भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 151

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-5
सच्चा संन्यास

  
26.कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम् ।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्॥

जिन तपस्वी आत्माओं ने (यतियों ने) अपने-आप को अच्छा और क्रोध से मुक्त कर लिया है, जिन्होंने अपने मन को वश में कर लिया है और जिन्होंने आत्मा को जान लिया है, परमात्मा का परम आनन्द (ब्रह्म-निर्वाण) उनके निकट ही विद्यमान रहता है।वे आत्मा की चेतना में जीवित रहते हैं। यहाँ इस संसार में ही आनन्दमय अस्तित्व की सम्भावना सूचित की गई है।

27.स्पर्शान्कृत्वा बहिर्वाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भु्रवोः।
राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ॥

28.यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः ।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः॥

सब बाह्य विषयों को बाहर रोककर, दृष्टि को भौंहों के बीच में स्थिर करके, नासिका में चलने वाले अन्दर जाने वाले और बाहर निकलने वाले श्वासों को समान करके, इन्द्रियों, मन और बुद्धि को वश में कर लेने वाला, मोक्ष पाने के लिए कटिबद्ध तथा इच्छा, भय और क्रोध से रहित मुनि सदा मुक्त ही रहता है। तुलना कीजिए: ’’जब मनुष्य अपने ध्यान को दोनों आंखों के बीच मध्य बिन्दु पर केन्द्रित करता है, जब ज्योति अपने-आप फूट पड़ती है।’’1 यह बुद्धि के साथ संयोग का प्रतीक है, जिससे आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त होता है।

29.भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ।
स्हृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति॥

वह मुनि यह जानकर कि मैं सब यज्ञों और तपों को उपभोग करने वाला हूँ और मैं सब लोकों का स्वामी हूँ और सब प्राणियों का मित्र हूँ शान्ति को प्राप्त करता है द सीक्रेट आफ द गोल्डन फ्लावर, विल्हेम द्वारा सम्पादित।लोकातीत परमात्मा सारी सृष्टि का स्वामी, सब प्राणियों का मित्र बनता है, जो उनसे किसी भी प्रतिफल की आशा किए बिना उनका भला करता है।[1] परमात्मा केवल एक दूरस्थ विश्वशासक नहीं है, अपितु घनिष्ठ मित्र और सहायक है, जो यदि हम केवल उस पर भरोसा करें, तो पाप पर विजय पाने में हमारी सहायता करने के लिए सदा तैयार रहता है। भागवत का कथन है: ’’जिनका मैं प्रिय हूं, आत्मा हूं, पुत्र हूं, मित्र हूं, सम्बन्धी हं और इष्टदेव हूँ।’’[2] इति... कर्मसंन्यास योगो नाम पच्च्मोअध्यायः । यह है ’कर्म के संन्यास का योग’ नामक पांचवा अध्याय।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सर्वप्राणिनां प्रत्युपकारिपेरक्षतया उपकारिणाम्। - शंकराचार्य। साथ ही देखिए गीता पर शंकराचार्य की टीका, 9, 18
  2. येषामहं प्रिय सुतश्चसखा गुरुः सुहृदो दैवमिष्ट्म। -3, 25, 38

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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