भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 24

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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6.संसार की स्थिति और माया की धारणा

आत्मा सब द्वैतों से ऊपर रहती है; परन्तु जब उसे विश्व के दृष्टिकोण से देखा जाता है, तो वह अनुभवातीत विषय-वस्तु के सम्मुख खड़े अनुभवातीत कर्ता के रूप में बदल जाती है। कर्ता और विषय-वस्तु एक ही वास्तविकता के दो ध्रुव हैं। वे परस्पर असम्बद्ध नहीं हैं। वस्तु-रूपात्मकता का मूल तत्त्व, मूल प्रकृति, जो सम्पूर्ण अस्तित्व की अव्यक्त सम्भावना है, ठीक उसी प्रकार की वस्तु है, जिस प्रकार की वस्तु सृजनात्मक शब्द ब्रह्म, ईश्वर है। सनातन ‘अहं’ अर्धसनातन ‘नाहं’ के सम्मुख रहता है, नारायण जल में ध्यानमग्न रहता है क्योंकि ‘नाहं’, प्रकृति, आत्मा का एक प्रतिबिम्ब-मात्र है, इसलिए यह आत्मा के अधीन है। जब परब्रह्म में निषेधात्मकता का तत्त्व आ घुसता है, तब उसकी आन्तरिकता अस्तित्व (नाम-रूप) धारण की प्रक्रिया में प्रकट होने लगती है। मूल एकता विश्व की सम्पूर्ण गतिविधि से गर्भित हो उठती है।
विश्व की प्रक्रिया सत् और असत् के दो मूल तत्त्वों की पारस्परिक क्रिया है। परमात्मा ऊपरी सीमा है, जिसमें असत् का न्यूनतम प्रभाव है और जिसका असत् पर पूर्ण नियन्त्रण है, और भौतिक तत्त्व या प्रकृति निचली सीमा है, जिस पर सत् का प्रभाव न्यूनतम है। विश्व की सारी प्रक्रिया सर्वोच्च परमात्मा की प्रकृति पर क्रिया है। प्रकृति की कल्पना एक सकारात्मक सत्ता के रूप में की गई है, क्योंकि इसमें प्रतिरोध करने की शक्ति है। प्रतिरोधक रूप में यह बुरी है। केवल परमात्मा में पहुँचकर यह पूरी तरह से छिन्न और परास्त हो पाती है। शेष सारी सृष्टि में यह कुछ कम या अधिक रूप में प्रकाश पर आवरण डालने वाली शक्ति है।
गीता आधिविद्यक द्वैतवाद का समर्थन नहीं करती, क्योंकि असत् का मूल तत्त्व सत् पर निर्भर है। भगवान् के दर्शन के लिए असत् वास्तविकता में एक आवश्यक महत्त्वपूर्ण वस्तु है। संसार जो कुछ है, उसका कारण तनाव है। काल और परिवर्तन का संसार पूर्णता तक पहुଁचने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील है। असत्, जो सब अपूर्णताओं के लिए ज़िम्मेदार है, संसार में एक आवश्यक तत्त्व है, क्योंकि यही वह सामग्री है, जिसमें परमात्मा के विचार मूर्त होते हैं।[1]दिव्य रूप (पुरुष) और भौतिक तत्त्व (प्रकृति) एक ही आध्यात्मिक समस्त के अंग हैं। जब सारा संसार बन्धन से मुक्त हो जाता है, जब यह निर्दोषता की स्थिति तक ऊँचा उठ जाता है, जब यह पूर्णतया आलोकित हो जाता है, तब भगवान का प्रयोजन पूरा हो जाता है और संसार फिर अपनी मूल विशुद्ध सत् अवस्था में पहुँच जाता है, जो सब विभेदों से ऊपर है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. प्रॉक्लस से तुलना कीजिए, जो भौतिक तत्त्व को ‘परमात्मा के शिशु’ के रूप में मानता है, जिसे अवश्य ही आत्मा में रूपान्तरित किया जाना है।

संबंधित लेख

भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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