भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 187

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-9
भगवान् अपनी सृष्टि से बड़ा है
सबसे बड़ा रहस्य

   
24.अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते॥

मैं सब यज्ञों का उपभोग करने वाला और स्वामी हूँ। परन्तु ये लोग मुझे मेरे वास्तविक रूप में नहीं जानते, इसलिए वे नीचे गिरते हैं।

25.यान्ति देवव्रता देवान् पितृन्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्यजिनोऽपि माम्॥

देवताओं के पुजारी देवताओं को प्राप्त करते हैं, पितरों के पुजारी पितरों को प्राप्त करते हैं, भूतों के पुजारी भूतों को प्राप्त करते हैं, और जो मेरी पूजा करते हैं, वे मुझे प्राप्त करते हैं। विकास की विभिन्न अवस्थाओं में मनुष्यों द्वारा देदीप्यमान देवताओं की, मृतकों की आत्माओं की और मनोजगत् में विद्यमान आत्माओं की पूजा की जाती रही है। परन्तु ये सब भगवान् के सीमित रूप हैं और ये साधना में लगी आत्मा को वह शान्ति प्रदान नहीं कर सकते, जो कि बुद्धि से परे है। पूजा का परिणाम पूजित रूप के साथ घुल-मिल जाना होता है और इन सीमित रूपों का परिणाम सीमित ही होता है। कोई भी भक्ति अपना उच्चतम प्रतिफल देने में चूकती नहीं। निम्नतर वस्तु की भक्ति से निम्नतर प्रतिफल प्राप्त होता है, जबकि सर्वोच्च भगवान् की भक्ति का प्रतिफल सर्वोच्च होता है। सब सच्ची धार्मिक भक्तियों का लक्ष्य सर्वोच्च परमेश्वर की खोज ही है।

भक्ति और उसके परिणाम

26.पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः॥

जो कोई मुझे श्रद्धा के साथ पत्ती, फूल, फल या जल चढ़ाता है, उसके प्रेमपूर्वक और शुद्ध हृदय से दिए गए उस उपहार को मैं अवश्य स्वीकार करता हूँ। उपहार कितना ही तुच्छ क्यों न हो, यदि वह प्रेम और सच्चाई के साथ दिया जाता है, तो वह प्रभु को स्वीकार्य होता है। सर्वोच्च भगवान् तक पहुँचने का मार्ग सूक्ष्म अधिविद्या या जटिल कर्मकाण्ड का मार्ग नहीं है। यह तो केवल आत्मसमर्पण का मार्ग है, जिसका प्रतीक पत्ती, फूल, फल या जल का उपहार है। जिस वस्तु की आवश्यकता है, वह है भक्तिपूर्ण हृदय।

27.यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तये तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥

जो कुछ तू करता है, जो कुछ तू खाता है, जो कुछ तू यज्ञ करता है और जो कुछ तू दान देता है और जो कुछ तू तपस्या करता है, हे कुन्ती के पुत्र (अर्जुन), तू वह सब मुझे दिया जा रहा उपहार समझकर कर।आत्मसमर्पण का परिणाम सब कर्मों को परमात्मा के प्रति समर्पित कर देने के रूप में होता है। दैनिक जीवन के सामान्य कर्मां का प्रवाह ईश्वर की उपासना में से होकर बहना चाहिए। ईश्वर का प्रेम जीवन की कठोरताओं से बच भागने का मार्ग नहीं है, अपितु यह तो सेवा के लिए आत्मार्पण है। कर्ममार्ग, जो कि विहित विधि-विधानों को करने के कर्तव्य से शुरू होता है, इस स्थिति में पहुँचकर समाप्त होता है कि सब कर्म जब अनासक्ति और समर्पण की भावना से किए जाएं, तो वे पवित्र हो जाते हैं।’’मेरी अपनी आत्मा तू है; मेरी बुद्धि पार्वती (शिव की पत्नी) है; मेरे जीवन के कृत्य (प्राण) मेरे साथी हैं; शरीर मेरा घर है; इन्द्रियों के विषयों का विविध उपभोग मेरी पूजा है; निद्रा समाधि की दशा है; मेरे कदम मन्दिर की प्रदक्षिणा हैं और मेरे सब वचन प्रार्थनाएं हैं। हे महादेव, मैं जो कुछ भी कर्म करता हूं, उनमें से प्रत्येक तेरी ही पूजा है।’’[1] यदि आपको जो कुछ करना है, उसे आप समर्पण की भावना से करते हैं, तो वह परमात्मा की उपासना है; उसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आत्मा त्वं, गिरिजा मतिः, सहचराः प्राणाः, शरीरं गृहम्, पूजा मे विषयोपभोगरचना, निद्रा समाधिस्थितिः। संचारः पदयो, प्रदक्षिणविधः, स्तोत्राणि सर्वा गिरो, यद्यत्कर्म करेामि तत्तदखिलं शम्भो त्वदाराधनम्॥
  2. मधुसूदन का कथन हैः अवश्यम्भाविनां कर्मणां मयि परमगुरौ समर्पणमेव मद्भजनम्; न तु तदर्थ पथग्व्यापारः कश्चित् कर्त्तव्य इत्यभिप्रायः।

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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