जनः सज्जनो भूयात् सज्जनः शान्तिमाप्नुयात्। शान्तो मुच्येत बन्धेभ्यो मुक्तश्चान्यान् विमोचयेत्॥ दुष्ट मनुष्य सज्जन बन जाए; सज्जन को शान्ति प्राप्त हो; शान्त मनुष्य बन्धन से छूट जाए और मुक्त मनुष्य दूसरों को मुक्त कराए।

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3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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