भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 132

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-4
ज्ञानमार्ग

  
12.काड्क्षन्तः कर्मणां सिद्धि यजन्त इह देवताः ।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा॥

जो लोग अपने कर्मा का फल यहीं पृथ्वी पर चाहते हैं, वे देवताओं को (एक परमात्मा के ही विभिन्न रूपों को) बलियां देते हैं, क्यों कि मनुष्यों के इस संसार में कर्मों का फल बहुत शीघ्र मिलता है। परमात्मा के काम निष्काम स्वरूप

13.चातुर्वण्र्य मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम् ॥

मैंने गुण और कर्म के हिसाब से चार वर्गों की सृष्टि की थी। यद्यपि मैं इसका सृजन करने वाला हूँ फिर भी तू यह जान रख कि न कोई कर्म करता हूँ और न मुझमें कोई परिवर्तन होता है। चातुर्वर्ण्‍यम्: चार भागों में बंटी व्यवस्था। यहाँ जोर गुण और कर्म पर दिया गया है, जाति (जन्म) पर नहीं। हम किस वर्ण के हैं, यह बात लिंग या जन्म पर निर्भर नहीं है। स्वभाव और व्यवसाय द्वारा निर्धारित वर्ण जन्म और आनुवशंकता द्वारा निर्धारित जाति नहीं है। महाभारत के अनुसार शुरू में सारा संसार एक ही वर्ण का था। परन्तु बाद में विशिष्ट कर्त्तव्यों के कारण यह चार वर्गों में विभक्त हो गया।[1]सवर्णां और अन्त्यजों में भी भेदभाव बनावटी और अनाध्यात्मिक है। एक प्राचीन श्लोक में यह बात कही गई है कि ब्राह्मण और अन्त्यज तो सगे भाई हैं। [2] महाभारत में युधिष्ठिर कहता है कि जातियों के मिश्रण के कारण लोगों की जाति का पता करना बहुत कठिन है। लोग सब प्रकार की स्त्रियों से सन्तान उत्पन्न करते हैं, इसलिए ऋषियों के अनुसार केवल आचरण ही जाति का निर्धारण करने वाला तत्त्व है।[3] चातुर्वण्य-व्यवस्था मानवीय विकास के लिए बनाई गई है। जाति-व्यवस्था कोई परम वस्तु नहीं है। इतिहास की प्रक्रिया में इसका स्वरूप बदलता रहा है। आज इसे इसकी अपेक्षा कुछ अधिक नहीं समझा जा सकता है कि यह इस बात के लिए आग्रह है कि सामाजिक उद्देश्य को पूरा करने के लिए अमुक कार्य अमुक प्रकार किए जाने चाहिए। कृत्यों के आधार पर बने वर्ग कभी भी पुराने नहीं पडेंगे और जहाँ तक विवाहों का सवाल है, वे उन लोगों के बीच होते रहेंगे, जो सांस्कृतिक विकास की कुछ कम या अधिक एक ही कोटि में हैं। भारत की वर्तमान अस्वस्थ दशा, जिसमें अनेक जातियां तथा उपजातियां हैं, गीता द्वारा उपदिष्ट एकता की विरोधी है। यह एकता समाज की परमाणु वाली धारणा के प्रतिकूल एक सावयव धारणा का समर्थन करती है।अकर्तारम्: न करने वाला। क्यों कि भगवान् अनासक्त है, इसलिए उसे अकर्ता कहा गया है। कर्मां का उसके अपरिवर्तनशील अस्तित्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, हालांकि वह अदृश्य रूप से सब कर्मों की पृष्ठभूमि मे विद्यमान है।अनासक्त कर्मबन्धन का कारण नहीं बनता

14. न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥

कर्म मुझे दूषित नहीं करते। न किसी कर्मफल के प्रति मेरी इच्छा ही है, जो मुझे इस रूप में जानता है, वह कर्मों के बन्धन में नहीं बंधता।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. एकवर्णमिदं पूर्व विश्वमासीद्युधिष्ठिर ।कर्मक्रियाविशेषेण चातुर्वण्यं प्रतिष्ठितम्॥
  2. अन्त्यजो विप्रजातिश्च एक एव सहोदराः। एकयोनिप्रसूतश्च एकशाखेन जायते ॥
  3. संकरात्सर्ववर्णानां दुष्परीक्ष्येति मे मतिः। सर्वे सर्वा स्वपत्यानि जनयन्ति सदा नराः। तस्मात् शीलं प्रधनेष्टं विदुर्ये तत्त्वदर्शिनः ॥

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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