भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
6.संसार की स्थिति और माया की धारणा
असत् क्यों है? पतन, या ‘परम सत्’ से अस्तित्वमान (नाम-स्वरूप) होने की स्थिति क्यों होती है? यह प्रश्न दूसरे शब्दों में यह पूछना है कि सत् और असत् के मध्य अविराम संघर्ष वाला यह संसार किस लिए बना है? परम सत् एक परमात्मा, संसार के पीछे भी है, परे भी और संसार में भी है। वह साथ ही सर्वोच्च सप्राण परमात्मा भी है, जो संसार से प्रेम करता है और अपनी दया द्वारा उसका उद्धार करता है। संसार अपने क्रमिक सोपान-तन्त्र के साथ जो कुछ है, उस रूप में यह क्यों है? हम केवल इतना कह सकते हैं कि अपने-आप को इस रूप में प्रकट करना भगवान का स्वभाव है। हम संसार के होने के कारण नहीं बतला सकते; हम केवल इसकी प्रकृति के विषय में बतला सकते हैं, जो अस्तित्वमान होने की प्रक्रिया में सत् और असत् के बीच चल रहे संघर्ष के रूप में है। विशुद्ध सत् संसार से ऊपर है और विशुद्ध असत् निम्नतम विद्यमान वस्तु से भी नीचे है। यदि हम उससे भी नीचे जाएं, तो हम शून्य तक पहुँच जाएंगे, जो बिलकुल परम अनस्तित्व है। सच्चे अस्तित्वमान जगत, संसार, में हमें सत् और असत् के दो मूल तत्त्वों के बीच संघर्ष दिखाई पड़ता है।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ शंकराचार्य का कथन है कि “वे नाम और रूप, जिन्हें आत्मा की प्रकृति के अज्ञान के फलस्वरूप परमेश्वर में विद्यमान समझा जाता है और जिनके विषय में यह कह पाना सम्भव नहीं है कि वे भगवान से भिन्न हैं या अभिन्न, श्रुति और स्मृति ग्रन्थों में सर्वत्र परमेश्वर की माया, शक्ति और प्रकृति कहे गये हैं।” ब्रह्मसूत्र पर शंकर भाष्य, 2, 1, 14
- ↑ 4, 61 “भगवान ने अपनी योग की शक्ति का प्रयोग करके लीला करने की इच्छा की।” भगवान अपि रन्तुं मनश्चक्रे योगमायाम् उपाश्रितः। भागवत 10, 29, 1 दिव्य गति विधि किसी अपने प्रयोजन को सामने रखकर प्रारम्भ नहीं की गई, क्योंकि परमात्मा तो नित्यतृप्त है। यह अनासक्ति का तत्त्व लीला शब्द के प्रयोग द्वारा स्पष्ट किया गया है। लोकवत्तु लीलाकैवल्यम्। ब्रह्मसूत्र, 2, 1, 33। राधा उपनिषद में कहा गया है कि वह एक परमात्मा संसार की विविध गतिविधियों में सदा क्रीड़ा करता रहता है। एको देवो नित्यलीलानुरक्तः। 4, 3
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज