भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 186

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-9
भगवान् अपनी सृष्टि से बड़ा है
सबसे बड़ा रहस्य

   
20.त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा
यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक-
मश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्॥

तीन वेदों के जानने वाले लोग, जो सोमरस का पान करते हैं और पापों से मुक्त हो चुके हैं, यज्ञों द्वारा मेरी उपासना करते हुए स्वर्ग पहुँचने के लिए प्रार्थना करते हैं। वे (स्वर्ग के राजा) इन्द्र के पवित्र लोक में पहुँचते हैं और वहाँ पर देवों को प्राप्त होने वाले सुखों का उपभोग करते हैं।

21.ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं,
क्षीणे पुण्ये मत्र्यलोकं विशन्ति।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना
गतागतं कामकामा लभन्ते ॥

उस विशाल स्वर्गलोक का आनन्द लेने के बाद जब उनका पुण्य समाप्त हो जाता है, तब वे फिर मत्र्यलोक में आ जाते हैं; इस प्रकार वेदोक्त धर्म का पालन करते हुए और सुखोपभोग की इच्छा रखते हुए वे पविर्तनशील (जो जन्म और मरण के वशवर्ती हैं) आवागमन को प्राप्त करते हैं।यहाँ पर गुरु वैदिक सिद्धान्त की ओर संकेत करता है और बताता है कि जो लोग विहित धार्मिक विधियों को पूरा करते हैं, वे मृत्यु के बाद स्वर्ग के सुख को प्राप्त करते हैं; और वह यह भी बताता है कि किस प्रकार इस स्वर्ग के सुख को सर्वाच्च लक्ष्य नहीं माना जा सकता। इस प्रकार के लोग कर्म के नियम से बंधे रहते हैं, क्यों कि वे अब भी कामनाओं द्वारा प्रलोभित होते हैं, कामकामाः, और वे फिर इस विश्व के क्रम में वापस लौट आते हैं, क्यों कि वे अहंकार के केन्द्र से कार्य करते हैं और क्यों कि उनका अज्ञान नष्ट नहीं हुआ होता। यदि हम प्रतिफल में स्वर्ग चाहते हैं, तो वह हमें मिल जाएगा; परन्तु जब तक हम जीवन के सच्चे लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेते, तब तक हमें फिर मत्र्य अस्तित्व में वापस लौट आना होगा। मानवीय जीवन अपूर्ण सामग्री में से आत्मा के दिव्य स्वभाव को विकसित करने के लिए एक अवसर है। चाहे हम इस संसार सुख-भोग पाने का प्रयत्न करें, या भविष्य में स्वर्ग पाने का यत्न करें, दोनों दशाओं में हम अहंकार में केन्द्रित चेतना से कार्य कर रहे होते हैं।

22.अनन्याश्चिन्तायन्तो मां ये जनाः पर्युपापसते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥

परन्तु जो लोग अनन्य भाव से सदा अध्यवसायपूर्वक मेरा ही चिन्तन करते रहते हैं, मैं उनके योग (अप्राप्त की प्राप्ति) और क्षेम (प्राप्त की रक्षा) का भार स्वयं संभालता हूँ।[1]गुरु यह बताता है कि वैदिक मार्ग एक जाल है, जिससे सर्वाच्च की साधना करने वाले लोगों को बचना चाहिए।परमात्मा अपने भक्तों के सारे बोझ और सब चिन्ताओं को स्वयं संभाल लेता है।[2] दिव्य प्रेम का अनुभव करने के लिए अन्य सब प्रेमों को त्याग देना होगा।[3]यदि हम अपने-आप को पूरी तरह परमात्मा की दया पर छोड़ दें, तो वह हमारी सब चिन्ताओं और दुःखों को स्वयं अपने ऊपर ले लेता है। हम उसकी उद्धार करने वाली देखभाल और बल देने वाली करुणा पर भरोसा रख सकते हैं।

23.यअप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेअपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्॥

अन्य देवताओं के भी जो भक्त श्रद्धापूर्वक उनकी पूजा करते हैं, हे कुन्ती के पुत्र (अर्जुन), के वे भी केवल मेरी ही पूजा करते हैं, यद्यपि उनकी यह पूजा ठीक विधि के अनुसार नहीं होती। गीता का लेखक आकाश के किसी भी भाग से आने वाले प्रकाश का स्वागत करता है। उसे चमकने का अधिकार है, क्योंकि वह प्रकाश है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. योगोअप्राप्तस्य प्रापणम् क्षेमस्तद्रक्षमणम् देखिए, 2, 45
  2. भगवान् एव ऐषां योगक्षेमं वहति।
  3. एक बार राबिया से पूछा गया: ’’क्या तुम सर्वशक्तिमान् परमात्मा से प्रेम करती हो?’’ ’’हां।’’ ’’ क्या तुम शैतान से घृणा करती हो?’’ उसने उत्तर दिया: ’’भगवान् के प्रेम के कारण मेरे पास इतनी फुर्सत ही नहीं करती कि मैं शैतान से घृणा कर संकू। मैंने पैगम्बर को सपने में देखा था। उसने पूछा, ’अरी राबिया, क्या तू मुझसे प्रेम करती है?’ मैंने उत्तर दिया, ’ओ खुदा के पैगम्बर, तुझसे कौन प्रेम नहीं करता? परन्तु खुदा के प्रेम ने मुझे इतना तल्लीन कर लिया है कि मेरे दिल में किसी अन्य वस्तु के लिए न तो प्रेम और न घृणा ही बाकी रही है।’ ’’ - आर0 ए0 निकलसन: ए लिटरेरी हिस्ट्री आफ दि अरब्स (1930), 234

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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