भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
अध्याय-10
परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है अश्वों में तू मुझे उच्चैःश्रवा समझ, जो अमृत से उत्पन्न हुआ था; श्रेष्ठ हाथियों में मैं ऐरावत (इन्द्र का हाथी) हूँ और मनुष्यों में मैं राजा हूँ। 28.आयुधानामहं बज्रं धेनूनामस्मि कामधुक्। शस्त्रों में ब्रज हूं; गौओं में मैं कामधेनु हूं; सन्तानों को उत्पन्न करने वालों में मैं कामदेव हूँ और सर्पों मे मैं वासुकि हूँ। 29.अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्। नागों में मैं अनन्त (शेषनाग) हूं; जलचरों में मैं वरुण हूं; (दिवंगत) पूर्वजों में (पितरों में) मैं अर्यमा हूं; नियम और व्यवस्था का पालन करने वालों में मैं यम हूँ। 30.प्रहृादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम्। दैत्यों में मैं प्रह्लाद हूं; गणना करने वालों में मैं काल हूं; पशुओं में मैं पशुराज सिंह हूँ और पक्षियों में मैं विनता का पुत्र (गरुड़) हूँ। 31.पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम्। पवित्र करने वालों में मैं वायु हूं; शस्त्रधारियों में मैं राम हूं; मच्छों में मैं मगरमच्छ हूँ और नदियों में मैं गंगा हू। 32.सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन। हे अर्जुन, मैं सब सिरजी गई वस्तुओं का (सृष्टियों का) आदि, अन्त और मध्य हूं; विद्याओं में मैं अध्यात्मविद्या हूं; वाद-विवाद करने वालों का मैं तर्क हूँ। अध्यात्मविद्या विद्यानाम्: विद्याओं में मैं आत्मा की विद्या हूँ। आध्यात्मविद्या भगवान् के परम आनन्द को पाने का मार्ग है। यह कोई बौद्धिक अभ्यास या सामाजिक अभियान नहीं है। यह उद्धार करने वाले ज्ञान का मार्ग है और इसलिए इसकी साधना गम्भीर धार्मिक निष्ठा के साथ करनी होती है। आत्मा के विज्ञान के रूप में दर्शन हमें उस अज्ञान के ऊपर विजय पाने में सहायता देता है, जो हमसे ब्रह्म के स्वरूप को छिपाए हुए है। प्लेटो के मतानुसार, यह सार्वभौम विद्या है। इसके अभाव में विभागीय विद्याएं भ्रामक बन जाती हैं। प्लेटो लिखता है: ’’कुल मिलाकर विद्याओं का ज्ञान, यदि उसमें सर्वोत्तम विद्या सम्मिलित न हो, कुछ मामलों में जानने वाले की सहायता करेगा, परन्तु अधिकांश मामलों में जानने वाले को हानि ही अधिक होगी। ’’ ऐल्सीबियेड्स, 2, 144 डी।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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