भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
अध्याय-6
सच्चा योग 46.तपस्विभ्योअधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः । योगी तपस्वियों से बड़ा है; वह ज्ञानियों से भी बड़ा माना जाता है और वह कर्मकाण्डियों से भी बड़ा है; इसलिए हे अर्जुन, तू योगी ही बन जा। यहाँ गुरु यह कहना चाहता है कि जिस योगी का यहाँ वर्णन किया गया है, वह उस तपस्वी से अधिक उत्कृष्ट है, जो कठोर उपवास तथा अन्य कठिन अन्य कठिन अभ्यास करने के लिए वन में चला जाता है; वह उस ज्ञानी से भी उत्कृष्ट है, जो मुक्ति पाने के लिए कर्म का त्याग करके ज्ञान के मार्ग को अपनाता है; और वह उस कर्मकाण्डी से भी अधिक उत्कृष्ट है, जो फलों की इच्छा से वेद में विहित कर्मकाण्ड का पालन करता है। जिस योग को तप, ज्ञान और कर्म से उत्कृष्ट बताया गया है, उसमें इन तीनों के सर्वोच्च अंश का समावेश है और उसके साथ भक्ति भी सम्मिलित है। इस प्रकार का योगी अपने-आप को सबके हृदयों में बैठे हुए भगवान् की चरम उपासना में लगा देता है। और उसका जीवन दिव्य प्रकाश के संरक्षण में आत्मविस्मृतिकारी सेवा का जीवन होता है। योग या परमात्मा के साथ संयोग, जो भक्ति द्वारा प्राप्त होता है, सर्वोच्च लक्ष्य है। अगले श्लोक में कहा गया है कि योगियों में भी सबसे बड़ा योगी भक्त है। यहाँ ज्ञान का अर्थ शास्त्र-पाण्डित्य है (शंकराचार्य), आध्यात्मिक बोध नहीं। 47.योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना। सब योगियों में भी उस योगी को मैं अपने साथ सबसे अधिक संयुक्त मानता हू, जो श्रद्धापूर्वक अपनी आत्मा को मुझमें लगाकर मेरी पूजा करता है।योग के अनुशासन का एक लम्बा विवरण और उन बाधाओं का, जिनको कि जीतना है, विवरण देने के बाद गुरु यह निष्कर्ष निकालता है। कि महान् योगी वह है, जो महान् भक्त है। इति ... ध्यानयोगो नाम षष्ठोऽध्यायः। यह है ’ध्यानयोग’ नामक गीता का छठा अध्याय
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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