भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 188

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-9
भगवान् अपनी सृष्टि से बड़ा है
सबसे बड़ा रहस्य

   
28.शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनै:।
संन्यास योगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि॥

इस प्रकार तू उन शुभ और अशुभ परिणामों से युक्त हो जाएगा, जो कि कर्म के बन्धन हैं अपने मन को कर्मों के त्याग के मार्ग में दृढ़तापूर्वक लगाकर तू मुक्त हो जाएगा और मुझे प्राप्त हो जाएगा। इस प्रकार के त्याग और पवित्रीकरण द्वारा आत्मा का सम्पूर्ण जीवन भगवान् की सेवा के लिए प्रदान कर दिया जाता है और जीव अपने बन्धनों से मुक्त हो जाता है और उसके कर्म फिर आत्मा को बन्धन में नहीं डालते।

29.समोअहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥

मैं सब प्राणियों में एक जैसा ही हूँ। मुझे न तो किसी से द्वेष है, न किसी से प्रेम। परन्तु जो भक्तिपूर्वक मेरी पूजा करते हैं, वे मेरे अन्दर, हैं और मैं भी उनके अन्दर हूँ।परमात्मा का कोई मित्र या शत्रु नहीं है। वह निष्पक्ष है। वह अपने मन की मौज से न तो किसी को निन्दनीय ठहराता है और न किसी को अपने लिए वरण करता है। उसके प्रेम को प्राप्त करने का एकमात्र मार्ग श्रद्धा और भक्ति का है और हर किसी को उस मार्ग पर स्वयं ही चलना होगा।

30.अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तत्त्वयः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥

यदि कोई बड़े से बड़ा दुराचारी व्यक्ति भी अनन्य भाव से मेरी पूजा करता है, तो उसे धर्मात्मा ही समझना चाहिए, क्योंकि उसने अच्छा निश्चय कर लिया है।’’अपने बाह्य जीवन में बुरे मार्गों के त्याग द्वारा और अपने आन्तरिक अच्छे संकल्प की शक्ति द्वारा।’’- शंकराचार्य। साथ ही तुलना कीजिए: ’’यदि वह पाप करने के बाद पश्चात्ताप करता है, तो पाप से मुक्त हो जाता है; यदि वह यह संकल्प करता है कि वह फिर कभी पाप नहीं करेगा, तो वह पवित्र हो जाता है। ’’[1] अतीत में किए गए कर्मों का पाप अनन्य चित्त की ओर अभिमुख हुए बिना नहीं धोया जा सकता। तुलना कीजिए, बौधायन धर्मसूत्र: ’’मनुष्य को चाहिए कि वह अपने किए दुष्कर्मों का चिन्तन करता हुआ और तप करता हुआ बिना प्रमाद किए मन में नित्य पश्चात्ताप करता रहे। इसके द्वारा वह पाप से मुक्त हो जाएगा।’’[2] कर्म पूरी तरह कभी बन्धन में नहीं डालता। पतन की निम्नतम गहराइयों में विद्यमान पापी में भी एक ज्योति रहती है, जिसे वह बुझा नहीं सकता, भले वह उसे बुझाने की कितनी ही कोशिश करे और उससे कितना ही विमुख क्यों न हो जाए। भले ही हम पतित हों, फिर भी परमात्मा हमें हमारे अस्तित्व के मूल द्वारा संभाले रहता है और वह सदा अपनी ज्योति की किरणें हमारे अन्धकारपूर्ण और विद्रोही हृदयों में भेजने को उद्यत रहता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कृत्वा पापं हि सन्तप्य तस्मात् पापात् प्रमुच्यते। नैव कुर्यां पुनरिति निवृत्या पूयते तु सः॥
  2. शोचेत मनसा नित्यं दुष्कृतान्यनुचिन्तयन्। तपस्वी चाप्रमादी च ततः पापात् प्रमुच्यते॥

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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