भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 167

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-6
सच्चा योग

  

पूर्ण योगी

46.तपस्विभ्योअधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ॥

योगी तपस्वियों से बड़ा है; वह ज्ञानियों से भी बड़ा माना जाता है और वह कर्मकाण्डियों से भी बड़ा है; इसलिए हे अर्जुन, तू योगी ही बन जा। यहाँ गुरु यह कहना चाहता है कि जिस योगी का यहाँ वर्णन किया गया है, वह उस तपस्वी से अधिक उत्कृष्ट है, जो कठोर उपवास तथा अन्य कठिन अन्य कठिन अभ्यास करने के लिए वन में चला जाता है; वह उस ज्ञानी से भी उत्कृष्ट है, जो मुक्ति पाने के लिए कर्म का त्याग करके ज्ञान के मार्ग को अपनाता है; और वह उस कर्मकाण्डी से भी अधिक उत्कृष्ट है, जो फलों की इच्छा से वेद में विहित कर्मकाण्ड का पालन करता है। जिस योग को तप, ज्ञान और कर्म से उत्कृष्ट बताया गया है, उसमें इन तीनों के सर्वोच्च अंश का समावेश है और उसके साथ भक्ति भी सम्मिलित है। इस प्रकार का योगी अपने-आप को सबके हृदयों में बैठे हुए भगवान् की चरम उपासना में लगा देता है। और उसका जीवन दिव्य प्रकाश के संरक्षण में आत्मविस्मृतिकारी सेवा का जीवन होता है। योग या परमात्मा के साथ संयोग, जो भक्ति द्वारा प्राप्त होता है, सर्वोच्च लक्ष्य है। अगले श्लोक में कहा गया है कि योगियों में भी सबसे बड़ा योगी भक्त है। यहाँ ज्ञान का अर्थ शास्त्र-पाण्डित्य है (शंकराचार्य), आध्यात्मिक बोध नहीं।

47.योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः॥

सब योगियों में भी उस योगी को मैं अपने साथ सबसे अधिक संयुक्त मानता हू, जो श्रद्धापूर्वक अपनी आत्मा को मुझमें लगाकर मेरी पूजा करता है।योग के अनुशासन का एक लम्बा विवरण और उन बाधाओं का, जिनको कि जीतना है, विवरण देने के बाद गुरु यह निष्कर्ष निकालता है। कि महान् योगी वह है, जो महान् भक्त है। इति ... ध्यानयोगो नाम षष्ठोऽध्यायः। यह है ’ध्यानयोग’ नामक गीता का छठा अध्याय


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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