भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
अध्याय-7
ईश्वर और जगत
ईश्वर प्रकृति और आत्मा है 28.येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्। परन्तु वे पुण्ययात्मा लोग, जिनका पाप नष्ट हो गया है (जो पाप के प्रति मर चुके हैं) द्वैत के मोह से मुक्त होकर अपने व्रतों पर स्थिर रहते हुए मेरी पूजा करते हैं। पाप किसी विधान या रूढ़ि का उल्लंघन नहीं है, अपितु यह सारी सीमितता, अज्ञान, जीव की उस स्वाधीनता के आग्रह का, जो दूसरों को हानि पहुँचाकर अपना लाभ निकालना चाहती है, केन्द्रीय स्त्रोत है। जब इस पाप को त्याग दिया जाता है, जब इस अज्ञान पर विजय पा ली जाती है, तब हमारा जीवन उस एक भगवान् की सेवा में बीतता है, जो सबमें विद्यमान है। इस प्रक्रिया में भक्ति गम्भीरता होती जाती है और परमात्मा का ज्ञान तब तक बढ़ता जाता है, जब तक कि वह सर्वव्यापी एक आत्मा के दर्शन के दर्शन तक नहीं पहुँच पाता। वह नित्य जीवन, जन्म और मरण से मुक्ति है। तुकाराम कहता है: ’मेरे "मेरे अन्दर विद्यमान आत्मा अब मर चुकी है, और अब उसके आसन पर तू विराजमान है; हां, इस बात को मैं, तुका प्रमाणित करता हू, अब ’मैं’ या ’मेरा’ शेष नहीं है।’’ [1] 29.जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये। जो लोग मुझमें शरण लेते हैं, और जरा और मरण से मुक्ति पाने के लिए प्रयत्न करते हैं, वे सम्पूर्ण ब्रह्म को और सम्पूर्ण आत्मा को और कर्म के सम्बन्ध में सब बातों को जान जाते हैं। ’अध्यात्मम्’ व्यक्तिक आत्मा के नीचे विद्यमान वास्तविकता है।[2] 30.साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः। जो मुझे इस रूप में जानते हैं कि मैं ही एक हूँ, जो भौतिक जगत् का और दैवीय पक्षों का और सब यज्ञों का शासन करता हूं, वे योग में चित्त को लीन करके इस लोक से प्रयाण करते समय भी मेरा ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। हमसे कहा गया है कि यहाँ से प्रस्थान करते समय हम केवल कुछ आनुमानिक सिद्धान्तों को ही याद न रखें, अपितु, उस परमात्मा को उसके सब रूपों में जानें, उस पर विश्वास करें और उसकी पूजा करें। यहाँ कुछ नये पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग किया गया है और अगले अध्याय मे अर्जुन उनका अर्थ पूछता है। भगवान् को केवल उसके अपने रूप में ही नहीं जानना, अपितु प्रकृति में उसके प्रकट रूपों में भी, वस्तुरूपात्मक और कर्तात्मक तत्त्व में भी, कर्मां और यज्ञ के सिद्धान्त में भी जानना है। गुरु अगले अध्याय में इन सबकी व्याख्या संक्षेप में करता है। इति ... ज्ञानविज्ञान योगो नाम सत्पमोऽध्यायः । यह है ’ज्ञान और विज्ञान का योग’ नामक सातवां अध्याय।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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