भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 195

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-10
परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है
परमात्मा की अन्तर्यामिता और लोकातीतता

   
15.स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते॥

हे पुरुषोत्तम, सब प्राणियों के मूल, सब प्राणियों के स्वामी, देवताओं के देवता, सारे संसार के स्वामी, केवल तू ही अपने द्वारा अपने-आप की जानता है।

16.वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि॥

तू मुझे अपने उन सबके सब दिव्य प्रकट-रूपों को (विभूतियों को) बता, जिनके द्वारा तू इन सब लोकों को व्याप्त करके (उनमें और उनसे परे) निवास करता है। विभूतयः : प्रकट-रूप; वे दिव्य गौरवशाली रूप, जिनके द्वारा भगवान् सब लोकों को व्याप्त किए हुए हैं। वे निर्णात्मक शक्तियां या आत्मिक शक्तियां, जिनसे प्रत्येक वस्तु को उसका सारभूत स्वभाव प्राप्त होता है। वे प्लेटो के दिव्य विचारों, यहाँ इस संसार में सब वस्तुओं के पूर्णरूपों और आदर्शां, से मिलती-जुलती हैं। अन्तर केवल इतना है कि ’विचार’ शब्द से एक निर्जीव अमूर्तता, एक निष्प्राण श्रेणी ध्वनित होती है, जबकि विभूति एक सजीव निर्माणात्मक मूल तत्त्व है।

17.कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्।
कैषु केषु च भावेषु चिन्त्योअसि भगवन्मया॥

हे योगी, मैं निरन्तर ध्यान करता हुआ तुझे किस प्रकार जान सकता हूं? हे भगवान, मैं तुम्हारे किन-किन विविध रूपों में तुम्हारा ध्यान करंरू।कृष्ण स्रष्टा के रूप में अपने कर्म के कारण योगी है। अर्जुन प्रकृति के उन पहलुओं को जानना चाहता है, जिनमें कि ईश्वर की विद्यमानता अधिक स्पष्ट रूप से प्रकट है और वह कृष्ण से पूछता है कि वह किन रूपों में उसका विचार करे, जिससे कि उसे ध्यान करने में सहायता मिले।

18.विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन।
भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्॥

हे जनार्दन (कृष्ण), तू विस्तार से अपनी शक्तियों और विभूतियों का वर्णन कर; क्योंकि मैं तेरे अमृत-तुल्य वचनों को सुनकर अघा ही नहीं रहा हूँ। अमृतम् : अमृत जैसे। उसके शब्द जीवन देने वाले हैं। गीता ब्रह्म और जगत् के मध्य, वर्णनातीत वास्तविकता (ब्रह्म)और उसकी अपर्याप्त अभिव्यक्ति के मध्य विरोध नहीं बताती। यह एक सर्वागीण आध्यात्मिक दृष्टिकोण उपस्थित करती है। इसमें सन्देह नहीं कि यह अवर्णनीय (अनिर्देश्यम्) अव्यक्त और अपरिवर्तनीय (अव्यक्तम् अक्षरम्), अचिन्तनीय (अचिन्त्यरूपम्) और परम का उल्लेख करती है, जो सब अनुभवजन्य संकल्पों से परे है, परन्तु परब्रह्म की उपासना शरीरी प्राणियों के लिए कठिन है।[1]भगवान् तक संसार के साथ उसके सम्बन्धों द्वारा पहुँचना सरलतर है और यह पद्धति अधिक स्वाभाविक है। भगवान् वह व्यक्तिक ईश्वर है, जो प्रकृति की बहुपक्षीय क्रिया का नियन्त्रण करता है और प्रत्येक प्राणी के हृदय में निवास करता है। परब्रह्म परमेश्वर है मनुष्य में और विश्व में स्थित परमात्मा। किन्तु उसकी प्रकृति नाम-रूपमय जगत् की परम्परा द्वारा ढकी हुई है। मनुष्य को परमात्मा के साथ अपनी आत्मिक एकता और परमात्मा के बनाए सब प्राणियों के साथ अपनी एकता को खोज निकालना होगा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 12, 5

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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