भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
अध्याय-5
सच्चा संन्यास जिन तपस्वी आत्माओं ने (यतियों ने) अपने-आप को अच्छा और क्रोध से मुक्त कर लिया है, जिन्होंने अपने मन को वश में कर लिया है और जिन्होंने आत्मा को जान लिया है, परमात्मा का परम आनन्द (ब्रह्म-निर्वाण) उनके निकट ही विद्यमान रहता है।वे आत्मा की चेतना में जीवित रहते हैं। यहाँ इस संसार में ही आनन्दमय अस्तित्व की सम्भावना सूचित की गई है। 27.स्पर्शान्कृत्वा बहिर्वाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भु्रवोः। 28.यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः । सब बाह्य विषयों को बाहर रोककर, दृष्टि को भौंहों के बीच में स्थिर करके, नासिका में चलने वाले अन्दर जाने वाले और बाहर निकलने वाले श्वासों को समान करके, इन्द्रियों, मन और बुद्धि को वश में कर लेने वाला, मोक्ष पाने के लिए कटिबद्ध तथा इच्छा, भय और क्रोध से रहित मुनि सदा मुक्त ही रहता है। तुलना कीजिए: ’’जब मनुष्य अपने ध्यान को दोनों आंखों के बीच मध्य बिन्दु पर केन्द्रित करता है, जब ज्योति अपने-आप फूट पड़ती है।’’1 यह बुद्धि के साथ संयोग का प्रतीक है, जिससे आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त होता है। 29.भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् । वह मुनि यह जानकर कि मैं सब यज्ञों और तपों को उपभोग करने वाला हूँ और मैं सब लोकों का स्वामी हूँ और सब प्राणियों का मित्र हूँ शान्ति को प्राप्त करता है द सीक्रेट आफ द गोल्डन फ्लावर, विल्हेम द्वारा सम्पादित।लोकातीत परमात्मा सारी सृष्टि का स्वामी, सब प्राणियों का मित्र बनता है, जो उनसे किसी भी प्रतिफल की आशा किए बिना उनका भला करता है।[1] परमात्मा केवल एक दूरस्थ विश्वशासक नहीं है, अपितु घनिष्ठ मित्र और सहायक है, जो यदि हम केवल उस पर भरोसा करें, तो पाप पर विजय पाने में हमारी सहायता करने के लिए सदा तैयार रहता है। भागवत का कथन है: ’’जिनका मैं प्रिय हूं, आत्मा हूं, पुत्र हूं, मित्र हूं, सम्बन्धी हं और इष्टदेव हूँ।’’[2] इति... कर्मसंन्यास योगो नाम पच्च्मोअध्यायः । यह है ’कर्म के संन्यास का योग’ नामक पांचवा अध्याय।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सर्वप्राणिनां प्रत्युपकारिपेरक्षतया उपकारिणाम्। - शंकराचार्य। साथ ही देखिए गीता पर शंकराचार्य की टीका, 9, 18
- ↑ येषामहं प्रिय सुतश्चसखा गुरुः सुहृदो दैवमिष्ट्म। -3, 25, 38
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज