भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
अध्याय-18
निष्कर्ष परन्तु जो कर्म फल की प्राप्ति की इच्छा रखने वाले व्यक्ति द्वारा बडे़ परिश्रमपूर्वक या अहंकार की भावना से प्रेरित होकर किया जाता है, वह राजसिक ढंग का कर्म कहलाता है। बहुलायासम्: बहुत परिश्रम के साथ। कष्ट की अनुभूति, यह भावना कि हम कुछ अप्रिय कार्य कर रहे हैं और यह कि हमें बड़े कष्ट और परिश्रम में से गुजरना पड़ रहा है, कर्म के मूल्य को समाप्त कर देती है। चेतनापूर्वक यह अनुभव करना कि हम कोई बड़ा काम कर रहे हैं, हम कोइ महत्त्वपूर्ण बलिदान कर रहे हैं, स्वयं बलिदान की विफलता है। परन्तु जब कोई काम किसी आदर्श के लिए किया जाता है, तब वह प्रेमपूर्वक किया जा रहा श्रम होता है और उस दशा में बलिदान भी बलिदान के रूप में अनुभव नहीं होता। किसी अप्रिय कार्य को कर्त्तव्य की भावना से, सारे समय पूर्णतया आत्मचेतना-रहित होकर प्रसन्नतापूर्वक मुस्कराते हुए करना, जैसे कि सुकरात ने हलाहल पिया था, सात्त्विक ढंग का कर्म है। प्रेम द्वारा किए जाने वाले कर्म और कानून द्वारा किए जाने वाले कर्म में, करुणा द्वारा किए जाने वाले कर्म और दायित्व (विवशता) के कारण किए जाने वाले कर्म में यही अन्तर है। 25.अनुबन्धं क्षयं हिसामनवेक्ष्य च पौरुषम्। जो कर्म अज्ञान के कारण हानि या हिंसा का विचार किए बिना और अपनी मानवीय क्षमता का विचार किए बिना किया जाता है, वह तामसिक कर्म कहलाता है। कर्मों के अन्य लोगों पर होने वाले परिणामों का भी सदा विचार कर लिया जाना चाहिए; केवल स्वार्थपूर्ण उद्देश्यों का त्याग कर दिया जाना चाहिए। 26.मुक्तसंगअनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः। जो कर्ता आसक्ति से रहित है, जो अहंकारपूर्ण बातें नहीं करता, जो धैर्य और उत्साह से युक्त है और जो सफलता और विफलता द्वारा विचलित नहीं होता, वह सात्त्विक ढंग का कर्ता कहा जाता है। 27.रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोअशुचिः। जो कर्ता राग (आवेश) से प्रेरित होता है, जो अपने कर्मों का फल पाने के लिए उत्सुक रहता है, जो लोभी होता है, जिसका स्वभाव हिंसापूर्ण होता है, जो अपवित्र होता है, जो आनन्द और शोक के कारण विचलित हो जाता है, वह कर्ता राजसिक कहलाता है। 28.अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोअलसः। जो कर्ता असन्तुलित, असंस्कृत, हठी, धोखेबाज, द्वेषी, आलसी, दुःखी और काम को टालता जाने वाला होता है, वह तामसिक कहलाता है।प्राकृतः ’बौद्धिक दृष्टि से बिलकुल असंस्कृत और बच्चे की तरह ।’ - शंकराचार्य। 29.बुद्धेर्भेदं धृतश्चैव गुणतस्त्रिविधं श्रृणु। (29) हे धन को जीतने वाले (अर्जुन), अब तू गुणों के अनुसार बुद्धि और धृति (धैर्य या धारणा करने की शक्ति) के तीन भेदों को सुन, जिन्हें मैं पूर्णतया और पृथक्-पृथक् करके बताता हूँ। 30.प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये। जो बुद्धि कर्म और अकर्म को समझती है; जो करने योग्य कार्य और न करने योग्य कार्य को समझती है; जो इस बात को समझती है कि किससे डरना चाहिए और किससे नही चाहिए, क्या वस्तु आत्मा को बन्धन में डालती है और क्या वस्तु मुक्त करती है; हे पार्थ (अर्जुन), वह बुद्धि सात्त्विक होती है।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज