भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 196

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-10
परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है
परमात्मा की अन्तर्यामिता और लोकातीतता

   

श्रीभगवानुवाच

19.हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे॥

श्री भगवान् ने कहा: हे कुरुओं में श्रेष्ठ (अर्जुन), मैं तुझे अपने दिव्य रूप बतलाऊंगा। मैं केवल प्रमुख-प्रमुख रूप बताऊंगा, क्योंकि मेरे विस्तार का तो कहीं कोई अन्त ही नहीं है (विस्तार से बताने लगूं, तो उसका अन्त ही न होगा)।

20.अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च॥

हे गुडाकेश (अर्जुन), मैं सब प्राणियों के हृदय में बैठा हुआ आत्मा हूँ। मैं सब भूतों (वस्तुओं या प्राणियों) का प्रारम्भ, मध्य और अन्त हू। यह संसार एक सजीव समूची वस्तु है, एक विशाल परस्परसम्बद्धता, एक ब्रह्माण्डीय समस्वरता, जिसे परमात्मा ने बनाया है और उसे संभाले हुए है।

21.आदित्यानामहं विष्णुज्र्योतिषां रविरंशुमान्।
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामंह शशी॥

आदित्यों में मैं विष्णु हू; प्रकाशों में (ज्योतियों में) मैं दमकता हुआ सूर्य हूं; मरुतों में मैं मरीचि हूं; नक्षत्रों में मैं चन्द्रमा हूँ।आदित्य वैदिक देवता हैं। भगवान् सब वस्तुओं मे है, परन्तु सब वस्तुओं में वह अन्य वस्तुओं की अपेक्षा अधिक स्पष्ट है। संसार में एक आरोही क्रम है। परमात्मा भौतिक तत्त्व की अपेक्षा जीवन में, जीवन की अपेक्षा चेतना में अधिक व्यक्त होता है और सन्तों और ऋषियों में सबसे अधिक व्यक्त होता है। इसी व्यवस्था के अनुसार, वह विशेष महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों में सबसे अधिक प्रकट होता है। गीता के समय में इन पौरागिणक व्यक्तियों में से कुछ हिन्दुओं के लिए शायद जीती-जागती वास्तविकताएं रहे होंगे।

22.वेदानां सामवेदोअस्मि देवानामस्मि वासवः।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना॥

वेदों में मैं सामवेद हूं; देवताओं में मैं इन्द्र हूं; इन्द्रियों में मैं मन हूँ और प्राणियों में मैं चेतना हंू। सामवेद का उल्लेख उसके गान-सौन्दर्य के कारण मुख्य वेद के रूप में किया गया है।[1]

23.रुद्राणां शंकरश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्।
वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम्॥

रुद्रों में मैं शंकर (शिव) हूं; यक्षों और राक्षसों में मैं कुबेर हूं; वस्तुओं में मैं अग्नि हूं, और पर्वत-शिखरों में मैं मेरु हू।

24.पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्।
सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः॥

हे पार्थ (अर्जुन), मुझे तू पुरोहितों में मुख्य पुरोहित बृहस्पति समझ; (युद्ध के) सेनापतियों में मैं स्कन्द हूं; जलाशयों में मैं समुद्र हूँ।

25.महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः॥

(25) महान् ऋषियों में मैं भृगु हूं; वाणियों (वचन) में मैं एक अक्षर ’ओउम्’ हूं; यज्ञों में मैं जययज्ञ (मौन उपासना) हूँ और स्थावर (अचल) वस्तुओं में मैं हिमालय हू।

26.अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः।
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः॥

वृक्षों में मैं पीपल हूँ और दिव्य ऋषियों में मैं नारद हूं; मैं गन्धर्वों में चित्ररथ हूँ और सिद्ध ऋषियों में मैं नारद हूं; मैं गन्धर्वों में चित्ररथ हूँ और सिद्ध ऋषियों में कपिल मुनि हूँ। कपिल मुनि ने सांख्य-दर्शन की रचना की है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. समवेदों गानेन रमणीयत्वात्। - नीलकण्ड।

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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